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उपनिवेशवाद की शुरुआत से पश्चिमी/चर्च प्रचार ने यह बात डट कर सिखाई की हिंदुस्तानी (गैर-क्रिस्तानी) सभी चीजें रद्दी हैं और पश्चिमी सभी चीजें श्रेष्ठ
चंद्रकांत राजू
उपनिवेशवाद की शुरुआत से पश्चिमी/चर्च प्रचार ने यह बात डट कर सिखाई की हिंदुस्तानी (गैर-क्रिस्तानी) सभी चीजें रद्दी हैं और पश्चिमी सभी चीजें श्रेष्ठ है. उपनिवेशवाद के दौरान चर्च ने हमारी शिक्षा प्रणाली पर कब्जा कर लिया (सरकारी नौकरी का लालच दे कर) और हमें यह सिखा दिया कि हर बात में पश्चिम की अंधाधुंध नकल करना चाहिए. हमने बगैर किसी सार्वजनिक समीक्षा किए इस बकवास सिद्धांत को मान लिया है की पश्चिम की नकल करना ही श्रेष्ठ है. आजादी के 75 साल बाद भी इस सिद्धांत को सीने से लगा रखा है.
दो उदाहरण जो मैं कई बार दे चुका हूं वह ईसाई कैलेंडर1 और गणित बनाम मैथमेटिक्स2 के बारे में है. हमने उपनिवेशवाद के दौरान ईसाई कैलेंडर अपना लिया (खेती और बारिश के बारे में बगैर सोचे3) और पिछले 75 साल में हमारे सेक्यूलर लोगों ने जरा भी आपत्ति नहीं उठाई कि हमारे दो सेक्यूलर त्यौहार (15 अगस्त और 26 जनवरी) केवल ईसाई कैलेंडर पर ही परिभाषित हैं. उनके लिए ईसाई और सेक्यूलर में कोई फर्क नहीं. ईसाई कैलेंडर ( जो कि चौथी सदी में चर्च ने अपनाया) गैर वैज्ञानिक है लेकिन scientific temper की बात करने वाले हिंदुस्तानी कभी इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं. चर्च शिक्षा का मकसद था दूसरी पद्धतियों से विमुख करना. अतः ज्यादातर "शिक्षित" लोगों को अपना जन्मदिन ईसाई कैलेंडर पर ही मालूम है और तिथि की परिभाषा तक नहीं जानते, ना ही उससे जुड़ी हुई में आकाश में angle नापने की तकनीक कभी सीखी.4 खूब संतुष्ट हैं कि पश्चिम की नकल अच्छी तरह से कर रहे हैं और स्कूल की परीक्षा पास कर ली.
(एक बात स्पष्ट कर दूं. जब मैं कहता हूं कि चर्च ने हमारी शिक्षा प्रणाली पर कब्जा किया मैं केवल मिशनरी स्कूल की बात नहीं कर रहा हूं, यूरोप की उच्च शिक्षा प्रणाली क्रुसेड के दौरान चर्च ने ही खड़ी की थी. हिंदुस्तानी विश्वविद्यालय उसी प्रथा की नकल कर बने, लेकिन जो लोग आज हिंदुस्तानी विश्वविद्यालयों में हैं और जिन्हें इस बात का जरा भी पता नहीं है, पेरिस यूनिवर्सिटी के संबंध में पोप का यह फतवा देखें,5 कि यूरोप के सभी पहले विश्वविद्यालय (जैसे पेरिस,, कैंब्रिज, ऑक्सफ़ोर्ड) पूरी तरह से चर्च के अधीन थे. और कई सदियों तक रहे.)
चर्च की सत्ता नाना प्रकार के झूट और अंधविश्वास पर टिकी हुई है, और इन विश्वविद्यालयों के सहारे चर्च ने सदियों तक इस झूट और अन्धविश्वास को सुरक्षित रखा. उसकी तकनीक क्या थी? विरोधियों को जान से मार डालना या निर्वासित करना एक तरीका था. इसी डर से कैंब्रिज के वैज्ञानिक न्यूटन ने जिंदगी भर चर्च के खिलाफ लिखी हुई अपनी किताबों को छुपाया (और मरने के बाद उन किताबों को चर्च ने आज तक छुपाया6 जिससे आम आदमी को इस बात की भनक तक न हो). लेकिन इन झूटों और अंधविश्वासों को कायम रखने के लिए चर्च ने एक अकादमिक सोच तो सेंसर करने की तकनीक भी बनाई, जिसमें गुप्त रूप से समीक्षा (secretive refereeing, pre-censorship), और संपादक के अधिकार को बहुत महत्वपूर्ण माना गया. और क्योंकि चर्च की प्रथा scriptural है इसलिए लिखित चीज को मौखिक शब्द से ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया.
