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- शंभूनाथ शुक्ल की कलम...
शंभूनाथ शुक्ल
बात उन दिनों की है जब न तो सोशल मीडिया था न मैं दिल्ली आया था और न ही अपने गांव और अपने शहर के अपने मोहल्ले से आगे बढ़ा था। तब अपनी जाति को लेकर इतना ही मैं जानता था कि हम लोग शुक्ला हैं पर शुक्ला भारत की 36 बिरादरियों में किस स्थान पर आते हैं यह नहीं पता था। कानपुर शहर में हम गोविंद नगर के छह ब्लाक में रहते थे और वहां पर रिफ्यूजी पंजाबी परिवार ज्यादा थे और उनमें से कुछ सिख थे और कुछ मोना। सब अपने नाम के आगे ग्रोवर, अरोड़ा, बेदी, छिब्बर, नाथ, मोहन, मेहता, खन्ना, कपूर, चोपड़ा और शर्मा या गोस्वामी लगाया करते थे। इनमें से ज्यादातर सनातन धर्म को मानते थे पर जो मुखर थे वे आर्य समाजी थे। मगर उनकी जाति को लेकर हम कुछ नहीं जानते थे।
इसी तरह गांव में जो परिवार पूरे गांव पर राज करता था वह अपने नाम के आगे सचान लगाता था। उनका नाम था लाला शिवनारायण सिंह सचान। पूरे गांव में ककई ईंट से बना उनका दोमंजिला मकान था और बाहर टीन का छप्पर जो तब संपन्न लोगों की निशानी समझा जाता था। उनके घर पर तब भी ट्रैक्टर था पर बाहर नादी पर दो बैल बंधे रहते थे एकदम हीरा-मोती की तरह। वे गर्व से बताया करते थे कि यह जोड़ी पूरे ग्यारह सौ की है और वे इसे इटावा जिला स्थित बिजौली के मेले से लाए थे। सब को पता था कि लाला की गोईं हरयाणवी नस्ल की है। लाला के घर पर एक गाय थी जो उनकी मां को इतना प्यारी थी कि जब वह मरी तो लाला की अम्मां पछाड़ें खाकर गिर रही थीं। पर लाला ओबीसी बिरादरी के हैं या कोई अन्य हमें नहीं पता था बस इतना ही पता था कि लाला गांव के माई-बाप हैं। पर उन लाला की बहनों की शादी पास के गरीब परिवारों में हुई थी और यह बात समझ से परे थी। तब पता चला कि लाला झबैया कुर्मी हैं और सचान बिरादरी झबैया कुर्मियों के यहां शादी-विवाह नहीं करती है। जो गरीब किसान हैं वे दहेज के लालच में इनके यहां से लड़कियां ले आते हैं। गांव में सचान थोड़े ही थे और जो थे वे सब खाते-पीते महतो थे।
एक घर अहीर का था जिसके पास 45 बीघा पक्की खेती थी और उस अहीर परिवार का मुखिया जब किसी के यहां शादी में अपनी घोड़ी पर सवार होकर आता तो उसका रौब पड़ जाता। एक धोबी परिवार था जिसके 11 लड़के थे जिनमें से एक फौज में था और इसीलिए उस परिवार का भी रौब था। बाकी के कोरी (हिंदू जुलाहा) और काछी थे। पर सर्वाधिक आबादी ब्राह्मणों की थी और वे गरीब भी थे। इनमें से एक शुक्ला परिवार के पास नौ आने की ज़मींदारी थी। उस परिवार का एक लड़का मेरी उम्र का था, वह बताया करता था कि वे लोग नरेंद्र मंडल में हैं और उन्हें भारत सरकार प्रीवीपर्स देती है। उसी ने बताया कि लाला हमसे छोटे ज़मींदार हैं। उनकी हैसियत सात आने की है। पर लाला हमारे पड़ोसी थे और अतीत में हम उनकी रियाया थे इसलिए उस शुक्ल परिवार की अपेक्षा हम लोग लाला को ऊँचा आसन देते। अधिकतर ब्राह्मण भूमिहीन या सीमांत किसान थे। बहुत से ब्राह्मण खेतिहर मजदूरी करते थे। इनमें से एक परिवार मैकू सुकुल का था। जो कुछ ब्राह्मण परिवार बहुत अमीर थे और वे अमीर परिवार गरीब ब्राह्मण परिवारों को अपने यहां किसी काम काज में नहीं बुलाया करते थे। बाकी के परिवार कुरील, संखवार आदि थे। वे खेतीवाले भी थे पर ज्यादातर भूमिहीन मजदूर। उनके साथ झबैया कुर्मी सख्ती से पेश आया करते थे और उनके सामने पड़ते ही वे पालागन करते थे।
