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हरे फंदे के चलते 'छिछोरे मीडिया' का हिट विकेट आउट हो जाना
विजय शंकर पाण्डेय
अखबारी संपादक दुनिया का इकलौता ऐसा प्रोफेशनल है, जो गलती करने के बाद अगली सुबह उसे तश्तरी में रखकर घर घर परोस देता है. बाकी लोग, चाहे डॉक्टर हो या इंजीनियर, उनके पास करेक्शन या रेक्टिफिकेशन का आप्शन बाद तक बना रहता है. ब्रेकिंग न्यूज क्रांति और सो कॉल्ड समथिंग डिफरेंट के दौर में टीवी और न्यूज पोर्टल वाले अपनी कारगुजारी की तत्काल होम डिलीवरी कर देते हैं. मगर क्या कीजिएगा सारे दाग अच्छे ही नहीं होते. सुशांत का हरा फंदा तो मीडिया को दिख गया, मगर उनकी दोस्त मनमीत व प्रेक्षा, सेक्रेट्री दिशा सालियां और कन्नड़ एक्ट्रेस टीवी एंकर चांदना वीके ने क्यों आत्मघाती कदम उठाया, इस पर रिसर्च होना बाकी है. क्यों? वैसे अल्टीमेटली पापी टीआरपी का ही सवाल है.
प्राण का मैं मुरीद रहा हूं. कुछेक को छोड़ उनकी लगभग हर फिल्म देखा हूं. जिस दिन उनका निधन हुआ था मैं एक टीवी चैनल के न्यूज रूम में मौजूद था. तकनीक सुलभ दौर में झुमरीतलैया हेडक्वार्टर वाला टीवी चैनल भी तड़ से दिल्ली-मुंबई की खबरें परोस देते हैं, जबकि कई बार उनका कोई रिपोर्टर वहां मौजूद नहीं होता. कोई जुगाड़ होता भी है तो पता चलता है कि इनपुट सेक्शन तक उनका पार्सल पहुंचा ही नहीं. फिर भी ब्रेकिंग न्यूज वाले दौर में जग हसाई तो बर्दाश्त होगी नहीं. अंदर की बात बाहर नहीं आनी चाहिए. आप भी किसी से बताइएगा मत. हर हाल में शो मस्ट गो आन....
अब मामला पहुंचा मेरे पास इस तमगे के साथ कि आपकी कॉपी अच्छी होती है, जरा धांसू टाइप पीस लिख दीजिए. न्यूज एजेंसी से विजुअल का बंदोबस्त हो रहा है, किसी एंकर से वीओ करवा लेंगे. प्रकारांतर में उनके कहने का आशय यही था कि मैं इस अंदाज में लिखूं कि लगे कि यमराज के महिषवाहन के साथ मैं भी स्पॉट पर मौजूद था, बिल्कुल लाइव टाइप. सूचना प्रामाणिक थी, सो यहां तक तो खैरियत थी. इसी बीच एक जने हाईकमान की उपस्थिति की भनक लगते ही बहती गंगा में हाथ धोने पहुंच गए. बोले- अरे सर, मुंबई में बारिश शुरू हो गई है. हेडिंग लगा दीजिएगा, महान कलाकार के निधन पर आसमान भी रोया. वैधानिक चेतावनी, टीवी की स्क्रिप्ट लिखते वक्त हाजमा दुरुस्त रखना बहुत जरूरी है, इसलिए हाजमोला जेब में ही रखा करें.
सुनी सुनाई बात है, शहर में कहीं विस्फोट हो गया. किसी ने फोन कर न्यूज रूम इंचार्ज को बताया. मगर फोन करने वाले की अपनी सीमा थी, उसे कुछ नहीं पता कि कैसे विस्फोट हुआ वगैरह वगैरह. मगर स्थिति बिल्कुल आदर्श रहे तो टीवी एडिटरी किस दिन काम आएगी. रिपोर्टर फोटोग्राफर मौके पर रवाना हो गए. अब एडिटर साहब ने हुक्म दिया. तत्काल ब्रेकिंग तो चला ही दी जाए. 'पार्किंग में खड़ी साइकिल पर झोले में टंगा बम फटा'. पलक झपकते अन्य प्रतिद्वंद्वी टीवी चैनलों के स्क्रीन पर भी यही ब्रेकिंग हूबहू कुलांचे भरने लगी. एडिटर साहब गदगद. देखा आप लोगों ने, हमारा चैनल कितना देखा जाता है? इसी बीच एक चैनलवाले ने करेक्शन कर चलाया कि 'कार में रखा बम फटा'. इधर भी तुरंत ब्रेकिंग करेक्शन कर दी गई. पलक झपकते बाकी चैनलों ने भी सुधार कर लिया. एडिटर साहब ने तमगा अपना झाड़ना पोछना शुरू कर दिया. इतना तो कहा ही जाएगा कि बम विस्फोट की खबर सबसे पहले हमारे चैनल ने ही ब्रेक किया. यह वक्तव्य देते वक्त एडिटर के भावशून्य चेहरे पर शर्मिंदगी के नामोनिशान नहीं थे. अब एडिटर साहब के कुर्सी पर रहते कौन माई का लाल जुबान खोलने का दुस्साहस करेगा.
