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देश में बाल दिवस एक रश्मअदायगी सी बन गई है। इसका इतना ही महत्व है कि हर साल 14 नंबर को कुछ आयोजन करना है। आजादी के सत्तर साल बाद भी बच्चे उपेक्षित हैं। न तो हमारा समाज ही उन्हें गंभीरता से लेता है और ही सरकार। बच्चों का भी कोई अधिकार होता है, यह सोच अभी हमारे देश में विकसित नहीं हो पाई है। रोटी, खेल, पढ़ाई और प्यार यह सभी बच्चों का अधिकार है। लेकिन आज भी भारत में तकरीबन पांच करोड़ बच्चे बाल मजदूरी और गुलामी का जीवन जी रहे हैं। हर दिन 10 बच्चों को वेश्यावृत्ति और बाल मजदूरी के लिए खरीदा और बेचा जाता है, वह भी जानवरों से कम कीमत पर।
बच्चों के लिहाज से शिक्षा और सुरक्षा दो महत्वपूर्ण बिषय हैं। लेकिन सरकार उनकी शिक्षा और सुरक्षा पर बजट का महज चार फीसदी ही खर्च करती है। इसमें से भी एक हिस्सा बाल दिवस जैसे आयोजनों में खर्च हो जाता है। यह बजट बच्चों की आबादी के हिसाब से बहुत कम है। जनसंख्या के हिसाब इस देश में बच्चों की आबादी करीब 40 फीसदी है। 40 फीसदी आबादी के लिए 4 फीसदी बजट कहां से न्यायोचित है?
इधर कुछ सालों में भारत में बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। हर रोज अखबार में बच्चों के साथ बलात्कार और यौन शोषण की खबरें पढ़ने को मिल ही जाती हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े चौकानें वाले हैं। ये सरकारी आंकडें हैं। यानी जिन मामलों की पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की है, ये आंकड़े उन पर आधारित हैं। जबकि असल आंकड़े तो इससे कहीं ज्यादा हैं, क्योंकि बहुत सारे मामलों की तो पुलिस रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करती। हर दिन 40 बच्चों के साथ बलात्कार होता है। जबकि हर दिन 48 बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं। हर घंटे एक बच्चे को वेश्यावृत्ति आदि के लिए बेच दिया जाता है। हर छह मिनट में एक बच्चा गुम हो जाता है। ये आंकड़े भयावह हैं। इन पर लगाम लगानी होगी। इसके लिए सरकार को गंभीर कदम उठाने पड़ेंगे।
देश में बाल मजदूरी से लेकर बच्चों के यौन शोषण को रोकने के लिए कानून हैं। लेकिन महज कानून बन जाने से अपराध नहीं रुकते। उसका सख्ती से क्रियान्वयन होना चाहिए। हमारी पुलिस व्यवस्था से सभी लोग परिचित हैं। ज्यादातर को तो कानून का ज्ञान ही नहीं। पुलिस कार्रवाई कर भी देती है तो जटिल और लंबी कानूनी प्रकिया में न्याय उलझ कर अदालत में ही दम तोड़ देता है। बच्चों के यौन शोषण के मामले में सजा की दर चार फीसदी से भी कम है। इसलिए बच्चों के खिलाफ हाने वाले अपराधों के लिए अलग से थाने और अलग से फास्टट्रैक अदालतें होनी चाहिए। बच्चों के बढ़ते यौन शोषण के मामले में समाज भी जिम्मेदार है। लोग मान मर्यादा के डर से बच्चों के यौन शोषण की बात छिपा जाते हैं। बच्चों को भी इस बारे में बोलने के लिए चुप करा देते हैं। इससे अपराधी का मनोबल बढ़ता जाता है। साथ ही यौन शोषण का शिकार बच्चा इसका दंश जीवन पर झेलता रहता है। इस अपराध को रोकने के लिए समाज को अपनी चुप्पी तोड़नी होगी। हाल ही में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और जानेमाने बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी ने बाल यौन शोषण और बाल दुर्व्यापार के खिलाफ लोगों को जागरुक करने और उनकी चुप्पी तुडवाने के लिए देशव्यापी "भारत यात्रा" का आयोजन किया।
सत्यार्थी के नेतृत्व में "भारत यात्रा" ने 22 राज्यों से गुजरते हुए 12 हजार किलोमीटर की दूरी तय की। करीब 12 लाख लोग इस इस सामाजिक महामारी के खिलाफ सड़कों पर उतरे। यह बच्चों के सवाल को लेकर भारत का सबसे बड़ा अभियान है। समाज को झकझोरने और उन्हें जगाने का यह एक अच्छा प्रयास है। जाहिर है ऐसे प्रयासों का सार्थक परिणाम आता है। यात्रा की वजह से जजों और पुलिस अधिकारियों में भी इस बारे में चेतना आई है। अखबारों की रिपोर्ट पढ़ कर ऐसा लग रहा कि उनकी सक्रियता बढ़ी है। यात्रा के बाद जिस तरस से पुलिस बाल हिंसा के मामले में कार्रवाई कर रही है और अदालते सक्रियता दिखा रही हैं, उससे लग रहा है कि थाने और अदालतें बच्चों को लेकर थोड़ा संवेदनशील हुई हैं।
लेकिन, समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए बच्चों को राजनीति और विकास के केंद्र में लाना होगा। अभी बच्चे न तो सरकार की प्राथमिकता में हैं और न ही राजनीतिक दलों के। राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों में से तो बच्चे गायब ही रहते हैं। जबकि बच्चे ही भविष्य हैं। राष्ट्र निर्माण का बोझ उन्हीं के कंधों पर होता है। बच्चों पर निवेश राष्ट्र के सुनहरे भविष्य का निवेश है। इसलिए विकास योजनाओं में बच्चों को प्राथमिकता देनी होगी। अभी बच्चे विकास की परिधि से बाहर हैं। उन्हें इसके केंद्र में लाना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अनिल पाण्डेय
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