हमारे शहर कानपुर में कामरेड राम आसरे का बहुत नाम था। किसी को नहीं पता था कि उनकी जाति क्या है। न तो वे जाति लगाते थे और न ही आर्य या अनार्य। हमारे शहर के लोकसभा सांसद कामरेड एसएम बनर्जी थे और लोग यह जानते थे कि वे बंगाली हैं। वे चार बार इस सीट से जीते। जबकि पूरे कानपुर में 20-25 हज़ार बंगाली शायद हों।
हमारे घर पर आर्य समाजी नेता देवीदास आर्य आते थे और हम यही समझते थे कि वे शायद आर्य रहे होंगे। यह तो बहुत बाद में पता चला कि वे सिंधी थे। इसी तरह कामरेड सुदर्शन चक्र भी आते थे और हम समझते कि वे शायद कृष्ण के रिश्तेदार होंगे। पर उनके लड़के का नाम कामरेड मुक्ति कुमार मिश्र उर्फ़ गोर्की था। राहुल सांकृत्यायन कानपुर आते तो कामरेड सुदर्शन चक्र के घर भी आते। एक बार पिता जी उनसे मिलवाने ले गए थे। हम उनकी भी जाति नहीं जानते थे और न ही पिताजी ने कभी बताई। पिता जी मुझे एक बार भदंत आनंद कौशल्यायन के पास ले गए पर हमें उनकी भी जाति नहीं बताई। हमें यह भी नहीं पता था कि हिंदू कौन होता है और मुसलमान कौन। एक ईसाई अलबर्ट जेब्रा हमारे साथ पढ़ता था और हकलाता था। हमारे सामाजिक विषय के मास्टर खरे साहब उसे बहुत मारते थे और हमारे हिस्से की मार भी जेब्रा ही खाता क्योंकि उसे अपनी सफाई पेश करने में इतना समय लगता कि खरे साहब का धैर्य ही चुक जाता। हमारे अंग्रेजी थर्ड के मास्टर कटियार साहब ने तो जेब्रा को इसलिए पीटा क्योंकि उनको लगा कि वह उनकी नकल उतार रहा है। कक्षा तो दूर स्कूल में भी कोई मुसलमान नहीं था। इसलिए जब बारहवीं में हमने एक मुसलमान छात्र देखा तो देखते ही रहे क्योंकि हम यह सोचकर भौंचक्के थे कि अरे, मुसलमान तो एकदम हमारे जैसा ही दीखता है।
ऐसे ही दौर में एक बार मेरे चाचा जी मुझे गांव ले गए। जिसे आज एनएच-2 कहते हैं तब यह कालपी रोड कहलाती थी पर रायपुर के पास बायीं तरफ को एक लिंक रोड गई थी जिसे आज भी रायपुर-मूसानगर मार्ग कहा जाता है। वहां से कुछ मिनी बसें चलती थीं जो मेरे गांव दुरौली उतारती हुई जाती हैं। हम लोग रायपुर तक तो एक ट्रक पर चढ़ कर गए और वहां से मिनी बस पर सवार हुए। हमारे आगे वाली सीट पर दो अधेड़ व्यक्ति बैठे थे और वे लगातार कहे जा रहे थे कि ब्राह्मणों ने देश नर्क कर रखा है। देखो वह नेहरू भी ब्राह्मण था और यह इंदिरा भी जो अब तक उस बुढ़ऊ गांधी के नाम पर खा रहे हैं। उनमें से एक जो कि झब्बर जैसी मूंछों वाला था बोला कि जब तक ब्राह्मणों का नाश नहीं होगा देश का कल्याण होने से रहा। अचानक वही मूंछों वाला व्यक्ति हमारी तरफ मुड़ा और चाचा से पूछा कि आप कौन ठाकुर? चाचा ने कहा कि दुर्भाग्य से हम ब्राह्मण हैं। वह एकदम से उठा और चाचा के पाँव छूकर बोला कि पंडित जी हम ठाकुर हैं और देखो अकेले ठाकुर ही ब्राह्मण की कद्र करता है। क्योंकि हमें पता है कि ब्राह्मण ही इस देश का कल्याण कर सकता है। और उसने ब्राह्मण-ठाकुर गठजोड़ पर इतने कसीदे काढ़े कि आगे यहां तक कह दिया कि हमारे ठाकुर साहब (तब यूपी के मुख्यमंत्री वीपी सिंह) कहते हैं कि ठाकुरों को आगे बढऩा है तो ब्राह्मण-ठाकुर एक हो जाएं और इसीलिए ठाकुर साहब ने बीहड़ों से सारे गैर ठाकुर बागियों को पकड़वा रखा है। अब देखें कोई गैर ठाकुर बागी बीहड़ में तो आए। वे सारे ठाकुर सरवन खेड़ा में उतर गए तो मैने अपने चाचा से पूछा कि ये लोग पहले तो कह रहे थे कि ब्राह्मणों ने बेड़ा गर्क कर रखा है पर आपके पाँव छूकर कहने लगे कि ब्राह्मण-ठाकुर एक होकर यादव-कुर्मियों का सफाया कर दें। वे बार-बार पलट क्यों रहे थे। चाचा ने कहा कि ठाकुर हैं। राज भले चला गया हो पर नशा तो रहता ही है।