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'हिंदुई' से वैश्विक-हिंदी तक की विकास यात्रा में पाश्चात्य विद्वानों का योगदान
हिंदी आज विश्व में चीन तथा अंग्रेजी के बाद तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है। चीन की मंदारिन भाषा भले ही संख्या के दृष्टिकोण से हम से आगे हो पर, चीन में भी भारत के विस्तृत बाजार को कब्जाने के लिए अपने युवाओं को अब हिंदी सिखाई जा रही है। विश्व के कई विश्वविद्यालयों में आज विधिवत हिंदी पढ़ाई जा रही है। आज हम वैश्विक हिंदी गौरव की जो गगनचुंबी मीनारें देख रहे हैं, इसके निर्माण में भारत के असंख्य हिंदी सेवियों की सतत कठोर तपस्या रही है। एक देशी बोली "हिंदवी" से वैश्विक हिंदी तक के विकास के सफर में भारतीय हिंदी सेवियों के अलावा बहुसंख्य पाश्चात्य विद्वानों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस लेख में हम इसी बिंदु पर चर्चा करेंगे।
अट्ठारहवीं शताब्दी के शुरुवात में जब भारत पर अंग्रेजों का लगभग पूरी तरह से कब्जा हो गया और समूचे विश्व सहित भारत में भी चारों ओर अंग्रेजी का परचम लहरा रहा था, इसी दरम्यान भारत की एक अपनी निज संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का भी शनै शनै विकास हो रहा था। स्वतंत्रता के आंदोलन ने इसे राष्ट्रीय भाषा के रूप में गढ़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
अंग्रेजों तथा अन्य यूरोपीय शासक देशों ने भारत में मसीही धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से इस देश में मिशनरियों, पादरियों तथा पाश्चात्य विद्वानों को लगातार भेजा। इन्होंने बाइबिल तथा ईसा मसीह एवं अन्य मसीही संतों की जीवनियों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं का सहारा लिया तथा इन्हें हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में अनुदित कर बड़े पैमाने पर प्रचारित प्रसारित किया गया। इस कार्य हेतु इनके द्वारा "हिंदी शिक्षा संस्थान" भी खोले गए तथा कई छापाखाने स्थापित किये गये।
1809 में श्रीरामपुर मिशनरी तथा इनके छापेख़ाने के द्वारा इस दिशा में बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किये गये। इसी प्रेस से सर्वप्रथम बाइबिल का हिंदी और पंजाबी संस्करण प्रकाशित हुआ था। विख्यात विद्रोही संत लेखक हैनरी मार्टिन के हिंदुस्तानी गद्य के संकलन अनुवाद तथा संपादन के महत्वपूर्ण निस्वार्थ कार्यों को सदैव याद रखा जाएगा।
उत्तर भारत में सन 1813 में आगरा के निकट सिकंदरा में पहला मसीही प्रचार केंद्र स्थापित हुआ। सन 1816 में मेरठ तथा बनारस में भी मसीही प्रचार केंद्र स्थापित हुए। तत्पश्चात बनारस में 4, प्रयाग में 4 और आगरा में कुल 5 प्रचार केंद्रों के साथ हिंदी क्षेत्रों में मसीही प्रचार केंद्रों की संख्या सन् 1873 तक लगभग 70 तक पहुंच गई थी। बनारस के निकट मिर्जापुर, सिकंदरा आगरा ,प्रयाग,फर्रुखाबाद आदि के प्रचार केंद्रों में छापेखाने भी स्थापित किए गए। इन छापेखानों में मसीही प्रचार सामग्री के साथ ही साथ स्थानीय स्कूलों के लिए पाठ्य पुस्तकें भी तैयार कर प्रकाशित की जाती थी। इसके अलावा प्रसिद्ध "कोलकाता स्कूल बुक सोसाइटी" की स्थापना 1816 में डॉ विलियम कैरी, जे थॉमसन,जॉर्ज विलियम टेलर और थॉमस रोएबक ने मिलकर की। इसके सचिव तारिणीचरण मित्र थे । सोसाइटी ने हिंदी तथा भारत की कई भाषाओं में विपुल महत्वपूर्ण प्रकाशन किया।