इसके विपरीत हिंदुस्तान में मौखिक और सार्वजनिक वाद विवाद की प्रथा थी. क्योंकि हिंदुत्ववादी होने का गाली गलौज फॉरेन चालू हो जाएगा मैं यह स्पष्ट कर दूं यह प्रथा किसी मजहब विशेष से नहीं जुड़ी थी: नैयायिक और बौद्ध, बौद्ध और जैन, लोकायत इत्यादि आपस में विवाद करते थे, लेकिन पश्चिमी और उपनिवेशवादी शिक्षा चर्च के प्रभुत्व से जुडी थी. इसलिए इसकी पहली शिक्षा यह प्रचार है की गैर क्रिस्तानी (या गैर पश्चिमी) सभी चीजें रद्दी हैं. इस कट्टर ईसाई सिद्धांत की समीक्षा करना भी जुर्म माना गया. और आज भी कई लोग यही सोचते हैं ऐसे समीक्षा करने वाले केवल हिंदुत्ववादी ही हो सकते हैं.
आज भी हिंदुस्तानी विश्वविद्यालयों के अध्यापकों की तरक्की छपे हुए शोध पत्र और किताबें के आधार पर ही होती है, ना की उनके ज्ञान या मौखिक शिक्षण पर. और सब को यह भी मालूम है कि हमारे विश्वविद्यालयों और प्रकाशकों का लगातार श्रेणीकरण होता है, जिस में छिपे हुए तरीके से मूल्यांकन किए गए (secretively refereed) और छपे हुए (published) लेखों का बहुत महत्व है,
इसलिए पश्चिमी विश्वविद्यालय और प्रकाशकों को सबसे उच्च श्रेणी में डाला जाता है, जिससे की पश्चिम की नकल करने की प्रथा को बढ़ावा दिया जाए. देखिए वो बेहतर हैं फौरन नकल करें. इसी सिद्धांत के आधार पर किसी चीज को ज्ञान तभी माना जाता है जब उसको पश्चिम के समर्थन का प्रमाण पत्र मिलता है. इसलिए अगर कोई गैर पश्चिमी मौलिक रूप से पश्चिम के खिलाफ बोलता है तो वह ज्ञान हो ही नहीं सकता. उपनिवेशवाद के बाद ज्ञान की पूरी बागडोर हमने पश्चिम के हाथ में दे दी है. बस यही चर्च की अकादमिक तकनीक का मकसद था सब तरह के झूठ और अंधविश्वास की रक्षा करना. क्योंकि किसी चीज को वैध ज्ञान मानने के लिए चर्च के प्रमाण पत्र की आवश्यकता होती थी. फर्क इतना है कि आज सत्ता की बागडोर पश्चिम के हाथ में है.तो पश्चिम का प्रमाण पत्र मांगते हैं. इसलिए जैसे न्यूटन चर्च के खिलाफ खुलेआम बोल नहीं पाया उसी तरह आजकल के विश्वविद्यालय के अध्यापक पश्चिम के खिलाफ कुछ बोलने से डरते हैं. वैसे भी गुप्त समीक्षा वाली चर्च की प्रथा सहारे कई तरह के खिलवाड़ किए जा सकते हैं यह बात सभी को मालूम है. खासतौर से पश्चिम के प्रभुत्व के खिलाफ बगावत (decolonisation) की सोच तक रोखी जा सकती है.
इसलिए मैंने गुप्त समीक्षा प्रथा के खिलाफ एक पूरी पुस्तिका लिखी है Ending Academic Imperialism7. इस पर जो ईरान में भाषण दिया था वह भी यहां मिल सकता है.8 चर्च के अंधविश्वास मैथमेटिक्स में मिश्रित है, और उसी के सहारे विज्ञान में भी घुस जाते हैं जैसे स्टीफन हॉकिंग ने कर दिखाया creationism के बारे में.9 लेकिन अज्ञानी लोग जो झूठी कहानियों में अंधविश्वास रखते हैं यह कैसे समझेंगे? वह तो गैलीलियो की 500 साल पुरानी कहानी में मग्न है.
