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प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का सवाल - ज्ञानेन्द्र रावत

Shiv Kumar Mishra
24 July 2020 1:07 PM GMT
प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का सवाल - ज्ञानेन्द्र रावत
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देश में प्राथमिक शिक्षा की बदहाली को लेकर बरसों से आवाज उठायी जा रही है। आजतक बने आयोगों ने इस बाबत सोचना तो दूर, संज्ञान लेना भी मुनासिब नहीं समझा। यह हमारे देश के भाग्य विधाताओं, नीति-नियंताओं के मानसिक दिवालिएपन का जीता जागता सबूत है। इसके कारण ही राज्यों के शिक्षा बोर्ड और सीबीएसई पाठ्यक्रम के छात्रों में उपजी विसंगति के चलते शिक्षण स्तर में भेदभाव का दुष्परिणाम देश के सुदूर ग्रामीण अंचल और गरीब परिवारों की प्रतिभाओं को उठाना पड़ रहा है। नतीजा यह है कि वह हर क्षेत्र में पिछड़ रही हैं। धर्म समाज कालेज, अलीगढ़ के पूर्व विभागाध्यक्ष व बी आर अम्बेडकर विश्व विद्यालय (पूर्व आगरा विश्व विद्यालय) के शिक्षक संघ के अध्यक्ष प्रख्यात शिक्षाविद डा. रक्षपाल सिंह चौहान ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में इन्हीं सवालों को उजागर किया है और शिक्षा की विसंगतियों को दूर करने का अनुरोध किया है।

ये लिखी है चिठ्ठी

सेवा में,

माननीय प्रधानमंत्री जी, 24 जुला20

भारत सरकार

नई दिल्ली

विषय : एन सी ई आर टी पाठ्यक्रम से सरकारी प्राथमिक शिक्षा की बदहाली।

महोदय,

निवेदन है कि मन की बात कार्यक्रमों में आपके महत्वपूर्ण विचारों को देशवासी विगत 5 वर्ष से अधिक समय से सुनते रहे हैं और श्रोतागण प्रेरणा प्राप्त करते रहे हैं,लेकिन देश के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राथमिक शिक्षा की बदहाली के कारण एवं निवारण पर अभी तक आपकी सोच का पता न चलना आश्चर्यजनक है क्योंकि प्राथमिक शिक्षा का समूची शिक्षा व्यवस्था में वही महत्वपूर्ण स्थान होता है जो बहु मंजिला बिल्डिंग के निर्माण में भूतल का होता है ।गैर सरकारी संगठन "असर" (Annual status of education reports)द्वारा देश के प्राथमिक सरकारी स्कूलों में पठन पाठन की स्थिति के बारे में विगत वर्षों में लगातार किये गए अध्ययनों से निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं कि देश के सरकारी स्कूलों के कक्षा3 के75 प्रतिशत,कक्षा 5 के 50 प्रतिशत एवं कक्षा 8 के 25प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा 2 की किताब नहीं पढ़ पाते और इससे स्पष्ट होता है कि सरकारी स्कूलों में पठन पाठन की स्थिति कितनी दयनीय है जबकि सी बी एस ई एवं आई सी एस ई से सम्बद्ध स्कूलों के कक्षा 3,4,5 के विद्यार्थी हिन्दी के समाचार पत्र भी पढ़ लेते हैं और अपने पाठ्यक्रम के गणित एवं अन्य विषयों का सम्यक ज्ञान भी उन्हें होता है। सरकारी स्कूलों की शिक्षा को बर्बाद करने में "शिक्षा अधिकार कानून 2009 " की भी अहम भूमिका रही है जिसके अनुसार चाहे विद्यार्थी कुछ भी न जानता हो फिर भी उसे फ़ेल न करके आगे की कक्षा में प्रमोट किया जायेगा। प्राथमिक शिक्षा स्तर पर हिन्दी विषय की बदहाली ही तो है जिससे विगत कई वर्षों से लगभग 15 प्रतिशत परीक्षार्थी यू पी बोर्ड की माध्यमिक परीक्षाओं में फ़ेल हो रहे हैं और यदि विगत बीसवीं शताब्दी की तरह उत्तर पुस्तिकाएं जान्ची जायें तो माध्यमिक परीक्षाओं के परिणाम 75 से 85 के स्थान पर 20से 25 भी दिखाई नहीं देंगे।वर्तमान सदी में परीक्षार्थियों की अंकतालिकाएं उनकी योग्यता का पैमाना नहीं रह गई हैं और अधिकांश प्रदेशों की लगभग यही स्थिति है,यदि आप देश के शिक्षण संस्थानों की हकीकत स्वयं देखेंगे तो आपको भारी दुख होगा। वस्तुस्थिति ये है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों,आई आई टी,एन आई टी ,केंद्रीय शिक्षण संस्थानों ,कुछ राज्य विश्वविद्यालयों एवं कुछ ऊंची फीस बसूलने वाले प्राइवेट उच्च शिक्षण संस्थानों तथा सी बी एस ई व आई सी एस ई से सम्बद्ध स्कूलों के अलावा अन्य अधिकांश उच्च , माध्यमिक एवं बेसिक शिक्षण संस्थाओं की पठन पाठन रस्म अदायगी ही हो रही है और परिणामस्वरूप देश के कमजोर आर्थिक स्थिति के 65 प्रतिशत परिवारों के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा ही पूरी तरह से बर्बाद हो रही है तथा आगे की शिक्षा के दरवाजे भी बन्द हो रहे हैं।

