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पितृसत्तात्मकता का गढ़ बना बीएचयू

Majid Khan
13 Oct 2017 5:47 AM GMT
पितृसत्तात्मकता का गढ़ बना बीएचयू
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नेहा दाभाड़े
नेल्सन मंडेला ने कहा था कि ''दुनिया को बदलने के लिए शिक्षा सबसे शक्तिशाली अस्त्र है''। अगर शिक्षा दुनिया को बदलने का सबसे बड़ा हथियार है, तब, शिक्षा प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय ऐसे स्थान होने चाहिए, जहां हम इस परिवर्तन की पदचाप को सुन सकें। परंतु पिछले दिनों प्रतिष्ठित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के घटनाक्रम को देखकर ऐसा नहीं लगता कि हमारे विश्वविद्यालय परिवर्तन के वाहक हैं। कुछ सप्ताह पहले, बीएचयू के मुख्यद्वार के नज़दीक, तीन लोगों ने एक महिला विद्यार्थी के साथ छेड़छाड़ की। मोटरसाइकिल पर सवार ये लोग कुछ सौ मीटर पर मौजूद सुरक्षागार्डों की उपस्थिति में भी वहां से भाग निकलने में सफल रहे।


जब उस महिला विद्यार्थी ने बीएचयू की अपनी होस्टल के अधिकारियों से इस बात की शिकायत की और यह मांग की कि दोषियों को पकड़ा जाना चाहिए तब अधिकारियों ने उलटे उसे ही दोषी बताया। उससे कहा गया कि देर रात होस्टल लौटकर वह ऐसी घटनाओं को निमंत्रण दे रही थी। और विश्वविद्यालय के अनुसार, 'देर रात' थी शाम के छह बजे। बात यहीं खत्म नहीं हुई। जब अन्य विद्यार्थियों को इस घटना का पता चला तो उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलकर शिकायत करने और न्याय मांगने का निर्णय लिया। परंतु कुलपति ने विद्यार्थियों से मिलने से इंकार कर दिया। इसके बाद विद्यार्थियों ने असंवेदनशील विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया। विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस बुलवा ली और पुलिस ने विद्यार्थियों पर भीषण लाठीचार्ज किया। कई महिला प्रदर्शनकारियों को बालों से खींचकर नीचे पटक दिया गया। यह बल प्रयोग पूरी तरह से अनुचित और अनावश्यक था और प्रशासन व विशेषकर कुलपति के इस दृष्टिकोण का द्योतक था कि किसी भी विरोध को बलपूर्वक कुचल दिया जाना चाहिए। यह भारत में उच्च पदों पर बैठे लोगों की प्रजातंत्र के प्रति 'निष्ठा' का उदाहरण है। इससे यह भी पता चलता है कि भाजपा और हिन्दुत्व कार्यकर्ता, महिला अधिकारों और लैंगिक समानता के बारे में क्या सोच रखते हैं।


विद्यार्थियों का यह विरोध प्रदर्शन यद्यपि तत्काल घटी घटना के प्रतिक्रिया स्वरूप था परंतु वह विद्यार्थियों में लंबे अरसे से उबल रहे गुस्से का प्रतीक भी था। इस तरह की घटनाएं विश्वविद्यालय प्रांगण में पहले भी होती रही हैं। सन 2016 में एक महिला शोधार्थी के साथ एक वरिष्ठ विद्यार्थी ने बलात्कार किया था। न केवल महिला विद्यार्थियों बल्कि महिला प्राध्यापकों को भी विश्वविद्यालय प्रांगण अपने लिए असुरक्षित लगने लगा है। विश्वविद्यालय में गिरीश चंद्र त्रिपाठी की कुलपति के पद पर नियुक्ति के बाद से वहां असहमति के स्वरों को कुचलने की प्रवृत्ति बढ़ी है। यही कुछ देश के अन्य भागों के विश्वविद्यालय प्रांगणों में भी हो रहा है जहां असहमत और असंतुष्ट विद्यार्थियों को 'राष्ट्रद्रोही' बताना आम हो गया है। संस्कृति और राष्ट्रवाद के नाम पर शैक्षणिक संस्थाओं में विद्यार्थियों के संवैधानिक अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है। इस तरह की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के चलते ही लगभग एक वर्ष पूर्व रोहित वेम्युला को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा था। विद्यार्थियों के इस दमन को संस्थागत बनाने के लिए सरकारों द्वारा हिन्दुत्ववादी विचारधारा से प्रेरित व्यक्तियों को विश्वविद्यालयों में कुलपति और अन्य उच्च पदों पर नियुक्त किया जा रहा है। इन लोगों की शैक्षणिक योग्यता संदेहास्पद है। बीएचयू में भी यही हुआ।


