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डोपामीन (मजा) और सेराटोनिन (आनंद) में छत्तीस का आंकड़ा होता है, जानिए पूरी बात
यह चित्र काशीकथा आश्रम का है। इसके बीच में काशीकथा के संचालक अवधेश दीक्षित, बाईं तरफ मेरा भाई प्रियंक और दाईं तरफ मेरे मित्र अनिल द्विवेदी हैं। हमारे सामने कचौड़ी जिलेबी और मलाई वाली दही रखी है। मैं अर्थात विमल कुमार सिंह फोटो खींच रहा हूं, इसलिए दिखाई नहीं दे रहा हूं। काशीकथा न्यास के आश्रम में प्रायः इसी तरह मेज सजती है। यहां खुश रहने के लिए मैं 'मजा' और 'आनंद' दोनों का अनुभव कर रहा हूं। पहले बात करते हैं मजे की। हमारे मित्र अवधेश जी यहां कचौड़ी और जिलेबी के साथ-साथ रामनगर के मशहूर महेश हलवाई के यहां से रसभरे रसगुल्ले, चाशनी में डूबी हुई लौंगलता और हींग वाले समोसे लेकर भी आते हैं। उन्हें खाकर जो मजा आता है, उसका बयान करना मुश्किल है। मजा तब भी आता है जब वे बनारस की प्रसिद्ध रबड़ी वाली दही खिलाते हैं जिसमें जीभर कर चीनी डाली जाती है।
आश्रम में रहते हुए मुझे जितना मजा मिल रहा है, उससे कहीं अधिक आनंद की प्राप्ति हो रही है। जिन-जिन बातों से मुझे आनंद मिलता है, उनकी सूची बड़ी लंबी है। उदाहरण के लिए प्रातःकाल जब पक्षियों के कलरव से मेरी नींद खुलती है, जब मैं सुबह-सुबह गंगाजी की ठंडी-ठंडी रेत पर नंगे पांव लगभग एक किमी. चलते हुए नहाने के लिए जाता हूं, जब मैं गंगाजी मैं तैरते और डुबकी लगाते हुए स्नान करता हूं, जब मैं आश्रम में आकर अपने कपड़े धोता हूं, जब मैं अपने हाथों से अपना भोजन पकाता हूं, जब मैं भोजन के बाद अपने बर्तन मांज कर रसोई में करीने से सजा देता हूं, जब शाम को मैं आश्रम के लान में नंगे पैर टहलते हुए गंगाजी को छूकर आ रही ठंडी हवाओं का स्पर्श अनुभव करता हूं, जब मैं रात को गंगाजी के किनारे जगमगाते घाटों की श्रृंखला को निहारता हूं, जब मैं देर रात खुले आसमान के नीचे लेटकर टिमटिमाते सप्तऋषि तारामंडल या दुधिया चांद को देखता हूं, इन सब पलों में मुझे आनंद की अनुभूति होती है। मुझे आनंद तब भी मिलता है जब मैं किसी पुराने मंदिर या किसी अन्य धरोहर स्थल के बारे में कुछ नया जान लेता हूं। बनारस के इस प्रवास में मुझे सबसे अधिक आनंद तब मिलता है जब मैं तीर्थायन के माध्यम से हजारों वर्ष प्राचीन तीर्थस्थलों एवं देव विग्रहों का समूह में दर्शन करता हूं।
प्रसिद्ध मनोविज्ञानी राबर्ट पलुटचिक ने मनुष्य के भीतर आठ मूल भावनाओं (क्रोध, डर, दुख, घृणा, आश्चर्य, अपेक्षा, विश्वास और खुशी) का उल्लेख किया है। इन आठ भावनाओं का अपना जोड़ा होता है। खुशी के साथ दुख, डर के साथ क्रोध, अपेक्षा के साथ आश्चर्य और घृणा के साथ विश्वास का जोड़ा बनता है। इन आठ मूल भावनाओं के अंतर्संबंध और उनसे उपजने वाली उपभावनाओं को समझाने के लिए उन्होंने एक पंखुड़ी नुमा चित्र बनाया है जिसे प्लुटचिक व्हील आफ इमोशन्स कहते हैं। इस व्हील को अगर हम अच्छे से अध्ययन करें तो समझ में आता है कि मजा का संबंध दुख से है जबकि खुशी का वास्ता आनंद से है। फिजियोलाजी अर्थात शरीर क्रिया विज्ञान के अनुसार खुशी (आनंद) के प्रभाव में व्यक्ति समाज से जुड़ता है जबकि दुख (मजा) उसे समाज से बचने के लिए कहता है। सच कहें तो मजा एक प्रकार का दुख है जिसपर खुशी की हल्की सी परत चढ़ी होती है।