डा. रक्षपाल सिंह चौहान

महोदय, देश की स्कूली शिक्षा के संचालन हेतु एन सी ई आर टी पाठ्यक्रम को लागू किया गया है।प्राथमिक शिक्षा के लिए कक्षा 1 से लेकर कक्षा5 तक के पाठ्यक्रम में हिन्दी, गणित, अन्ग्रेजी, पर्यावरण संस्कृत , विज्ञान,नागरिक शास्त्र,सामाजिक ज्ञान,भूगोल, नैतिक शिक्षा व शारीरिक शिक्षा विषयों को शामिल किया गया है।

महोदय, आप अवगत ही हैं कि देश में मोटे तौर पर तीन प्रकार के स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती है,1-सी बी एस ई व आई सी एस ई से सम्बद्ध स्कूल

2- प्रदेश सरकारों के बेसिक स्कूल

3- प्रदेश की बेसिक परिषदों से सम्बद्ध निजी स्कूल

भारतीय समाज के परिवारों को मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है--

1--आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक तौर पर संपन्न जो भारतीय समाज में लगभग 15प्रतिशत हो सकते हैं।

2--सामान्य आर्थिक-सामाजिक एवं शैक्षिक स्थिति के जो 20 प्रतिशत हो सकते हैं।

3- शेष लगभग 65 प्रतिशत कमजोर आर्थिक के तथा अशिक्षित जिनमे से अधिकांशअपने बच्चों की शिक्षा के प्रति उदासीन ही रहते हैं।

महोदय, देश के उक्त 15प्रतिशत संपन्न अभिभावकगण अपनी मज़बूत आर्थिक स्थिति तथा शिक्षा के महत्व के प्रति जागरूक होने के कारण अपने बच्चों को 3 साल की उम्र से सी बी एस ई अथवा आई सी एस ई स्कूलों में भारी फीस देकर पढ़ाते हैं । बच्चों को हॉस्टल में रखते हैं या उनको स्कूल पहुंचाने लाने का स्वयं प्रबंध करते हैं और उनके होम वर्क कराने तथा ट्यूशन करने की ब्यवस्था कराते हैं । परिणामस्वरूप उक्त परिवारों के अधिकांश बच्चे गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।