इस मामले का सबसे चिंताजनक पक्ष है कुलपति का दृष्टिकोण। जब उनसे यह पूछा गया कि उन्होंने महिला विद्यार्थी की शिकायत पर पर्याप्त कार्यवही क्यों नहीं की तो उनका जवाब था, ''अगर हम हर लड़की की सुनने लगेंगे तो हम विश्वविद्यालय नहीं चला सकते''। यह टिप्पणी कुलपति की पृष्ठभूमि के अनुरूप ही है। गिरीश त्रिपाठी को आरएसएस का समर्थन प्राप्त है और वे उसकी विचारधारा के जबरदस्त हामी हैं। उन्होंने कई बार खुलकर यह स्वीकार किया है कि वे संघ समर्थक हैं। वे समय-समय पर इंद्रेश कुमार व अन्य आरएसएस नेताओं के भाषण विश्वविद्यालय में आयोजित करवाते रहते हैं। उनके आदेश पर विश्वविद्यालय में 'भारत अध्ययन केन्द्र' की स्थापना की गई है, जो भारत के प्राचीन विज्ञानों का अध्ययन करेगा। इन प्राचीन विज्ञानों को कुलपति महोदय 'भारतीय संस्कृति की आत्मा' बताते हैं। वे शोधार्थी और अध्यापक जो संघ की विचारधारा का समर्थन नहीं करते, उन्हें विश्वविद्यालय से निकाल बाहर कर दिया जाता है। ऐसा ही मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता संजीव पांडे के साथ हुआ। ऐसा आरोप है कि सभी नियमों का मखौल बनाते हुए कुलपति ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुनाव सभा में हिस्सा लिया। केन्द्र सरकार के नियमों के अनुसार, शासकीय सेवक को किसी भी राजनीतिक दल के प्रति प्रतिबद्धता का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। त्रिपाठी बेशर्मी से यह तक कह चुके हैं कि ''जब भारत सरकार ही आरएसएस है तो बीएचयू में आरएसएस की शाखा चलाने में क्या गलत है''।


शैक्षणिक संस्थानों के भगवाकरण के लिए शासक दल चुनचुनकर अपनी विचारधारा के लोगों को उच्च प्रशासनिक पदों पर नियुक्त कर रहा है और ये सभी, असहमति के अधिकार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने में लगे हुए हैं।


शैक्षणिक संस्थाओं का किस हद तक भगवाकरण हो रहा है और इसका लैंगिक अधिकारों पर क्या असर पड़ रहा है इसका एक उदाहरण है वे अपमानजनक और स्त्री-द्वेषी नियम जो बीएचयू में लागू किए गए हैं। कुलपति का यह विचार है कि विश्वविद्यालय कैम्पस में महिला और पुरूष विद्यार्थियों को एक दूसरे से मिलनाजुलना नहीं चाहिए। वे नहीं चाहते कि महिला और पुरूष विद्यार्थी एक साथ बैठे भीं। इस साल के शुरू में विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक सर्कुलर जारी कर यह कहा था कि अगर विश्वविद्यालय प्रांगण में कोई भी विद्यार्थी वेलेन्टाइन डे मनाते हुए पकड़ा गया तो उसे 'श्रेणी-अ' की सज़ा दी जाएगी। 'श्रेणी-अ' की सज़ा का अर्थ है विश्वविद्यालय से निलंबन। बीएचयू में महिला और पुरूष विद्यार्थियों के लिए अलग-अलग नियम हैं। महिला विद्यार्थी रात दस बजे के बाद मोबाइल फोन का इस्तेमाल नहीं कर सकती। वे रात में अपनी होस्टल से बाहर नहीं निकल सकती। त्रिपाठी का यह मानना है कि ''रात में बाहर रहने वाली लड़कियां चरित्रहीन होती हैं''। इस नियम के चलते महिला विद्यार्थी, विश्वविद्यालय के पुस्तकालय, जो चैबीसों घंटे सातों दिन खुला रहता है, में रात में अध्ययन नहीं कर सकतीं। ना ही वे उस बस सेवा का उपयोग कर सकती हैं जो विद्यार्थियों के लिए रात में चलाई जाती है। जहां पुरूषों की होस्टलों में मांस परोसा जाता है वहीं महिलाओं को शाकाहार पर मजबूर किया जा रहा है। त्रिपाठी का यह मानना है कि ''मांस भक्षण से महिलाएं अपवित्र हो जाती हैं''। महिलाओं के लिए कैम्पस में आठ बजे रात से कर्फ़्यू लग जाता है। इसके बाद वे अपनी होस्टल से बाहर नहीं निकल सकतीं। इसके विपरीत, पुरूष विद्यार्थी जब तक चाहे विश्वविद्यालय प्रांगण में घूमफिर सकते हैं।