'मजा' और 'आनंद' केवल मनोवैज्ञानिक अवधारणा ही नहीं है। इन दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे मष्तिष्क द्वारा मजा और आनंद की अनुभूति दो तरह के हार्मोन से तय होती है। ये हार्मोन हैं- डोपामीन और सेराटोनिन। डोपामीन नामक हार्मोन हमें मजे का अनुभव कराता है जबकि सेराटोनिन नामक हार्मोन से हमें आनंद की अनुभूति होती है। मजा और आनंद दोनों हमें अच्छा महसूस कराते हैं लेकिन दोनों में कुछ बुनियादी अंतर है। उदाहरण के लिए-
1. डोपामीन (मजा) और सेराटोनिन (आनंद) में छत्तीस का आंकड़ा होता है। यदि हम मजा (डोपामीन) बढ़ाने के लिए जोर लगाएंगे तो हमारा आनंद (सेराटोनिन) कम होता जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो बाजार से हम जितना मजे का सामान जुटाएंगे, हमारे आनंद की मात्रा उतनी ही कम होती जाएगी।
2. डेनियल काह्नमैन ने अपनी किताब थिंकिंग फास्ट एंड स्लो में मनुष्य के दिमाग को दो हिस्सों में बांटा है, एक तार्किक बुद्धि और दूसरी क्षणिक बुद्धि। तार्किक बुद्धि हमें मजा छोड़ आनंद प्राप्त करने के लिए कहती है जबकि क्षणिक बुद्धि हमें आनंद छोड़ के मजा लेने के लिए उकसाती है।
3. यदि जीवन में आनंद भरपूर है तो मजे की जरूरत नहीं रहती, लेकिन आनंद के अभाव में केवल मजे से बात नहीं बनती। आनंद के अभाव में जीवन अधूरा और अतृप्त ही रहेगा, भले ही हम मजा लेने के लिए कितना ही सामान क्यों न जुटा लें।
4. मजा की अनुभूति बहुत थोड़े समय के लिए होती है जबकि आनंद का एहसास लंबे समय के लिए होता है।
5. मजा का संबंध स्थूल शरीर से होता है जबकि आनंद का वास्ता कहीं और गहरे जाकर हमारे सूक्ष्म शरीर, मन या आत्मा से होता है।
6. मजा प्रायः कुछ लेने या उपभोग करने से मिलता है जबकि आनंद हमें देकर या किसी की मदद करके भी मिल सकता है। आनंद की अनुभूति के लिए वस्तुओं का उपभोग या संग्रह अनिवार्य शर्त नहीं है।
7. मजा की अधिकता (चाहे वह वस्तु जनित हो या व्यवहार जनित हो) लत पैदा करती है और उससे मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार हो जाता है। इसके विपरीत आनंद की अधिकता से कोई नुक्सान नहीं होता। परमानंद की अनवरत अनुभूति एक आदर्श जीवन की निशानी है।
डोपामीन का संबंध मजे से है लेकिन यह हार्मोन अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं है। स्वस्थ मानव जीवन के लिए जितना सेराटोनिन (आनंद) जरूरी है उतना ही जरूरी डोपामीन (मजा) भी है। अगर हमारे शरीर में डोपामीन की मात्रा एक सीमा से कम हो गई तो हमारी जीवन जीने की इच्छा कम हो जाती है, जीवन का उत्साह समाप्त हो जाता है। यह एक तरह का रिवार्ड सिस्टम है जो शरीर और मन को मुश्किल सहने और जीवन में संघर्ष करने के लिए तैयार करता है। इसलिए डोपामीन की एक बेसलाइन जरूरी है। समस्या तब पैदा होती है जब और मजे की चाहत में हम इसकी आवृत्ति और मात्रा दोनों को बढ़ाते चले जाते हैं।
डोपामीन और सेराटोनिन की तरह हमारा शरीर एक और हार्मोन बनाता है जिसका नाम है कोर्टिसाल। पहले दो हार्मोन खुशी देते हैं जबकि कोर्टिसाल तनाव देता है। जब हमारे मन में अधिक मजा लेने की चाहत होती है, तब यह हार्मोन हमें ऐसा करने से रोकता है। कोर्टिसाल दिमाग के जिस हिस्से की मदद से अपना काम करता है उसे प्री फ्रंटल कोर्टेक्स कहते हैं। दिक्कत यह है कि दिमाग का यह हिस्सा बच्चों, किशोरों और कुछ प्रौढ़ लोगों में भी पूरी तरह विकसित नहीं होता है। ऐसा होने पर व्यक्ति भविष्य की चिंता नहीं करता, वह केवल वर्तमान में जीता है। उसे वर्तमान में हर हालत में मजा चाहिए, भले ही उसके चलते उसका भविष्य चौपट हो जाए।
