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- दिवाली और बूढ़ा...
अनिल पांडेय
दिवाली की रात थी। कोरोना महामारी और लॉकडाउन से उबरे लोग दीपोत्सव का भरपूर आनन्द लेने के मूड में थे। पूरी कालोनी रोशनी से नहाई हुई थी। दीपों की जगमगाहट और गेंदे के पीले फूलों से सजे घर गुलजार थे। आरती और घंटियों की ध्वनियां हमें एक अलग दुनिया का आभाष करा रही थीं। उल्लास और खुशी की दुनिया। बच्चे रंग-बिरंगे कपड़ों और उनकी माएं सुंदर परिधानों में गली में चहलकदमीं कर रही थी। एक दूसरे के घरों में जाकर उपहार और मिठाइयां बांट रही थीं।
दिल्ली से सटे गाजियाबाद की जिस कोलोनी में मैं रहता हूं, उसके चार गेट हैं, जो मुख्य सड़क पर खुलते हैं। सिटी सेंटर मार्किंट वाले गेट पर एक बड़ा सा लैंपपोस्ट है। आमतौर पर वहां रिक्शेवाले खड़े होते हैं। मार्किंट से खरीददारी करने वाले लोग यहां से रिक्शा पकड़ कर अपने घरों को जाते हैं। दिवाली की रात मार्किट बंद हो चुकी थी। दुकानदार जल्दी दुकान बढ़ा कर दिवाली पूजन के लिए अपने घरों को निकल पड़े थे। बाजार सुनसान हो चुका था।
लेकिन, लैंपपोस्ट के नीचे मद्धिम रोशनी में एक बूढ़ा रिक्शावाला मानों किसी का इंतजार कर रहा था। मैं दिवाली का उपहार देकर अपने दोस्त के घर से वापस आ रहा था। तभी मेरी नजर उस बूढ़े रिक्शेवाले पर पड़ी। मैं थोड़ा ठिठका। सुनसान सड़क पर वह किसका इंतजार कर रहा है...? उसे भी अपने घर जाकर दिवाली मनानी चाहिए। यह सोचते हुए मैंने कार रोकी और बैक गेयर में उसके करीब जा पहुंचा। चचा, "किसका इंतजार कर रहे हो... कोई सवारी है क्या?" उसने धीमे से दबे स्वर में उत्तर दिया, "किसी का नहीं..." मैंने कहा "तो फिर घर जाओ दिवाली मनाओ।" वह खामोश रिक्शे पर ही बैठा रहा। जवाब देने की बजाए वह आसमान तकने लगा। मैं कार से उतर कर उसके नजदीक जा पहुंचा। उसका चेहरा शांत था। कोई भाव नहीं था। मैंने सोचा कि दिवाली पर इस बूढ़े रिक्शावाले की कुछ मदद करके थोड़ा पुण्य कमा लिया जाए।
मैंने मिठाई का डिब्बा और सौ का एक नोट उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, "चचा घर जाओं और दिवाली मनाओ... खुशियों का त्यौहार है और आप यहां रिक्शे पर बैठे हो..." लेकिन उसमें कोई हलचल नहीं हुई। वह बिना किसी उत्साह के निर्विकार भाव से रिक्शे पर ही बैठा रहा। मैं उसके और करीब चला गया। मैंने उसके चेहरे को गौर से देखा। झुर्रीदार चेहरे के बीच उसकी आंखें वीरान थी। मैंने धीरे से हाथ झिझोड़ते हुए पूछा, "चचा क्या हो गया...?" थोड़ी देर बाद उसने चुप्पी तोड़ी, "हमारी दिवाली तो रिक्शे पर ही मनेगी साहब। हर साल दिवाली पर गांव चला जाता था। कोरोना ने मेरे जवान बेटे को लील लिया और पत्नी अब गांव में अकेले रह गई है। लॉकडाउन से रिक्शा बंद था। इधर बाजार खुले तो थोड़ी कमाई हुई। लेकिन मकान मालिक और राशनवाले की उधारी इतनी हो गई थी कि सारी कमाई उसे देने के बाद भी बकाया रह गया है। बिहार अपने गांव जाने के लिए किराए की रकम भी नहीं बची।" इतना कह कर वह रिक्शा लेकर आगे बढ़ गया और थोड़ी देर में अगली गली में मुड़ कर आंखों से ओझल हो गया।
अनिल पाण्डेय
अनिल पांडेय करीब 20 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं। जनसत्ता, स्टार न्यूज, द संडे इंडियन और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में कार्यरत रहे हैं। फिलहाल, वह कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन में बतौर एडिटर (कॉन्टेंट) नौकरी कर रहे हैं। जनसत्ता के लिए दिल्ली में पांच साल रिपोर्टरी करने के बाद अनिल पांडेय भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रफेसर बन कर अध्यापन करने चले गए। पांच साल मास्टरी की, लेकिन मन रिपोर्टरी में ही लगा रहा। लिहाजा, सरकारी नौकरी छोड़ कर वापस पत्रकारिता में रम गए। स्टार न्यूज में कुछ समय काम किया। लगा टीवी में काम करने के लिए कुछ खास नहीं है। वापस प्रिंट की राह पकड़ ली। इसके बाद पत्रिका द संडे इंडियन में फिर से रिपोर्टरी शुरू कर दी। पैदा आजमगढ़ में हुए, लेकिन रहते दिल्ली में हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से ही पढ़ाई भी की है। यायावरी और खबरों के पीछे भागना उनका जुनून रहा है। यही वजह है कि द संडे इंडियन के कार्यकारी संपादक होते हुए रिपोर्टर की तरह ही खबरों का पीछा करते थे। खबरों की तलाश में वे देशभर में भटक चुके हैं। कोई ऐसी बीट नहीं जिस पर उन्हें रिपोर्टिंग न की हो। अकादमिक रुचि वाले अनिल पांडेय को कई फेलोशिप भी मिल चुकी हैं। उन्होंने कुछ सीरियल और डॉक्युमेंट्री के लिए भी काम किया है।