1- इसी सोसाइटी द्वारा श्री तारिणीचरण मित्र "नीति कथा" का सर्वप्रथम हिंदी में अनुवाद भी प्रकाशित हुआ,
2- नागरी लिपि की पहली ज्ञात वर्णमाला प्रकाशित की गई ।
3- नागरी लिपि में श्रीमती रो की स्पेलिंग बुक सहित हिंदी की लगभग 60 साठ महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित की गई ।
इसी दरमियान रेव्ह रो और श्रीमती रो के द्वारा पटना के पास दीघा में हिंदी स्कूल चलाने सभी विवरण मिलता है।
हिंदी सेवकों में एलएमटी ऐडम तथा उनकी पत्नी का जिक्र भी जरूरी है। श्री एवं अपनी पत्नी के साथ लंदन मिशन सोसायटी की ओर से अगस्त 1820 में बनारस आए उन्होंने स्थानीय बच्चों के लिए तीन सफल स्कूल खोले। इन स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों का पाठ्यक्रम एडम ने अपनी पत्नी के सहयोग से तैयार किया। इसके अलावा उन्होंने जान बनियान की पिलग्रिम्स प्रोग्रेस तथा बाइबल , भजन संहिता ,नीति वचन ,यशायाह आदि 6 पुस्तकों का हिंदी में रूपांतरण भी किया।
यहां एडम के हिंदी हित के कुछ महान कार्य मैं गिनाना चाहूंगा।
1- हिंदी कोष : एडम ने सन् 1829 में लगभग 15000 शब्दों का कुल 374 पृष्ठों का हिंदी (हिंदवी)भाषा कोष तैयार किया ।
2- हिंदी भाषा व्याकरण: बच्चों को प्रश्नोत्तर रीति से व्याकरण सिखाने के उद्देश्य से सन् 1827 में हिंदी भाषा व्याकरण तैयार किया।
3- 'गणितांक ' पुस्तक स्कूल के बच्चों के लिए (सन् 1827)
4- शिक्षा शास्त्र: बच्चों को शिक्षा देने के तरीकों पर हिंदी में पहली सचित्र पुस्तक श्री एडम ने लिखी। इसे 1824 के कोलकाता स्कूल बुक सोसाइटी के द्वारा छापा गया। इसमें 20 अध्याय थे और कुल पृष्ठ 35 थे।
5- "मनोरंजन इतिहास अर्थात बालकों को ज्ञान दायक और नीति सिखाने का उपाख्यान" यह सन 18 सो 40 से 40 में प्रकाशित हुआ इसमें कुल 36 पृष्ठों में 17 छोटी छोटी नीति सिखाने वाली कथाएं थी।
इन दिनों वर्नाक्यूलयशर एजुकेशन के स्कूलों में पर्याप्त हिंदी पाठ्य पुस्तकें पढ़ाई जाने लगी थी। जेम्स थामसन ने 1850 से 1854 के बीच 4 वर्षों की अवधि में हिंदी पाठ्य पुस्तकों कथा हिंदी गद्य के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया, इन्होने ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों पर हिंदी में पाठ्य पुस्तक तैयार करवाई । सन् 1872 तक प्रकाशित हिंदी के पाठ्य पुस्तकों की संख्या 243 थी।
हिंदी की इन पाठ्य पुस्तकों के लेखकों में शिवप्रसाद, सैयद अहमद खान बहादुर के अलावा जेम्स थॉमसन, जेजे मोर, डॉ वाकर, चार्ल्स राइक, हैनरी टूकर, सर विलियम म्यूर आदि उल्लेखनीय थे।
