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- भगवा से तिरंगा की तरफ...
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 31 जुलाई को मन की बात कार्यक्रम में देशवासियों से एक विशेष अनुरोध किया है कि हर भारतीय सोशल मीडिया पर तिरंगा प्रोफाइल पिक्चर लगाए और नौ अगस्त से 15 अगस्त तक हर घर, हर आफिस में तिरंगा फहराया जाए। संघ में लंबा समय गुजार चुके प्रधानमंत्री का तिरंगा से उमड़ा इतना प्रेम वास्तव में चौंकाने वाला है। आरएसएस और उससे जुड़े लोग देश में भगवा फहराने का मिशन चलाते रहे हैं और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा गया चुनाव भी देश का भगवाकरण करने के मुद्दे और वायदों पर लड़ा गया है। संघ मुख्यालय पर 2002 तक तिरंगा ना फहराए जाने का सवाल भी उठता रहता था। अब प्रधानमंत्री के घर घर तिरंगा फहराने को लेकर भी फिर वही सवाल उठा कि आखिर इतने जोश में भगवा से तिरंगा की तरफ यूटर्न कैसे लिया जा रहा है।
दरअसल कुछ दिनों से सत्तारूढ़ दल के भाजपा नेताओं को गांधीवाद और सांप्रदायिक सौहार्द बहुत याद आ रहा है लेकिन क्या हकीकत है और इसके पीछे क्या योजनाएं हैं ये तो भाजपा के अंदर के लोग ही बता सकते हैं। लेकिन जो बातें समझ में आती हैं वह यह हो सकती हैं कि भाजपा हिंदुओं को इकट्ठा करते करते सही मायने में भारतीयों को बांटने लगी है। जब भाजपा ने अपना मुसलमान बनाम हिंदू एजेंडा जोर शौर से चलाया तो उसे सिर्फ इतना एहसास था कि मुसलमानों के खिलाफ माहौल बना कर हिंदुओं को इकट्ठा कर सत्ता प्राप्त की जाए और संघ अपना हिंदूवादी एजेंडा पूरा करता रहे और काफी हद तक ऐसा हो भी रहा है।
स्कूली कोर्स में, व्यवस्था में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक दिखाने और बताने और उनका दानवी करण करने का एजेंडा पूरी ताकत के साथ चलाया गया लेकिन इस हिंदू मुस्लिम के बंटवारे में वह यह भूल गयी कि बंटवारे क्षेत्र और भाषा और जातियों के आधार पर भी हो सकते हैं। जैसे हिन्दुत्ववादी लहर ने जोर पकड़ा वैसे ही दलित आंदोलन ने जोर पकड़ा। महाराष्ट्र के गवर्नर का दलित चिंतक ज्योतिबाफुले का मज़ाक उड़ाने वाला बयान इसी कड़ी का हिस्सा है जिसे लेकर देश के दलितों में भारी गुस्सा है। जब लोगों के अंदर बंटवारे की भावना जागृत की जाती है तो फिर बंटवारा कहां तक जाएगा इसका अनुमान नहीं हो पाता और देखते देखते लोग बंटते जाते हैं।
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के हालिया दिए गए इस बयान की झलक मिलती है कि अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश देश को बंटवारे की ओर धकेल रही है। रघुराम राजन ने यह बात इसलिए कही कि इन कोशिशों से देश में सबसे ज्यादा अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है और अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ने से देश के सभी समूह चाहे वह जातीय हों, भाषाई हों, या क्षेत्रवाद के आधार पर वजूद में आए हों सब अपने अपने हितों के लिए दूसरे प्रतिद्वंद्वी से टकराने की बात करने लगते हैं और इन सब जोर आज़माइशों में धार्मिक विवाद तो पीछे छूट जाता है लेकिन ये विवाद बड़ी प्रबलता से अपना प्रभाव डालने लगते हैं। 2016 में हरियाणा के रोहतक शहर में हुए जातीय संघर्ष में भारी तबाही से अंदाजा लगा लेना चाहिए कि बंटवारे की जब राजनीति की जाती है तो उसका दायरा सिर्फ धार्मिक सीमाओं में नहीं रहता बल्कि उसे लांघ कर बहुत दूर तक फैलता है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसके पीछे संघ द्वारा की गई तीन दशकों की राजनीति से जो धार्मिक बंटवारे की बुनियाद रखी जा रही थी अब वो सीमाएं लांघ कर विभिन्न बंटवारों में बदलने के लिए तैयार हैं। बंटवारों के इस माहौल में सबसे ज्यादा नुक्सान तो होगा देश का और उसकी उन्नति का। अब शायद भारतीय जनता पार्टी को भी इस बात का एहसास हो गया होगा कि सिर्फ हिंदुओं को इकट्ठा करने की बजाए हिंदुस्तानियों को इकट्ठा करके ही काम चलेगा। देश की वर्तमान स्थिति किसी भी बंटवारे को झेलने को तैयार नहीं है। बदलते वैश्विक परिदृश्य में कोई भी देश अंदरुनी झगड़ों के साथ आगे नहीं बढ़ सकता।
दूसरी ओर भाजपा आलोचकों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इवेंट के माहिर हैं, वह आपदा में अवसर ढूंढना खूब जानते हैं और ऐसे शिगूफे छोड़ कर उसके पर्दे में खेल खेल जाते हैं। आलोचकों का कहना है कि कोरोना महामारी के दौरान 2020 में थालियां और घंटियां बजवाकर कोरोना भगाया गया था और सरकार ने अपनी लापरवाही छिपाई थी जिसका परिणाम फिर अगले साल 2021 में हुई असंख्य मौतों और आक्सीजन की कमी के रूप में जनता ने भुगता था शायद इस बार भी मंहगाई, बेरोजगारी आदि के मूलभूत मुद्दों को तिरंगा लहर के पर्दे में छिपा देना चाहते हैं।
आलोचकों का यह भी कहना है कि चूंकि गृहमंत्री अमित शाह ने तीसरी बार के लिए फिर प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का नाम आगे किया है तो उसकी तैयारी करनी शुरू कर दी गई हो और भाजपा अबकी बार सांप्रदायिक राजनीति जिसका अब मौका नहीं है के स्थान पर कांग्रेस की तरह देशभक्ति और गांधीवादी मूल्यों पर धर्म निरपेक्षता का चोला पहनकर तीसरी बार सत्ता पर काबिज हो जाना चाहती हो। वो दुनिया को बताना चाहती हो कि अब भाजपा अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति से पीछे हट रही है। ऐसा नहीं है कि स्वतंत्रता दिवस पहले हर्षोल्लास के साथ ना मनाया जाता हो लेकिन इस बार उसमें सरकार का अमृत महोत्सव का तड़का कुछ तो बयान कर रहा है। अब यह तो बाद में पता चलेगा कि आखिर इस में क्या राज़ था फिलहाल तो स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए हर्षोल्लास के साथ सबको जुट जाना चाहिए क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री की ऐसी ही अपील है।