पश्चिम के इस प्रभुत्व के कारण (ज्ञान के स्वामित्व के अलावा) बड़े-बड़े पश्चिमी प्रकाशक शोध पत्र छाप कर जर्नल के माध्यम से (या उससे संबंधित पुस्तकों के माध्यम से) अरबों खरबों डॉलर कमाते हैं. यह धंधा पूरी तरह से अनैतिक है: क्योंकि मेहनत तो लेखक करता है, और लिखने वाले की तनख्वाह कोई और देता है, लेकिन कॉपीराइट प्रकाशक के हाथ में होती है. ऊपर से लिखने वाले को या उसकी संस्था को भी जबरन अपना लेख या किताब खरीदना पड़ता है. कई जर्नल प्रकाशन का खर्चा भी बढ़ा चढ़ा कर ले लेते हैं, क्योंकि तरक्की छपे हुए लेखों और किताबों से जुड़ी है लेकिन scientific temper की अत्याधिक बात करने वाले लोग चूं से चाँँ नहीं करते हैं. Nature में अगर छपा है तो उसे आंख मूंदकर श्रद्धा पूर्वक सत्य मान लेना चाहिए. आजकल का विज्ञान पश्चिम में विश्वास पर चलता है.
इसी कारण से मुझे अपने लेख देसी (UGC) जर्नल मैं छपने के बाद भी विदेशी प्रकाशक से किताब के रूप में छपवाना पड़ा (क्योकि हिंदुस्तानी समीक्षक बेकार माने जाते हैं), वह बड़ा विदेशी प्रकाशक उस किताब10 की कीमत 25 साल बाद भी १७९ डॉलर रखता है. यह् ज़रूरी था, क्योंकि लोगों को मालूम है की देसी और भूरी चमड़ी वाला हिंदुस्तानी के वैज्ञानिक होने की संभावना बहुत कम है, खास तौर से जब वह आइंस्टाइन का विरोध करता है.
उपनिवेशवादी शिक्षा नाममात्र तो विज्ञान के लिए आई, लेकिन विडंबना यह है उपनिवेशवादी शिक्षित ज्यादातर विज्ञान तो नहीं जानते, लेकिन विज्ञान के झूठे देवताओं की कहानी बहुत सुनी है. और उनमें कट्टर विश्वास है, हालांकि उसके बारे में छानबीन कभी नहीं करी न कभी करेंगे. कहानियों के अलावा विज्ञान का इतिहास भी नहीं जानते और कभी कल्पना भी नहीं करी कि चर्च ने विज्ञान का झूठा इतिहास क्रुसेड के जमाने से गढ़ा है.11 ( उन्होंने जो एक कहानी सुनी है उसमें तो चर्च विज्ञान से भिड़ता रहा है.) उपनिवेशवादी शिक्षित ज्यादातर विज्ञान नहीं जानते तो विज्ञान की बात भी नहीं कर पाते, लेकिन अपने कट्टर विश्वास के बचाव में आलोचक के विरोध में कुछ भी भला-बुरा कह सकते हैं, जैसे कई बार इसी मंच पर भी देखा है. आजादी (decoloniusatioln) के खिलाफ लड़ने वालों की आज भी कोई कमी नहीं है.