मजा लेने की इस चाहत को नियंत्रित करने के लिए भारत का पारंपरिक समाज बहुत ही सजग था। बच्चों और किशोरों को कड़े अनुशासन में रखा जाता था क्योंकि उन्हें अपना भला-बुरा समझने की क्षमता कम होती है। युवा और वयस्क लोग भी घर-समाज के बुजुर्गों के अनुशासन में रहते थे। सबको एक विशिष्ट जीवन शैली और जीवन मूल्यों का पालन करना होता था। समाज की अपनी एक मर्यादा थी जिसकी अवहेलना आसान नहीं थी। हमारे पुरखों ने बड़ी सावधानी से एक ऐसी जीवनशैली विकसित की थी जो मजा और आनंद में संतुलन साधते हुए जीने की राह दिखाती थी।
सौभाग्य से भारत की वह पारंपरिक जीवनशैली और जीवनमूल्य अभी भी पूरी तरह नष्ट नहीं हुई है। आंखों की शर्म अभी भी बची है। लेकिन उस पर हमले बढ़ रहे हैं। देश का पढ़ा-लिखा वर्ग, विशेष रूप से युवा वर्ग जाने-अनजाने पारंपरिक जीवनशैली और जीवनमूल्यों को छोड़ अमरीकी माडल की नकल कर रहा है जहां मजे को आनंद का पर्याववाची मान लिया गया है। व्यक्तिगत आजादी के नाम पर बाजारवादी ताकतें इसे हवा दे रही हैं। जहां-जहां परिवार और समाज का अंकुश बचा हुआ है, उसे ढूंढ-ढूंढ कर नष्ट करने का अभियान चलाया जा रहा है। यह समस्या केवल भारत की ही नहीं बल्कि दुनिया भर के सभी पारंपरिक समाजों की है। अमेरिका में भी समझदार लोग इस बात को समझ रहे हैं। इसलिए वहां भी मजे की बेलगाम चाहत को नियंत्रित करने की कोशिश शुरू हो गई है।
सुसान डेविड ने अपनी किताब इमोशनल एजलिटी में एक फार्मूला दिया है जो मजे को नियंत्रण में रखने के लिए बड़ा उपयोगी है। उसके फार्मूले का नाम है NASA अर्थात नेम इट, एक्सेप्ट इट, स्टेप आउट आफ इट, ऐक्ट एकोर्डिंगली। नेम इट अर्थात अपने कार्य का वर्गीकरण करना। हमें पहले यह पता करना होगा कि हम जो हासिल कर रहे हैं वह मजा है या आनंद है? इसके बाद दूसरा चरण है कि हम सत्य को ईमानदारी से स्वीकार करें। यदि हम मजा लेने के लिए कोई काम कर रहे हैं तो तीसरे चरण में हमें मजे की चाहत वाली अवस्था से बाहर आना होगा। चौथा और अंतिम चरण है वे उपाय करना जिससे आगे चलकर मजे की इच्छा ही पैदा न हो।
इस फार्मूले को अपने ऊपर लागू करते हुए मैंने पाया कि मैं काशी में मिठाईयां आनंद के लिए नहीं बल्कि मजे के लिए खा रहा हूं। इसे ईमानदारी से स्वीकार करते हुए मैंने स्वयं को चाहत की अवस्था से धीरे-धीरे बाहर निकाला। यह चाहत दुबारा मेरे ऊपर हावी न हो, इसके लिए मैंने कुछ विधि निषेध भी तैयार किए हैं। भोजन में प्राकृतिक प्रोटीन और फैट बढ़ा देने, कार्बोहाइड्रेट से बचने तथा शारीरिक गतिविधियों में बढ़ोतरी कर देने से मिठाई में मजा ढूंढने की चाहत अपने आप कम हो जाएगी, ऐसी आशा है। बता दूं कि असली समस्या मिठाई की चाहत में है, मिठाई में नहीं है। कभी-कभार कुछ खास मौकों पर मिठाई खाने से नुक्सान नहीं, बल्कि फायदा ही होगा। इससे मेरे शरीर में डोपामीन और सेराटोनिन का संतुलन बना रहेगा।
विमल कुमार सिंह संयोजकः ग्रामयुग अभियान