हमसे जुड़ें

महज राजनीतिक संकेतवाद नहीं है द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति होना

Shiv Kumar Mishra
27 July 2022 6:32 PM IST
महज राजनीतिक संकेतवाद नहीं है द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति होना
x


उमेश उपाधायाय

राजनीति और समाज जीवन में संकेतों की अपनी जगह होती है। बड़े लक्ष्य के लिए यदि संकेत के तौर पर किसी को कोई पद दिया जाये तो इसमें कोई बुराई भी नहीं हैं। पंजाब में आतंकवाद की पृष्ठभूमि में जब ज्ञानी जैलसिंह 1982 में देश के सातवें #राष्ट्रपति बने थे तो यह भी राजनीतिक संकेत ही था। उस समय ज्ञानी जी सर्वानुमति से राष्ट्रपति चुने गए थे। तब का विपक्ष इंदिरा जी का धुर विरोधी था। पक्ष और विपक्ष एक दूसरे को फूटी आँखों नहीं सुहाते थे लेकिन आज के विपक्ष की तरह एक 'छद्म वैचारिक संघर्ष' के नाम पर ज्ञानी जी के नाम का विरोध तब के विपक्ष ने नहीं किया था।

अच्छा होता कि वनवासी समाज की पहली बेटी जब देश के प्रथम नागरिक के तौर पर देश के सर्वोच्च पद पर बैठी तो ये बिना चुनाव के होता। पर संभवतः विपक्ष के नेताओं का व्यर्थ का अहंकार और हर कीमत पर मोदी के विरोध ने उनकी आँखों पर एक पट्टी बांध दी है। अन्यथा वे एक बनावटी वैचारिक संघर्ष के तर्क के आधार पर यशवंत सिन्हा को इस चुनाव में खड़ा नहीं करते।

श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के चुनाव को लेकिन सिर्फ एक राजनीतिक संकेतवाद मानना उन भागीरथ प्रयासों की अनदेखी करना होगा जो पिछले कई दशकों से देश के अनुसूचित जनजातीय इलाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठन चला रहे हैं। ये देखना हो तो वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा सुदूर क्षेत्रों में बालकों और बालिकाओं के लिए चलाये जा रहे सैंकड़ों छात्रावासों में से किसी में जाइये। नहीं तो किसी एकल विद्यालय में हो होकर आइये। मैं स्वयं मणिपुर में वनवासी कल्याण आश्रम के एक हॉस्टल में कुछ दिन सपरिवार रहा। भाषा की दिक्कत होने के बावजूद उन बच्चियों के साथ मेरी बेटी दीक्षा और पत्नी सीमा का अपनेपन का एक सहज और निर्मल नाता जुड़ गया। कुछ साल बाद उनमें से भी कोई बच्ची किसी जिम्मेदारी को संभालेगी तो वह राजनीतिक संकेत मात्र नहीं होगा।

इस परिवर्तन को एक तरह अपनों का लम्बे समय बाद मिलना या सम्मिलन कहा जा सकता है। हम ही अपने वनवासी भाई बहनों से अलग हो गए थे अथवा हमें दूर कर दिया गया था। परिवर्तन की एक व्यापक लेकिन निश्चित लहर ऊपर के अराजनीतिक उद्वेलन के बरक्स समाज रुपी नदी के गंभीर आँचल में बह रही है। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जमीनी स्तर पर चल रही इस व्यापक क्रांति की प्रतीक हैं। वे भारत की उस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से निकली हैं जिसकी जड़ें देश की सांस्कृतिक विरासत में हैं। दिखने में विविध होते हुए भी यह धारा एकात्म ही है। एक अध्यापिका से पार्षद, उड़ीसा में मंत्री, झारखण्ड में राज्यपाल और अब देश की राष्ट्रपति - परत दर परत और कदम दर कदम उन्होंने एक लम्बी और संघर्षपूर्ण यात्रा तय की है। जो पद और सम्मान उन्हें मिला है वे उसकी बराबरी की हकदार हैं।