वैसे मौखिक बनाम लिखित परंपरा का आइंस्टाइन की चोरी से घनिष्ठ संबंध है. मेरे epistemic test के अनुसार ज्ञान की चोरी करने वाले, परीक्षा में नकल करने वाले विद्यार्थियों के समान, चोरी किया हुआ ज्ञान पूरी तरह समझते नहीं है. लिखित रूप में यह बात स्पष्ट नहीं होती है कि किसी और के लेख या विचारों पर अन्य ने अपना नाम डाल दिया है. लेकिन मौखिक संवाद में जल्द ही स्पष्ट हो जाती है. डेविड हिलबर्ट को यह बात स्पष्ट हो गई ( कि आइंस्टाइन कितना अज्ञानी था) जब आइंस्टाइन उससे मिलने गया. उसने कहा: "every boy in the streets of Goettingen knows more about 4-dimensional geometry than Einstein". लेकिन हिलबर्ट ने जरा ज्यादा दिमाग लगाकर यह अंदाजा लगाया की रिलेटिविटी की नव्यता का मूल कारण ही यह अज्ञान था! (आइंस्टाइन ने जब देखा कि हिलबर्ट इतने आसानी से बेवकूफ बन गया तो उसने हिलबर्ट के रचे समीकरण भी पांच ही दिन में चुरा लिए.12)
सभी लोग यह बात समझते हैं की लिखित विचार का श्रेय हड़पना बहुत आसान है. इसलिए आइंस्टाइन की चोरी के शताब्दी महोत्सव (2005) में रॉयल सोसायटी के पूर्व अध्यक्ष और दुनिया के महान mathematician माने जाने वाले माइकल अटिया ने मेरी 10 साल पहले छपी किताब Time: Towards a Consistent Theory (Kluwer, 1994) से नकल करी.13 मैंने आइंस्टाइन की मैथमेटिक्स में गलती के सुधार का जो उपाय बताया था उसका श्रेय अटिया ने छीनना चाहा. वह पकड़ा तो गया, और हमारे एक academic ethics की समिति के ३ विशेषज्ञों ने यह बात मान भी ली कि अटिया ने मेरी किताब से चोरी करी.14 लेकिन हमारे अंधविश्वासी और American Mathematical Society सालों से अटिया के बचाव में कोशिश कर रहे हैं.15 और ज्ञान के मामले में जहां पश्चिम से संघर्ष करने की बात उठती है हमारे पत्रकार पूरी तरह से नपुंसक हैं.
यह पत्रकारों वाली बात उसी समय हुए एक और चोरी के मामले से स्पष्ट होती है. 1998 में मैंने कैलकुलस की हिंदुस्तान से हुई चोरी की तहकीकात शुरू की.16 इस मामले में एक शुरुआती वक्तव्य हवाई के जर्नल में छपा.17 जुलाई 2007 में पूरी किताब Cultural Foundations of Mathematics18 छपी. किताब का यह कहना था की सोलवीं सदी में कोची में मौजूद जेसुइट पादरियों ने हिंदुस्तान से कैलकुलस चुराया यूरोपीय नाविक शास्त्र की कठिनाइयों के हल के लिए. बाद में इसी कैलकुलस का झूठा श्रेय न्यूटन और लेइब्निज़ को दिया क्रिस्तानी खोज के सिद्धांत पर,19 जो कि ब्रिटेन और अमेरिका में कानून है.20
लेकिन यूरोपीय कैलकुलस को ठीक तरह से समझ भी नहीं पाए.21 (और हमारे अज्ञानी उपनिवेशवादी शिक्षित क्योंकि वह पश्चिम की नकल करने पर तुले हैं, इस बात को कैसे समझेंगे?) मेरा यह कहना है कि कैलकुलस समझने में यूरोपीयों की सदियों की दिक्कत यूरोप द्वारा कैलकुलस की चोरी का सबूत है. (यह अलग बात है की कैलकुलस को आज भी पुरानी गणित की विधि से पढ़ाना बेहतर है, लेकिन क्योंकि बहुत कम लोग कैलकुलस समझते हैं इस बात पर एक दशक तक विवाद हो ही नहीं पाया है.22)
लेकिन मेरे कैलकुलस की चोरी के प्रोजेक्ट पर दो ब्रिटिश चोरों की निगाहें टिकी हुई थी, मेरे प्रोजेक्ट का 1998 मैं post-doctoral RA का इश्तिहार देखने के बाद से.23.बात यहां पत्रकारों की हो रही है तो सारी बातों का विवरण नहीं करूंगा. मेरे 500+ पन्ने की किताब तो पत्रकारों ने नजरअंदाज कर दी, उनके पल्ले कहां पड़ती, और यह तो साफ-साफ गैर पश्चिमी द्वारा लिखी हुई पश्चिम के खिलाफ थी! (किताब के शीर्षक में ही लिखा था: Transmission oc Calculus from India to Europe in the 16th c. CE.) हिंदुस्तानियों में तो पत्रकार विश्वास नहीं रखते. लेकिन इन दो चोरों ने मैनचेस्टर विश्वविद्यालय से एक प्रेस विज्ञप्ति निकाली जो PTI लंदन नें फैला दी. क्योंकि हमारे पत्रकारों का मानना है कि ब्रिटिश पर पूरा भरोसा किया जा सकता है (आखिर वह हमारे यहां सभ्यता फैलाने के लिए आए थे ना कि चोरी डकैती और नरसंहार करने के लिए). इस सिद्धांत पर लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अखबारों ने इस खबर को अपने प्रथम पृष्ठ पर अथवा प्रमुखता से दिया. 24 पत्रकारों का काम होता है कि तथ्यों की जांच करें ना कि मिथ्याएं फैलाएं. असलियत में जिस २००७ "शोध लेख" के बारे में जो खबरों थी (और जो आज भी इंटरनेट पर मिलती है) वह मेरे 1999 के शोध लेख की शब्दश: नकल थी और मेरे जो 1999 के कई अप्रकाशित लेख थे उनका भी वैसे ही हवाला दिया गया.