सन 1805 में बाइबल का प्रथम हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ, उस बाइबिल की तत्कालीन हिंदी और वर्तमान में बाइबल के नवीनतम संस्करण की हिंदी को अगर हम देखें तो हिंदी के भाषा हिंदी भाषा की 200 वर्षों के विकास को हम भलीभांति समझ सकते हैं।
भारत में 'हिंदी' शब्द को एक विशिष्ट भाषा के रूप में संबोधित करने तथा वर्गीकृत करने का श्रेय भी सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों को ही जाता है। अंग्रेजों के पूर्व मुसलमान विजेताओं ने हिंदुस्तानी (हिंदी) शब्द का प्रयोग तत्कालीन भारत में बोले जाने वाली मराठी बांग्ला ,पंजाबी, बृज भाषा , अवधी, भोजपुरी,मारवाड़ी आदि सभी के भाषाओं के लिए लिए प्रयुक्त किया। प्रख्यात भाषाविद डॉक्टर ग्रियर्सन ने गंगा जमुना के उत्तरी दोआबा में बोले जाने वाली भाषा को हिंदुस्तानी अथवा हिंदी कहा (भारत का भाषा सर्वेक्षण खंड-1 भाग- 1)।
विश्व विख्यात विद्वान डॉ गिलक्रिस्ट ने 16 वर्षों तक अथक परिश्रम करके हिंदी को चार अनमोल पुस्तकें दी पहली "इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी डिक्शनरी" 1786-90, दूसरी " ए ग्रामर ऑफ द हिंदुस्तानी लैंग्वेज 1796 , तीसरी 'अपेंडिक्स' 1796 तथा चौथी ओरिएंटल लिंग्विस्ट 1791। हिंदी काव्य को खड़ी बोली में ढालने के कार्य में जान चेंबरलेन और डेनियल कोरी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता डेनियल कोरी को तो हिंदी का प्रथम संपादक भी कहा जाता है (डॉ जे एच आनंद) । कोरी संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे, मराठी के विद्वान थे और बंगला भाषा के विशेषज्ञ थे। बाल्मीकि रामायण, भगवत गीता, सांख्य दर्शन आदि कई प्राच्य वांग्मय का उन्होंने अनुवाद किया था। उन्होंने एशिया का सबसे बड़े छापाखाना श्रीरामपुर में स्थापित किया जहां चौदह भाषाओं में टाइपिंग, प्रिंटिंग होती थी, टाइप ढाले जाते थे, यहां तक कि कागज ही वे स्वयं बनाते थे। हिंदी तथा भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के विकास लिए एक अकेले व्यक्ति डेनियल कोरी ने जो कार्य किया उसका जोड़ मिलना कठिन है।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की अगर हम हम चर्चा करें तो 'जोसेफ हेलिओडोर गार्सा द तासी' जोकि 'गार्सा द तासी' के नाम से मशहूर हैं, के कृतज्ञता पूर्वक उल्लेख के बिना हिंदी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। वे 1828 में पेरिस के प्राच्य विद्या संस्थान के प्रथम हिंदुस्तानी प्रोफेसर नियुक्त हुए थे। इन्होंने "हिंदुई साहित्य का इतिहास" सहित कुल 14 मौलिक तथा अनुदित पुस्तकें भारत को दी। उनकी "हिंदुई साहित्य का इतिहास" यानी कि 'एस्ततवार द ल लितेरेतयूर ऐ एंदुस्तान ' दो भागों में क्रमशः 1839-1847 में प्रकाशित , को हिंदी और हिंदुस्तानी ( तत्कालीन उर्दू) साहित्य के इतिहास का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसमें हिंदी तथा उर्दू के 750 कवियों, लेखकों की जीवनियां तथा उनकी रचनाओं पुस्तकों का विवरण दिया गया है।