टाइम फैक्टर अखबारों पर भी हावी रहता है. शत प्रतिशत एरर प्रूफ अखबार नहीं निकल सकते, फिर भी सुविधा संसाधन संपन्न अखबारों में इतने बैरिकेडस तो होते ही हैं कि गलतियों को क्रॉस चेक किया जा सके, मिनिमाइज किया जा सके या रोका जा सके. हालांकि अब भेड़ चाल में अखबार भी शामिल हो गए हैं. असल में अब फंडा यह है कि बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा. ऐसा कुछ हो जाने पर बिना चवन्नी खर्च किए सोशल साइटें ब्रांड को घर घर पहुंचा दे रही हैं. भले फजीहत हो रही है, थू थू हो रही है, मगर ब्रांड तो लोगों के जुबान पर चढ़ ही जाता है. विकसित देशों में ब्रांड के नाम पर ही प्रोडक्ट यूज करने का चलन है. जबकि अपने यहां कुछ पुराने लोग अब भी आलू प्याज ठेले पर ही छांटने लगते हैं. हालांकि यहां भी ब्रांड को इज्जत बख्शने वालों की तादाद बढ़ रही है.
जब सोशल साइटों का इतना चलन नहीं था तो संपादक कहते थे कि एक दिन अगर पाठक ने गलत खबर पढ़ ली. तो भविष्य में वह हमारी सही खबर को भी आसानी से पचा नहीं पाएगा. एक बार तो जरूर कहेगा कि अरे वही गलत खबर छापने वाला अखबार है. फिर भरोसा वापस जमाने में महीनों लग सकते हैं. हो सकता है हॉकर को बोलकर ग्राहक अखबार ही बदल दे. यही वजह थी कि उस जमाने में किसी खबर का खंडन छपवाने में पसीने छूट जाते थे. अखबार जल्दी तैयार नहीं होते थे. हालांकि डेढ़ दशक पहले तक लोग आज की तरह इस कदर मेमॉरी लॉस के शिकार नहीं थे. एक बात और, सूचनाओं की इस सुनामी में भला किसे याद है कि कौन क्या गलत कर निकल लिया. अगर गिनती के लोगों को याद भी है तो इस भीड़ के शोर शराबे में उनकी सुनेगा कौन?
मूल बात तो यह है कि पत्रकारिता में तजुर्बा बहुत मायने रखता है. किस शब्द का कहां क्या इम्पैक्ट होगा. यह ज्यादा महत्वपूर्ण है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पानी सड़क पर खड़ा हो जाता है, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में जमा हो जाता या भर जाता है. हिंदी बेल्ट में कारगुजारी शब्द में नकारात्मकता की ध्वनि होती है. जबकि पंजाब में यह उपलब्धि का पर्यायवाची है. वहां मंत्री कारगुजारियां गर्व से बताते हैं. पंजाब में पर्यटन मंत्री सैर सपाटा मंत्री कहे जाते हैं. यूपी, बिहार में कह दीजिए तो ठहाके लगने लगेंगे. ठीक इसी तरह इसी यूपी के एक छोर पर 'लौंडे-लौंडिया' लाड-दुलार पाता हैं, दूसरे छोर पर हाथापाई व गाली गलौज करवा देता हैं. बंगाल चाय खाने पर आमादा है तो क्या हुआ, बाकी को तो पीने दीजिए. शब्द केवल आवाज, ध्वनि या संकेत मात्र होते हैं. उसमें अर्थ, भाव या जान मनुष्य डालता है, उसे सार्थक या व्यर्थ भी मनुष्य ही करता है.