बीएचयू की घटना, भाजपा-आरएसएस के पितृसत्तात्मक और स्त्री-द्वेषी दृष्टिकोण का एकमात्र उदाहरण नहीं है। दरअसल, हिन्दुत्व की विचारधारा उन्हें महिलाओं के प्रति इस तरह का दृष्टिकोण रखने के लिए प्रेरित करती है। हिन्दुत्व यथास्थति बनाए रखने का हामी है और समाज पर पितृसत्तात्मक सोच लादना चाहता है। परंतु घृणा की राजनीति करने के लिए महिलाओं का इस्तेमाल करने से वह सकुचाता नहीं है। उत्तरप्रदेश में मजनू-विरोधी दस्ते बनाए गए हैं जो महिलाओं के अपनी मर्जी से विवाह करने और आने-जाने की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं। 'दुष्ट' मुस्लिम पुरूषों की बुरी नज़र से बचाने के नाम पर महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। उत्तरप्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य नहीं है जहां लवजिहाद और अन्य ऐसे ही बेसिरपैर के मुद्दों का इस्तेमाल महिलाओं को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने के लिए किया जा रहा हो।


संघ व भाजपा महिलाओं का इस्तेमाल हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए करना चाहते हैं। परंतु उनका राष्ट्र समावेशी नहीं है और वह पदक्रम-आधारित है। उनके राष्ट्र में महिलाओं और पुरूषों की भूमिका पूर्व निर्धारित है और ये भूमिकाएं पुरूषत्व और स्त्रीत्व के विचार पर आधारित है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दुत्ववादियों के लिए राष्ट्र का विचार भी लिंग आधारित है। उनके लिए राष्ट्र मातृभूमि है जिसे बाहरी तत्वों द्वारा अपवित्र किए जाने से बचाना सभी राष्ट्रवादियों का कर्तव्य है। मातृभूमि के सभी लक्षण स्त्रीयोचित हैं और उसके रक्षकों के पुरूषोचित। हिंसा को पौरूष और वीरता का प्रतीक माना जाता है। जो महिलाएं हिंसा को बढ़ावा देती हैं या उसे भड़काती हैं, उन्हें वीर बताया जाता है और यह कहा जाता है कि वे पारंपरिक लैंगिक अवरोधों को तोड़कर राष्ट्र की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए आगे आ रही हैं। गोवा में एक हिन्दू सम्मेलन में बोलते हुए साध्वी सरस्वती ने गोमांस भक्षण की चर्चा करते हुए कहा, ''जो व्यक्ति अपने मां (गौ माता) का मांस खाने को अपना स्टेटस सिम्बल मानता है, ऐसे व्यक्तियों को भारत सरकार से निवेदन करती हूं, फांसी पर लटकाना चाहिए। बीच चैराहे पर लटकाना चाहिए...तब लोगों को पता चलेगा कि गौ माता की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है''। इसके पहले भी साध्वी ऋतंभरा और उमा भारती ने अत्यंत अश्लील भाषा में हिंसा भड़काने वाले भाषण दिए थे।


यद्यपि महिलाओं को उग्र राष्ट्रवादी बनाने की इस प्रक्रिया को लैंगिक समानता और स्त्रियों की मुक्ति की ओर सार्थक कदम बताया जाता है तथापि हमें यह नहीं भूलना चाहिए इन्हीं महिलाओं से यह भी अपेक्षा की जाती है कि अपने घरों की चहारदीवारी में वे दब्बू और विनीत बनी रहें। इस प्रक्रिया में दोनों लिंगों की भूमिका में कोई परिवर्तन नहीं आता। महिलाओं को बार-बार इस देश के महान अतीत की याद दिलाई जाती है और नारीत्व की सार्थकता, मातृत्व में बताई जाती है। महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे न केवल मनुष्यों का पुर्नउत्पादन करें वरन संस्कृति और मूल्यों का पुर्नउत्पादन भी करें। जब भी ज़रूरत हो, पुरूष राष्ट्र की रक्षा के लिए उपलब्ध हैं। अपनी भूमिका बेहतर ढंग से निभाने के लिए पुरूषों के लिए आक्रामक और स्वतंत्र रहना आवश्यक है। इसके विपरीत, चूंकि महिलाएं संस्कृति की रक्षक और पुर्नउत्पादक हैं इसलिए उन्हें घर की चहारदीवारी के भीतर रहना चाहिए और उन्हें सौंपी गई भूमिका का निर्वहन करना चाहिए। यह विचारधारा पूर्व निर्धारित लैंगिक भूमिकाओं को औचित्यपूर्ण बताती हैं। बीएचयू में भी ठीक यही हो रहा था। जहां पुरूषों को रात भर विश्वविद्यालय प्रांगण में विचरण करने का अधिकार है वहीं महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने होस्टलों के अंदर रहें, मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करें और ड्रेस कोड का पालन करें। आरएसएस जब यह कहता है कि हर हिन्दू महिला को कम से कम चार बच्चों को जन्म देना चाहिए, तब वह इसी विचारधारा को प्रतिध्वनित करता है। आरएसएस ने हाल में एक परिवार परामर्श कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की जिसका नाम 'कुटुम्ब प्रबोधन' रखा गया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत परिवारों को एक मार्गनिर्देशिका जारी की गई है जिसका उद्देश्य 'लोगों में नैतिकता और मूल्यों के प्रति सम्मान का भाव विकसित करना है'। इस मार्गनिर्देशिका में महिलाओं को साड़ी पहनने की सलाह दी गई है। इससे ही स्पष्ट है कि इसका मूल स्वर क्या होगा।