सामान्य आर्थिक सामाजिक शैक्षिक स्थिति के उक्त 20प्रतिशत अभिभावक अपने बच्चों को सी बी एस ई स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं,लेकिन ऊंची फीस एवं अन्य खर्चों के कारण अपने बच्चों को 5हज़ार से लेकर 30-40 हज़ार सालाना फीस वाले स्कूलों में 3साल की उम्र में ही प्रवेश दिलवाकर शिक्षा दिलवाते हैं जिनमें से 20 --30 प्रतिशत विद्यार्थी अभिभावकों के सहयोग एवं अपने परिश्रम के बल पर अच्छी शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं।

सरकारी स्कूलों मेंकक्षा 1 में 6साल की उम्र में प्रवेश लेने वाले बच्चों में से अधिकांश बच्चों के अभिभावकों की आर्थिक स्थिति कमजोर और कुछ की काफी कमजोर होने के कारण अपने परिवार के लोगों का भरण पोषण में ही समय बीत जाता है और अपने बच्चों की पढाई की ओर ध्यान नहीं दे पाते।

यहां यह उल्लेखनीय है कि उक्त तीनों प्रकार के स्कूलों में एन सी ई आर टी का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। सी बी एस ई स्कूलों के बच्चे लगभग 3साल की उम्र में नर्सरी में प्रवेश लेकर एल के जी,यू के जी कक्षाओं में 3 साल पढ़ कर 6साल की उम्र में कक्षा 1 में पहुंचता है जबकि लगभग इसी उम्र में सरकारी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चे कक्षा 1 में ही प्रवेश पाते हैं । अब प्रश्न यह उठता है कि क्या सरकारी स्कूल के बच्चे कभी सी बी एस ई के स्कूलों के बच्चे पठन पाठन में बराबरी कर पायेंगे ?

और क्या सरकारी स्कूलों के अभिभावकों की गरीबी अपने बच्चों की पढ़ाई में आर्थिक रूप से संपन्न अभिभावकों की तरह मदद कर सकेगी ?

महोदय , आपके संज्ञान में यह लाना आवश्यक है कि सी बी एस ई ,आई सी एस ई एवं बेसिक शिक्षा परिषद के निजी स्कूलों में नर्सरी,एल के जी,यू के जी में 3 साल तक गंभीरता से पढ़ चुके एवं कक्षा 1में प्रवेश पाने वाले ये बच्चे तथा साथ ही प्रथम बार सरकारी प्राथमिक स्कूलों में कक्षा 1 में प्रवेश लेने वाले बच्चे अपने अपने स्कूलों में एक ही एन सी ई आर टी पाठ्यक्रम को पढ़ना होगा।

क्या सरकारी स्कूलों के बच्चों में एक ही वर्ष में कक्षा 1 के पाठ्यक्रम में शामिल हिन्दी,गणित,अन्ग्रेजी,पर्यावरण,संस्कृत,नागरिक शास्त्र,सामाजिक ज्ञान,भूगोल,नैतिक शिक्षा व शारीरिक शिक्षा विषयों को समझने की क्षमता का विकास हो जायेगा? सच्चाई यह है कि जिस आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से ये बच्चे सम्बंधित हैं, उनके लिए तो कक्षा 1 के ही पूरे पाठ्यक्रम को समझना तो दूर रहा,वे तो हिन्दी व गणित के पाठ्यक्रम का ज्ञान भी अर्जित नहीं कर पायेंगे और परिणाम ये होगा कि कक्षा 1 के पाठयक्रम को न समझ पाने की ये कमजोरी आगे

की कक्षाओं का पाठ्यक्रम बढ़ने के साथ बढ़ती चली जायेगी तथा कभी दूर भी नहीं होगी एव अंततोगत्वा विद्यार्थीगण "ड्रॉप आउट" को मजबूर होंगे।