जनश्रुति को माने तो गुरु गोरखनाथ ने अपनी सिद्धियों पर विजय प्राप्त कर परमार्थ के लिए इन्हीं शब्दों में जान डाल दिया था और शाबर मंत्रों के प्रणेता बने. प्रयोगधर्मी गुरु गोरखनाथ शंकराचार्य की भांति ही देश के महान संतों में गिने जाते हैं. शरीर और मन के साथ नित नए प्रयोग के लिए ही वे जाने जाते थे. अचंभित करने वाले कई अजूबे मगर दुनिया की नजर में उल्टे सीधे आसनों का उन्होंने अविष्कार किया था. संभवतः उसी दौर में गोरखधंधा शब्द आकार लिया होगा. जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी... की तर्ज पर इस शब्द के सदुपयोग और दुरुपयोग किए जाने के भी कई उदाहरण हैं. मसलन नाज़ ख्यालवी द्वारा कलमबद्ध "तुम एक गोरखधंधा हो! ...." सरीखे बेमिसाल सूफ़ियाना कलाम को कभी नुसरत फतेह अली खान की आवाज में सुनिए. यकीन मानिए खुदा भी आसमां से जब इसे सुनता होगा, मुस्कराता जरूर होगा. मगर आम बोलचाल में गोरखधंधा शब्द उल्टी सीधी हरकतों को ही इंगित करता है, वैसे बिना वर्जनाओं को तोड़े, बिना कुछ उल्टा सीधा किए, आप कोई अद्भुत काम कर भी नहीं सकते. मगर दादा कोडके के अनुयाय़ी शब्द शिल्पियों की भी यही दुनिया है.
कानपुर में सोनेलाल पटेल एक्सीडेंट में गंभीर रूप से घायल हो गए. लेट नाइट की खबर थी. अखबार फाइनल छोड़ना था. क्राइम रिपोर्टर और फोटोग्राफर दोनों मौके पर मुस्तैद थे. पल पल के डेवलपमेंट की प्रामाणिक सूचना मिल रही थी. इसी बीच अफवाह उड़ी कि इस भयावह हादसे में सोनलाल पटेल गुजर गए. मगर कोई आफिशियल सोर्सेस कन्फर्मेशन को तैयार नहीं. क्योंकि समर्थकों में रोष बहुत था. बहुत मशक्कत के बाद एक दरोगा ने बस इतना बताया कि स्थिति क्रिटिकल है. घटना स्थल कानपुर था, सोनेलाल पटेल भी उसी शहर के, मगर वे पूर्वांचल के बड़े लीडर. इस खबर के इंतजार में राजधानी लखनऊ से लेकर बनारस तक के एडिशन छपने नहीं जा रह थे. प्रेशर बढ़ता जा रहा था. देर रात कहीं से नंबर जुगाड़ अखबारी लोगों ने करीबियों से इस खबर पर बात की तो कि तो वहां पुष्टि हो गई. नर्सिंग होम में मौजूद करीबियों ने बताया कि सोनेलाल पटेल गुजर चुके हैं.
एक प्रकरण था बलिया के कथित नासा टॉपर सौरव सिंह का. पूरी दुनिया की मीडिया महीने भर तक इस खबर को लेकर चक्करघिन्नी बनी रही. पूरे देश में तहलका मचा रहा. मामला राष्ट्रपति भवन पहुंचा तो पता चला मामला फ्रॉ़ड का है. ऐसे कई उदाहरण है कि मंत्री जी के बयान पर खबर छप गई कि अपराधी पर रासुका लग गया. एक्शन पुलिस को लेना है. पुलिस बता रही है कि इस नाम का अपराधी फिलहाल भारत से बाहर है.
अखबार में नौकरी के लिए बेगारी का एक्सपीरिएंस ही अमूमन क्वालिफाइंग मार्क्स हुआ करता था. क्योंकि तभी आप स्पॉट पर डिसिजन लेना सीख सकते थे. टीवी ने नए लड़के लड़कियों में पत्रकारिता के प्रति बेहिसाब चार्म/ग्लैमर पैदा कर दिया. हालांकि उनकी नजर में पत्रकार बस वही है, जो टीवी स्क्रीन पर दिखता है. जबकि वह सिर्फ एंकर होता है. खैर इस क्रेज को भुनाने के लिए गली गली में पत्रकारिता इंस्टीट्यूट खुल गए. वे क्या सिखाते या पढ़ाते हैं. यह समझ पाना मुश्किल है. तीन लाइन के छुट्टी के आवेदन में भी कई गलतियां. एक दिन मुंह से निकल ही गया. किसी डॉक्टर ने कहा था क्या पत्रकारिता करने के लिए? जवाब में कन्या ने दिव्य अस्त्र का प्रयोग किया. रोने लगी. बताई कि कई लाख रुपये एजूकेशन लोन लेकर उसने कोर्स पूरा किया है. फिलहाल उसे पत्रकारिता से जो मानदेय मिलता है, एजूकेशन लोन के इंस्टालमेंट के लिए ही पूरा नहीं पड़ता. घरवालों से लेना पड़ता है. इस तरह के बच्चों के साथ हुए विश्वासघात और धोखाधड़ी का अंदाजा लगाना बड़ा मुश्किल है.