बीएचयू में भेदभावपूर्ण नियम कड़ाई से लागू किए जा रहे हैं। इनका राजनीतिक मंतव्य है और वह है महिलाओं के ज़रिए हिन्दू पहचान को मजबूत बनाना। जाहिर है कि इस प्रक्रिया में महिलाओं के अधिकारों पर गंभीर अतिक्रमण हो रहा है। भाजपा व आरएसएस कभी भी महिला अधिकारों के पैरोकार नहीं रहे हैं और उन्होंने कभी समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मकता को चुनौती नहीं दी। आरएसएस ने हिन्दू कोड बिल का कड़ा विरोध किया था। यह बिल हिन्दू पर्सनल लॉ में इस तरह के संशोधन करने के लिए लाया गया था जिससे महिलाओं को अधिक अधिकार मिल सकें। इसके विपरीत, भाजपा ने मुंहज़बानी तलाक को गैर-कानूनी ठहराए जाने के उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत किया।


हमने कभी यह नहीं सुना कि कोई साध्वी इस बात की वकालत करती हो कि महिलाओं को परिवार की खेती की भूमि पर अधिकार दिलवाया जाए, उन्हें जीवनयापन के स्त्रोत उपलब्ध करवाएं जाएं, उन्हें शिक्षा पाने के समान अवसर मिलें और उन्हें यह इजाज़त हो कि वे जो चाहे वह खा सकें, जो चाहे पहन सकें और जिससे विवाह करना चाहें, उससे विवाह कर सकें। साध्वियां अपने भाषणों में महिलाओं के अधिकारो की बात कभी नहीं करतीं। इससे भी बुरी बात यह है कि राज्य इस भेदभाव और दमन का समर्थन करता है जबकि यह संविधान के प्रावधानों का स्पष्ट उल्लंघन है। समाज में महिलाओं के विरूद्ध हिंसा पर हमारे शीर्ष नेता चुप्पी साधे हुए हैं। सोशल मीडिया पर अति-सक्रिय रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने बीएचयू के घटनाक्रम पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं समझा। यह विडंबना ही है कि बीएचयू वाराणसी में है, जहां से प्रधानमंत्री लोकसभा के लिए चुने गए हैं। जब बीएचयू में यह घटनाक्रम हो रहा था उस समय वे वाराणसी में ही थे।
बीएचयू की घटना केवल महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार या उनकी सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा नहीं है। यह भाजपा और आरएसएस के राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा है। इस एजेंडे के मूल में है भारत की प्रजातांत्रिक संस्कृति का खात्मा।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमत होने का अधिकार, प्रजातंत्र का मूल हैं। बीएचयू की घटना के ठीक पहले पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हुई थी। वे हिन्दुत्ववादियों की प्रखर विरोधी थीं। बीएचयू में हो रहे विरोध प्रदर्शन और अन्य शैक्षणिक संस्थानों के विद्यार्थियों में व्याप्त असंतोष और गुस्सा, वर्तमान सरकार की नीतियों और उसकी विचारधारा का नतीजा है। इस तरह की आवाज़ों को चुप करने का प्रयास किया जा रहा है। इस सबके बावजूद हमें इस दमन का विरोध करना जारी रखना चाहिए क्योंकि तभी हम यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि देश में प्रजातंत्र बचा रहे और समाज के कमज़ोर और वंचित तबकों, जिनमें महिलाएं शामिल हैं, को न्याय मिल सके।

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