डॉक्टर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन कि ' द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान' को हिंदी साहित्य के इतिहास का नींव का पत्थर कहा जाता है , जिस पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्य के इतिहास का भव्य भवन निर्मित किया है। तुलसीदास की अप्रतिम काव्य कला, दर्शन भाषा शैली कथा रामायण की महान तत्व से संपूर्ण विश्व को परिचित कराने में ग्रियर्सन का योगदान भुलाया नहीं जा सकता (नोट्स इन तुलसीदास)। डॉक्टर ग्रियर्सन के द्वारा लिखे गए ,63 तिरसठ ग्रंथों और लेखों की ग्रंथों और लेखों की सूची अगर हम देखें तो उनके विषयों की विविधता तथा महत्ता को देखकर हम दंग रह जाते हैं, कि कैसे एक व्यक्ति अपने एक जीवन में इतना कार्य कर सकता है । सन 1899 में डॉक्टर ग्रियर्सन को विदाई देते हुए दोहा चौपाई और छंदों में जो विदाई पत्र प्रकाशित हुआ था उसे पढ़ने पर हिंदी तथा हिंदुस्तान को इनके योगदान की महत्ता समझी जा सकती है। लंबे कवित्तमय में विदाई पत्र की केवल 2 शुरूआती पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा।
प्यारे गिरिअरसन चले ,जावत इंग्लिस्तान ,
हिंदी, हिंदुन, हिंद को दे दुख सोक महान।
हिंदी के विकास में काशी नगरी प्रचारिणी सभा का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन इस संस्था के प्रमुख सभासद रहे 'एडमिन ग्रीफ्स' के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता यह वही ग्रीफ्स थे जिन्होंने हिंदी के विकास के लिए बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा भवन के लिए भूमि प्राप्त करने का महत्वपूर्ण दायित्व भी निभाया था। वे 'हिंदी शब्द सागर कोष' समिति के प्रमुख सदस्य थे। इन्होंने 'हिंदी ग्रामर', तथा 'हिंदी साहित्य की रूपरेखा' ( ए स्केच आफ हिंदी लिटरेचर) सहित 7 किताबें लिखी थी। रामचरितमानस कथा तुलसी से इन्हें विशेष प्रेम था गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरितमानस का संक्षिप्त व्याकरण ग्रीफ्स की व्याकरण पर तैयार किया गया तथा उसकी प्रस्तावना में बड़े सम्मानपूर्वक रेव्हरेंड एडमिन ग्रीफ्स के योगदान को सराहा गया है।
डॉक्टर फ्रैंक ई के की पुस्तक "ए हिस्ट्री आफ हिंदी लिटरेचर (1920)" को भी हिंदी साहित्य के इतिहास का एक मील का पत्थर कहा जाता है। हिंदी शब्दकोश कि अगर हम बात करें तो फादर फ्रांसिस्कस एम तुरोनेसिंस के द्वारा लिखे गए है "हिंदुस्तानी भाषा कोष " 1705 को पहला पाश्चात्य विद्वान द्वारा तैयार हिंदी शब्दकोश माना जाता है (डॉ अचलानंद ज़ख्मोला : हिंदी कोश साहित्य ) । हालांकि क्वारिश के अनुसार 1630 में सूरत में अंग्रेजी कारखाने के कर्मचारियों के लिए रोमन और गुजराती लिपियों में पहला हिंदोस्तानी शब्दकोश निर्मित किया गया था। ईबी ईस्टविक ने प्रेम सागर ,हितोपदेश, बागो-बहार, गुलिस्तां, बेताल पच्चीसी आदि का अनुवाद ,संपादन के साथ ही हिंदुस्तानी व्याकरण की भी रचना की थी।
कर्नल लेन ने हिंदुस्तानी कहावतों का सबसे पहला संग्रह 1870 में तैयार किया था।