अखबारों में तो कॉपियां बहुत मायने रखती हैं. मगर टीवी में बस राम ही मालिक है. एक चैनल के संपादक जी के बुलावे पर पहुंचा, एमडी भी वहां मौजूद थे. बोले कायदे के किसी हिंदी जानने वाले को बुलाइए, जो यहां के बच्चों को हिंदी लिखना सीखा दे. मैंने पूछा – पैसे क्या देंगे? जवाब मिला, हम बहुत अच्छा पैसे देने की स्थिति में तो हैं नहीं. उन्हें टीवी का एक्सपीरिएंस हो जाएगा, तो हो सकता है कि कोई बड़ा चैनल आफर दे दे. मैंने कहा- भाई साहब, बैशाख की करार पर घी कब तक पिया जा सकता है. ज्यादातर लोग विश्वविद्यालय से निकलते भी हैं तो कायदे की हिंदी नहीं लिख पाते. काम चलाने लायक हिंदी सीखते सीखते आदमी की शादी हो जाती है, एकाध बच्चे हो जाते हैं. अब कोई नौकरी करने आएगा तो बीवी बच्चों को किसके हवाले करके आए. वह भी आजकल लव मैरिज का चलन है, कई मां बाप घास नहीं डालेंगे.
असल में पत्रकारिता में तकनीक का हस्तक्षेप बेहिसाब बढ़ा है. उसके लिए विधिवत प्रशिक्षण अब जरूरी लगने लगा है. मगर पत्रकारिता की बुनियादी जानकारी प्रैक्टिकली काम करते हुए ही हासिल हो सकती है. बनारस से एक अखबार लांच हुआ तो बीएचयू में पत्रकारिता का कोर्स कर रहे कुछ बच्चे प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के उद्देश्य से वहां पहुंचे. मुझसे कहा गया कि इन बच्चों को टास्क देना और उसे चेक करना मेरी ही जिम्मेदारी है. हालांकि तब वहां सख्त आदेश था कि सिर्फ स्टाफ रिपोर्टरों की कॉपी ही डेस्क पब्लिशिंग के लिए मंजूर करें. जाहिर था बच्चों की कॉपियां में डस्टबीन के हवाले करनी थी. फिर इतना वर्कलोड भी था कि मैं उन्हें समय उतना नहीं दे पाता. यूनिवर्सिटी के बच्चे, अपनी स्टाइल में काम करते, हर आधे घंटे पर चाय पानी करने निकल जाते. अब मैं अपना काम करूं या उनकी मास्टरी. एक दिन उनमें से एक बच्चे ने पूछा – सर अखबार में जो दिल्ली, मुंबई या लंदन की खबरे छपती हैं, वह कौन चेक करता हैं. मैंने बताया कि हमे ही जहां बैठाया जाएगा, वहां की कॉपी चेक करेंगे. फिलहाल बनारस में बैठाया गया है तो यहां की कॉपियां देख रहे हैं. उनके चेहरे के भाव से लगा कि वे बनारस, गाजीपुर, जौनपुर की कॉपियां देखने वालों को हेय दृष्टि से देख रहे हैं.
इस भेड़ चाल में कई संस्थानों ने अपनी कमाई के अवसर तलाश लिए. फ्री कामगार पाने के उद्देश्य के कई मीडिया हाउस साइड में जर्नलिज्म इंस्टीट्यूट भी चला रहे हैं. लाखों की फीस तो वे वसूलते हीं हैं, सैलरी भी बचा लेते हैं. इस धंधे में डबल फायदा है. अब इसमें कितनों को नौकरी वे देते हैं? जिन्हें नहीं देते, उन्हें कहीं और मौका मिलता है या नहीं? अगर नहीं मिलता तो लाखों गंवाने के बाद टीवी पत्रकार बनने निकले ये बच्चे क्या करते हैं? यह सवाल उस दौर में ज्यादा मायने रखता है जब स्थापित पत्रकारों की नौकरियों पर संकट मंडरा रहा है.