देश का वनवासी समाज इस देश के बृहत् समाज का ही अभिन्न अंग है। वह भी देश की शताब्दियों से चली आ रही विरासत की अविरल धारा का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जितना कि मुंबई अथवा दिल्ली जैसे बड़े और आधुनिक शहरों में रहने वाला कोई नागरिक। यह सोच आदिवासी नाम देकर समाज के किसी हिस्से को पिछड़ा अथवा असंस्कृत नहीं घोषित करती। उन्हें कथित मुख्यधारा में जोड़ने के नाम पर उन्हें अपनी जड़ों से अलग करने का गोरखधंधा नहीं करती। इस सोच के अनुसार भारतीय समाज का एक हिस्सा वनों में रहता रहा है और एक हिस्सा शहरों और गांवों में। लेकिन समाज मूल रूप से एक ही है।

अंग्रेज़ों के आने के बाद इन वनवासियों को असंस्कृत घोषित कर उनका धर्म और रहन सहन बदलने का सुनियोजित षड्यंत्र किया गया जो आज भी बदस्तूर जारी है। उनको भारत और अन्य भारतीयों से अलग दिखाने के लिए कभी उन्हें मूल निवासी और कभी आदिवासी कहा गया। इसी आधार पर बड़े पैमाने पर उनका धर्म परिवर्तन किया गया।

सैमुअल पी हंटिंगटन 'सभ्यताओं के संघर्ष' नाम की अपनी पुस्तक मे पिछड़े समाजों को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ऐसा समाज वो है - 1) जो पढ़ा लिखा नहीं है, 2) जिसका शहरीकरण नहीं हुआ है और जो, 3) एक जगह पर स्थापित नहीं है। ऐसा हर समाज इस पाश्चात्य अवधारणा के अनुसार 'आदिम' और 'असभ्य' है। इस आदिम और असभ्य समाज को सभ्यता सिखाने के नाम पर उसका नरसंहार, उत्पीड़न और मतांतरण बड़े पैमाने पर दुनिया में किया गया। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे कई देशों में तो लाखों 'इंडियन' और वहाँ रहने वाले 'एबोरीजन्स, यानि मूलवासियों को मार ही डाला गया। वनवासियों को इस निगाह से देखने का ये नजरिया पाश्चात्य दर्शन की देन है। हैरत की बात है कि इस तरह की सोच रखने वाले आज हमें मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रताओं पर भाषण देते हैं। अफ़सोस, अपने ही देश के बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा ऐसे लोगों की इन भेदभावपूर्ण और सिरे से नस्लगत बातों पर तालियाँ पीटता है।

भारत की सोच यह नहीं है। पौराणिक काल से लेकर गांधीजी तक और गुरु गोलवलकर से लेकर प्रधानमंत्री मोदी तक वनवासी समाज को अपना ही अभिन्न हिस्सा मानते हैं। रहने का स्थान जंगल में होने के कारण कोई भिन्न कैसे हो सकता है? कहने का ये अर्थ कदापि नहीं कि वनवासी समाज की अनदेखी नहीं हुई। इस समाज के साथ कतिपय कारणों से भेदभाव हुआ। ये सही है कि दूरस्थ इलाकों में रहने के काऱण समाज का ये हिस्सा आज की शिक्षा और अन्य विकासमूलक गतिविधियों में पिछड़ गया। इसके लिए संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग प्रावधान किये गए। जो बिलकुल उचित ही हैं।

ये देखते हुए राष्ट्रपति मुर्मू का पहला भाषण बहुत ही प्रेरणादायक और उत्साहित करने वाला था। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायकों के साथ रानी चेन्नमा और रानी गाइडिल्यू तथा संथाल, भील और कोल क्रांति को भी स्मरण किया। वे लगातार राष्ट्रपति पद के दायित्व बोध की बात करतीं रहीं। वे संयम, शालीनता, स्वाभिमान और स्वचेष्टा से परिपूर्ण रहीं। लगातार उन्होंने भारत की अविछिन्न लोकतान्त्रिक परम्परा और अविरल बहती सांस्कृतिक धारा का उल्लेख अपने भाषण में किया। उन्हें देखकर लगा कि वे राष्ट्रपति भवन का मान और मर्यादा दोनों ही बढ़ायेंगी।

उनके राष्ट्रपति बनने पर समूचे भारत को बधाई!

पुरातन काल से अविछिन्न उसकी लोकतान्त्रिक विरासत को बधाई।

उसके जनजातीय समाज को बधाई।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी भारत की प्राचीनतम समय से चली आ रही अविरल सांस्कृतिक धारा की प्रतीक हैं।

हम सबको बधाई क्योंकि हम भी उसी महान विरासत की एक कड़ी हैं।

Next Story