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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील पर उन्हें भी डीपी में तिरंगा लगाने पर मजबूर होना पड़ा जो कहा करते थे कि भगवा ही उनकी आत्मा है और भगवा ही भारतवर्ष का मुकद्दर है और भगवा ही भारतवर्ष की एकता की जमानत है। जो संगठन किसी विचारधारा को लेकर बनता है और उसे उस विचारधारा से पीछे हटना पड़े तो वह समय उस संगठन और उसके कार्यकर्ताओं के लिए बहुत पीड़ादायक होता है। यही सब कुछ हो रहा खुद को दुनिया का सबसे बड़े संगठन और खुद को भारतीयता का रक्षक बताने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) के साथ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना वर्ष 1925 से लेकर अब तक जबकि उसकी उम्र सौ बरस होने में तीन साल बाकी हैं तब से देश के संविधान और राष्ट्रीय ध्वज से असंतोष जाहिर करता रहा है और देश की आजादी से लेकर 52 वर्षों तक यानी 2002 तक आरएसएस ने अपने मुख्यालय पर भी कभी तिरंगा नही लगाया था और भगवा ध्वज को ही अपनी और देश के गौरव की पहचान बताता रहा है। आखिर ये इतना बड़ा परिवर्तन सवाल तो खड़े करता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तिरंगा यात्रा और घर घर तिरंगा की बात भी चौंकाने वाली थी कि आखिर भगवाधारी प्रधानमंत्री को अचानक ये तिरंगा से इतनी मुहब्बत कैसे उमड़ पड़ी। लेकिन इसका जवाब हो सकता था कि राजनीति कब किससे क्या करा दे कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि भाजपा तो कश्मीर में ऐसा ही दो किनारों का मिलन कर चुकी है जब उसने पाकिस्तान समर्थक पीडीपी से मिलकर सरकार बनाई थी। तब भी सवाल यह उठा था कि आखिर भाजपा इस नारे को जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है को भूलकर पाकिस्तान समर्थकों से दोस्ती कैसे कर सकती है।
लेकिन वैचारिक संगठन की नीतियों में परिवर्तन आने के पीछे क्या कारक हो सकते हैं। इसके लिए कुछ लोग राजनीतिक कारण बता रहे हैं कि 2024 में तीसरी बार सत्ता पाने के लिए एक नाटक देशभक्ति का किया जा रहा है। लेकिन क्या सिर्फ सत्ता प्राप्ति के लिए संघ अपनी आधारभूत नीति से समझौता कर सकता है, संघ को करीब से जानने वालों का कहना है कि संघ अपने मिशन से पीछे नहीं हटता। संघ के सहारनपुर में पुराने प्रचारक सुरेंद्र शर्मा इस बात पर ऐसे प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहते हैं कि चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर एक कार्यक्रम निर्धारित किया गया है तो संघ को भी उसमें सहयोग करना है लेकिन वह सामाजिक रूप से भगवा को ही अपना झंडा मानता रहेगा, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दबाव होने की बात पर सुरेंद्र शर्मा कहते हैं कि संघ किसी दबाव में नहीं रहता।
आरएसएस चीफ मोहन भागवत के पिछले दिनों कुछ बयान ऐसे आए हैं जिससे महसूस हो रहा है कि संघ अपने कार्यक्रमों और अपने एजेंडे से पीछे हट रहा हो। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बदलती दुनिया की बदलती परिस्थितियां मजबूर कर रही हैं कि ऐसे दक्षिणपंथी एजेंडे से पीछे हटा जाए। दरअसल संघ की भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने की परिकल्पना एक मरीचिका के समान है। संघ ने अपने जीवन के सौ बरस होने से पहले देश पर अपनी विचारधारा के अनुकूल प्रचंड बहुमत की सरकार तो बनवा दी लेकिन अपने लक्ष्य को हासिल करने शायद नाकाम रहा है। सरकारी व्यवस्था में हिंदुत्ववादी विचारों को स्थापित करने में थोड़ा बहुत तो कामयाब तो रहा है लेकिन संपूर्ण लक्ष्य प्राप्ति के लिए शायद वह थकने लगा है। अभी कुछ दिन पहले ही संघ प्रमुख भागवत ने मराठी साहित्य की संस्था विदर्भ साहित्य संघ के शताब्दी कार्यक्रम में कहा कि "संघ की विचारधारा में निहित है कि एक अकेला नेता इस देश के सामने सभी चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता। वह ऐसा बिल्कुल भी नहीं कर सकता, नेता कितना भी बड़ा क्यों न हो।"
संघ प्रमुख ने कहा, "एक संगठन, एक पार्टी, एक नेता बदलाव नहीं ला सकते। वे इसे लाने में मदद करते हैं। बदलाव तब होता है जब आम आदमी इसके लिए खड़ा होता है।" उन्होंने भारत का स्वतंत्रता संग्राम 1857 से जोड़ा और कहा जब "आम आदमी सड़क पर उतरे" तो आज़ादी मिली। इन बयानों से लगता है कि जैसे अपने सपनों का भारत बनाने की इच्छा शक्ति ही खत्म हो गई हो। कुछ लोगों का मानना है कि संघ ये समझने लगा है कि भारत विभिन्न धर्मों और समुदायों के मानने वाले लोगों का देश है और मिलजुलकर ही देश की तरक्की हो सकती है। उसका हिंदुत्ववादी एजेंडा बहुत टिकाऊ एजेंडा साबित नहीं हो सकता क्योंकि अब किसी के ऊपर कोई भी विचारधारा थोपी नहीं जा सकती। अब संघ के आलोचकों को लगता है कि संघ अब मिली जुली संस्कृति और धार्मिक भाईचारे को अपना अगला रास्ता मानने लगा है। यदि संघ अपने एजेंडे में परिवर्तन कर सर्वधर्म समभाव की बात को आगे बढ़ाता है तो निश्चित ही यह देश की राजनीति और सामाजिक तानेबाने पर अवश्य ही गहरा प्रभाव डालेगा।