लेकिन हमारे सारे अखबारों में केवल एक ही अखबार, हिंदुस्तान टाइम्स ऐसा था जिसने कि तथ्यों की जांच करी और खबर को सरासर गलत बताया.25 वह इसलिए कि हिंदुस्तान टाइम्स कुछ साल पहले ही दो में से एक चोर के पकड़े जाने के बारे में खबर छाप26 चुका था! लेकिन हमारे बुद्धिजीवी साल बाद भी इस में विश्वास नहीं रखते, पश्चिम का प्रमाण पत्र कहां मिला?
ऐसी चोरियां बार-बार (serial plagiarism) इसलिए होती हैं, कि पश्चिम के लोगों को मालूम है की उपनिवेशवादी शिक्षा ने शिक्षित लोगों को विज्ञान और मैथमेटिक से अनभिज्ञ कर दिया है, और पश्चिम में जबरदस्त अंधविश्वास बैठा दिया है. जो लोग थोड़ा बहुत जानते हैं वह इसलिए नहीं बोलेंगे कि उनकी निगाहें पश्चिम में टिकी हैं बढ़ोतरी के लिए.
लगता है हमारे समाज के विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग ने प्रण ही ले लिया है की फिरंगीयों से आई बात पर विश्वास ना करना या जांच करना केवल हिंदुत्ववादियों का काम है. Scientific temper का अर्थ भी इन लोगों के लिए यही है कि पश्चिम की आई हुई सभी चीजों में अंधविश्वास करना, और जो सवाल उठाता है उसके साथ गाली गलौज करना, लेकिन हमेशा तथ्य की बगैर जांच किए और विषय को बगैर जाने. पश्चिमी तो हम पर हंसते ही हैं, लेकिन आने वाली पीढ़ियां भी हमारी मूर्खता पर शायद हसेंगी.
अंत में मुख्य बातें फिर से दोहरा दूं. आज की तारीख में जब वीडियो और ऑडियो रिकॉर्डिंग इतनी आसान है प्रकाशन का वह महत्व नहीं रहा. इसलिए और भी ज्यादा जरूरी है कि हम लिखित से मौखिक की तरफ जाएं. किसी संपादक के बताए हुए लोगों की समीक्षा में अक्सर कई त्रुटियां आ जाती हैं क्योंकि जिसे एक्सपर्ट माना जाता है वह वाकई में एक्सपर्ट नहीं रहता. और तरह तरह की गड़बड़ियां होती हैं इसलिए समीक्षा के बजाय सार्वजनिक वाद विवाद की हमारी परंपरा बेहतर है.
किसी भी हालत में चर्च की गुप्त समीक्षा की बदमाश विधि के बदले सार्वजनिक समीक्षा बेहतर है. बहुत सारे प्रकाशन आजकल इंटरनेट पर होते हैं इसलिए प्रकाशन पर खर्च बहुत कम हो गया है. अगर प्रकाशन और समीक्षा की पुरानी विधि से हमें अब भी बहुत लगाव है तो भी समीक्षा प्रकाशन के बाद होना चाहिए, सेंसरशिप के लिए बहाना नहीं होना चाहिए.
सिर्फ इतना और कहना चाहता हूं की इस पहल में मैं हरगिज भाग नहीं लूंगा. कैलेंडर सुधार समिति के समान लगता है हमें हिंदी में छपे देखो का "सुधार" करने जा रहे हैं. पश्चिम और चर्च की नकल करना है तो करें लेकिन मैं इसमें शामिल नहीं होऊंगा.
लेखक के अपने निजी विचार है