फ्रेडरिक पिन्कोट "खड़ी बोली का गद्य" के प्रथम प्रकाशक थे, तथा इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन तथा हिंदी में अनुवाद भी किया है। हिंदी के विकास में पाश्चात्य विद्वानों के योगदान पर डॉक्टर जेएच आनंद का कार्य अविस्मरणीय है।
"फादर कामिल बुल्के के उल्लेख के बिना हिंदी का उल्लेख भला कैसे पूरा हो सकता है। बेल्जियम से भारत आकर भारत का ही होकर रह जाने वाले हिंदी, संस्कृति तथा मानस रामचरितमानस के प्रकाण्ड विद्वान डॉ फादर कामिल बुल्के के योगदान को भला कैसे भुलाया जा सकता है। विशेष अनुमति लेकर हिंदी भाषा में प्रयाग विश्वविद्यालय से " रामकथा की उत्पत्ति तथा विकास" विषय पर शोध कर सर्वप्रथम पीएचडी करने का श्रेय इन्हीं को जाता है। इससे पूर्व पीएचडी केवल अंग्रेजी में होता था। फादर कामिल बुल्के के द्वारा तैयार किया गया 40 हजार शब्दों का विशाल "हिंदी अंग्रेजी शब्दकोश" आज भी प्रमाणिक तथा उपयोगी है।
यह सत्य है कि यूरोपीय शासकों के काल में भारत में मसीही धर्म के प्रचार के लिए कई विद्वानों का भारत में आगमन हुआ, जिन्होंने मसीही धर्म के प्रचार के दृष्टिकोण से क्षेत्रीय भाषाओं को न केवल सीखा बल्कि उन भाषाओं के शब्दकोश तैयार किये और व्याकरण का भी निर्माण किया तथा हिंदुस्तानी, संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषा के महत्वपूर्ण ग्रंथों को विभिन्न पाश्चात्य भाषाओं में अनुवाद करके उन्हें प्रकाशित कर विश्व पटल पर यत्नपूर्वक रखा जिससे उच्च स्तरीय भारतीय दर्शन, संस्कृति योग, ज्ञान, विज्ञान कला तथा साहित्य के महान संचित ज्ञान तथा ऐतिहासिक गौरवशाली परंपराओं से शेष विश्व परिचित हो पाया। भारत में सुचारू शासन संचालन के उद्देश्य से पाश्चात्य देशों से आने वाले सिविल सर्वेंट्स को स्थानीय भाषा तथा परंपराओं से परिचित कराने के उद्देश्य से भी हिंदी हिंदुस्तानी तथा क्षेत्रीय भाषाओं का अध्ययन , लेखन तथा विकास किया गया। उपरोक्त विद्वानों के अलावा भी सैकड़ों पाश्चात्य विद्वानों ने हिंदी के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है जिन्हें एक लेख में समेटना संभव नहीं है। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं की मूल उद्देश्य भले कुछ भी रहे हों, परंतु हिंदी भाषा के शब्दकोश निर्माण, व्याकरण निर्माण, महत्वपूर्ण ग्रंथों के अनुवाद कार्यो कुल मिलाकर हिंदी के समग्र विकास में पाश्चात्य विद्वानों के महत्वपूर्ण योगदान को भुलाना कृतघ्नता होगी, और कोई भी कृतघ्न समाज कभी भी लंबे समय तक फल फूल नहीं सकता। इसलिए आज जब हम वैश्विक फलक पर हिंदी की चमचमाती लहराती पताका को देख कर गौरवान्वित हो रहे हैं तो हमारा फर्ज तथा हमारी नैतिकता यह कहती है कि अपने खून पसीने से हिंदी भाषा की नींव को सींचने वाले उन महान पाश्चात्य विद्वानों के योगदान को भी हमें पूर्वाग्रह मुक्त होकर निष्पक्ष भाव से कृतज्ञतापूर्वक याद करना ही चाहिए। यही इन महान मनीषियों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी तथा निश्चित रूप से हमारा यह कार्य हिंदी के पथ को आलोकित तथा प्रशस्त करेगा।
डॉ राजाराम त्रिपाठी, सामाजिक चिंतक तथा स्वतंत्र स्तंभ लेखक