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- आर्थिक आरक्षण की सुबह...
ललित गर्ग
नरेन्द्र मोदी सरकार ने आर्थिक निर्बलता के आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने का जो फैसला किया है वह निश्चित रूप से साहिसक कदम है, एक बड़ी राजनीतिक पहल है। इस फैसले से आर्थिक असमानता के साथ ही जातीय वैमनस्य को दूर करने की दिशा में नयी फिजाएं उद्घाटित होंगी। निश्चित ही मोदी सरकार ने आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के लिए यह आरक्षण की व्यवस्था करके केवल एक सामाजिक जरूरत को पूरा करने का ही काम नहीं किया है, बल्कि आरक्षण की राजनीति को भी एक नया मोड़ दिया है। इस फैसले से आजादी के बाद से आरक्षण को लेकर हो रहे हिंसक एवं अराजक माहौल पर भी विराम लगेगा।
देशभर की सवर्ण जातियां आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करती आ रही हैं। भारतीय संविधान में आरक्षण का आधार आर्थिक निर्बलता न होकर सामाजिक भेदभाव व शैक्षणिक पिछड़ापन है। आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को नौकरियों में आरक्षण देने का फैसला एक सकारात्मक परिवेश का द्योतक है, इससे आरक्षण विषयक राजनीति करने वालों की कुचेष्टाओं पर लगाम लग सकेगा। आरक्षण की नीति सामाजिक उत्पीड़ित व आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की सहायता करने के तरीकों में एक है, ताकि वे लोग बाकी जनसंख्या के बराबर आ सकें। पर जाति के आधार पर आरक्षण का निर्णय सभी के गले कभी नहीं उतरा। संविधान एवं राजनीति की एक बड़ी विसंगति एवं विडम्बना को दूर करने में यह फैसला निर्णायक भूमिका का निर्वाह करेगा। इससे उन सवर्णों को बड़ा सहारा मिलेगा जो आर्थिक रूप से विपन्न होने के बावजूद आरक्षित वर्ग से जुड़ी सुविधा पाने से वंचित रहे हैं। इसके चलते वे स्वयं को असहाय-उपेक्षित तो महसूस कर ही रहे थे, उनमें आरक्षण व्यवस्था को लेकर गहरा असंतोष एवं आक्रोश भी व्याप्त था, जो समय-समय पर हिंसक रूप में व्यक्त भी होता रहा है। हम जात-पात का विरोध करते रहे हैं, जातिवाद समाप्त करने का नारा भी देते रहे हैं और आरक्षण भी दे रहे हैं। सही विकल्प वह होता है, जो बिना वर्ग संघर्ष को उकसाये, बिना असंतोष पैदा किए, सहयोग एवं सौहार्द की भावना पैदा करता है। संभवतः मोदी की पहल से यह सकारात्मक वातावरण बन सकेगा, जिसका स्वागत होना ही चाहिए।
जातिवाद सैकड़ों वर्षों से है, पर इसे संवैधानिक अधिकार का रूप देना उचित नहीं माना गया है। हालांकि राजनैतिक दल अपने "वोट स्वार्थ" के कारण इसे नकारते नहीं, पर स्वीकार भी नहीं कर पा रहे हैं। और कुछ नारे, जो अर्थ नहीं रखते सभी पार्टियां लगाती रही हैं। इसका विरोध आज नेता नहीं, जनता कर रही है। वह नेतृत्व की नींद और जनता का जागरण है। यह कहा जा रहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान विधान में नहीं है। पर संविधान का जो प्रावधान राष्ट्रीय जीवन में विष घोल दे, जातिवाद के वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर दे, वह सर्व हितकारी कैसे हो सकता है? पं. नेहरू व बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी सीमित वर्षों के लिए आरक्षण की वकालत की थी तथा इसे राष्ट्रीय जीवन का स्थायी पहलू न बनने का कहा था। डाॅ. लोहिया का नाम लेने वाले शायद यह नहीं जानते कि उन्होंने भी कहा था कि अगर देश को ठाकुर, बनिया, ब्राह्मण, शेख, सैयद में बांटा गया तो सब चैपट हो जाएगा। जाति विशेष में पिछड़ा और शेष वर्ग में पिछड़ा भिन्न कैसे हो सकता है? गरीब की बस एक ही जाति होती है और वह है "गरीब"।
सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को दस फीसदी आरक्षण देने के फैसले की सबसे बड़ी चुनौती है इसे संवैधानिक जामा पहनाना। जैसाकि सुनने में आ रहा है कि जल्द ही इसके लिए संसद में एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया जाएगा। यह भी सच है कि इस लोकसभा का आखिरी सत्र है और उसमें भी चंद रोज का काम ही बाकी है, इसलिए फिलहाल यह विधेयक कितनी दूर तक जा पाएगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। अगर यह इस बार पास नहीं होता, तो यह एक ऐसा कदम तो है ही कि केंद्र में बनने वाली किसी भी सरकार पर अपना दबाव दिखाएगा। गरीब सवर्णों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की मांग कोई नई नहीं है। यह हमेशा ही जहां-तहां उठती रही है, यहां तक कि दलितों की नेता मानी जाने वाली मायावती भी इसके पक्ष में खड़ी दिखाई दी है। लेकिन पहली बार इसे बड़े पैमाने पर लागू करने का फैसला संविधान संशोधन के वादे के साथ हुआ है। संसद और सुप्रीम कोर्ट में इसके सामने जो बाधाएं आएंगी, उसे सरकार भी अच्छी तरह समझती ही होगी। लेकिन उन चुनौतियों से पार पाकर इसे अमल में लाना हमारे राष्ट्र के लिये एक नई सुबह होगी।
"जो वोट की राजनीति से जुड़े हुए हैं, वे आरक्षण की नीति में बंटे हुए हैं।" लेकिन यह पहली बार है, जब किसी तबके की कमजोर आर्थिक स्थिति को आरक्षण से जोड़ा गया है। अभी तक देश में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को जो आरक्षण मिलता रहा है, उसमें यह पैमाना नहीं था। आरक्षण के बारे में यह धारणा रही है कि यह आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का औजार नहीं है। यह दलित, आदिवासी या पिछड़ी जातियों का सशक्तीकरण करके उन्हें सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा दिलाने का मार्ग है। आरक्षण को सामाजिक नीति की तरह देखा जाता रहा है, साथ ही यह भी माना जाता रहा है कि आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का काम आर्थिक नीतियों से होगा। अब जब आरक्षण में आर्थिक आधार जुड़ रहा है, तो जाहिर है कि आरक्षण को लेकर मूलभूत सोच भी कहीं न कहीं बदलेगी और यह बदलाव राष्ट्रीय चेतना को एक नया परिवेश देगा। क्योंकि जाति-पाति में विश्वास ने देश को जोड़ने का नहीं, तोड़ने का ही काम किया है। हमें जातिविहीन स्वस्थ समाज की रचना के लिए संकल्पित होने की जरूरत है। क्योंकि भारतीयता में एवं भारतीय संस्कृति में "मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से छोटा-बड़ा होता है।"
एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण के फैसले को अमली जामा पहनाया जा सकेगा या नहीं, लेकिन इतना अवश्य है कि मोदी सरकार के इस फैसले ने देश की राजनीतिक सोच एवं मानसिकता को एक झटके में बदलने का काम किया है। मोदी सरकार को ही नहीं, समूचे राष्ट्र को इसकी सख्त जरूरत थी। आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले ने यकायक भारतीय राजनीतिक की सोच के तेवर और स्वर बदल दिए हैं। निश्चित ही सभी राजनीतिक दल इस विषयक फैसले को लेकर अपना स्वतंत्र नजरिया रखते हैं, और इस दिशा में आगे बढ़ना चाहते रहे हैं, इसलिये वे इस फैसले का विरोध करके राजनीतिक नुकसान नहीं करना चाहेंगे। वे शायद ही यह जोखिम उठाये, इसलिये इसके मार्ग की एक बड़ी बाधा राजनीतिक विरोध तो दिखाई नहीं दे रही है। आर्थिक आधार पर आरक्षण की संवैधानिक स्थितियां क्या बनेगी, यह भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन इतना तय है कि न्यायिक स्थितियां भी इसकी अनदेखी नहीं कर पाएंगी, क्योंकि संविधान का मूल उद्देश्य लोगों की भलाई है और वह इस देश के लोगों के लिये बना है, न कि लोग उसके लिये बने हैं।
आरक्षण पर नये शब्दों कोे रचने वालों! इन शब्दजालों से स्वयं निकल कर देश में नये शब्द की रचना करो और उसी अनुरूप मानसिकता बनाओ। वह शब्द है....मंगल। सबका मंगल हो। राष्ट्रीय चरित्र का, गरीबों का, जीवन में नैतिकता व नीतियों में प्रामाणिकता का मंगलोदय हो। इसके लिये पहल मोदी ने की है तो उसका लाभ भी उनको ही मिलेगा।