महोदय, सच्चाई ये है कि एन सी ई आर टी का पाठ्यक्रम देश के मात्र 15--20 प्रतिशत आर्थिक सामाजिक शैक्षिक रूप से संपन्न एवं कुछ शिक्षित सामान्य परिवारों के लिए ही बनाया गया है और इक्कीसवीं सदी में ये वर्ग ही सर्वाधिक लाभ उठा रहा है क्योंकि शेष लगभग 75 प्रतिशत परिवार प्राथमिक शिक्षा स्तर पर ही एन सी आर टी के भारी भरकम तथा सी बी एस ई स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए सुलभ तथा सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिहाज से बेहद कठिन ये प्राथमिक कक्षाओं का पाठ्यक्रम बच्चों के लिए भारी मानसिक वेदना का कारण बनने से उनमें पढ़ाई के प्रति अरुचि पनपती है जो प्राथमिक शिक्षा स्तर के विभिन्न विषयों यथा अन्ग्रेजी,पर्यावरण ,संस्कृत,विज्ञान आदि विषयों का समझना तो दूर रहा,देश की 50प्रतिशत आबादी अन्त्योदय , गरीब मज़दूर श्रेणी में शामिल परिवारों के बच्चों को अति आवश्यक मात्रभाषा हिन्दी एवं साधारण गणित के सम्यक ज्ञान से भी बंचित कर रही है। सत्यता यह भी है कि प्राथमिक स्तर के मात्रभाषा और गणित के सम्यक ज्ञान बिना अन्य विषयों के ज्ञान को रटा तो जा सकता है,लेकिन समझा नहीं जा सकता । भारी अफसोस का विषय ये है कि देश के लगभग 70 प्रतिशत गरीब परिवारों के बच्चों के हितों की पूरी अनदेखी कर एन सी ई आर टी पाठ्यक्रम को थोपकर उन्हें भाषा व गणित के सम्यक ज्ञान से ही बंचित करना घोर अन्याय है और अफसोस ये कि इस अन्याय को समाप्त करना तो दूर रहा ,इसके बारे में देश के नेत्रत्व अथवा किसी राजनैतिक दल ने सोचने की ज़हमत नहीं उठाई। सी बी ई एस ई व आई सी एस ई से सम्बद्ध स्कूलों में एन सी ई आर टी का पाठ्यक्रम चलता है तो चले,लेकिन सरकार की जिम्मेदारी इतनी तो बनती ही है कि वह हिन्दी व गणित का सम्यक ज्ञान देश के 70 प्रतिशत अभिभावकों के बच्चों को दिलवाने की भी ब्यवस्था करे।

महोदय, प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में देश की अधिसख्य आबादी के साथ हो रहे अन्याय की समाप्ति हेतु आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान एन सी ई आर टी पाठ्यक्रम से उक्त लगभग 70 प्रतिशत परिवारों को निजात दिलवाकर उनके बच्चों को मात्रभाषा एवं गणित का सम्यक ज्ञान कराये जाने की ब्यवथा करायें अन्य विषयों का साधारण ज्ञान तो वे

उच्च प्राथमिक कक्षाओं में प्राप्त कर लेंगे। उच्च शिक्षा व्यवस्था में 40 वर्ष से अधिक पढ़ाने के बाद स्कूली शिक्षा से पूरी निकटता रखने के कारण मेरा अनुभव है कि विशिष्ट ब्यक्तियों को छोड़कर शेषके पूरे जीवन में हिन्दी एवं गणित का सम्यक ज्ञान ही अहम भूमिका निभाता है और अफसोस कि केंद्र सरकारों की नीतियों के तहत संचालित एन सी ई आर टी पाठ्यक्रम हिन्दी व गणित का सम्यक ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है जिसे अविलंब दूर किया जाना चाहिये अन्यथा की स्थिति में इस अन्याय के विरुद्ध मुझ जैसे लोग यथाशीघ्र संघटित होकर संघर्ष करने को मजबूर होंगे।

उम्मीद है कि आप शिक्षा ब्यवस्था में ब्याप्त उक्त बुराई की समाप्ति की दिशा में सार्थक कदम उठायेंगे । सधन्यवाद

डा रक्षपाल सिंह पूर्व अध्यक्ष, डा बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय आगरा।

मो ९४१२२७४२४८




लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।


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