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- गांधी और भगतसिंह...
महात्मा गांधी और भगत सिंह दोनों बहुत बड़े लोग है जिनके बारे में मेरी कुछ भी कहने की कोई हैसियत नहीं है। इन दोनों महापुरुषों के प्रति अगाध श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उनमें से किसी को भी छोटा या बड़ा दिखाने की कोशिश न करते हुए सिर्फ उतनी बात हम देखने की कोशिश करना चाहिए जितनी बात इतिहास में दर्ज है। सहमति असहमति सबकी अपनी जगह है पर दुराग्रह की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। दुराग्रह उसे कहते हैं कि जिसका कोई प्रमाण नहीं होता फिर भी आप उसी बात पर अड़े रहते हैं।
लाहौर की सेंट्रल जेल में फांसी के फंदे पर भगतसिंह सहित जो तीन नौजवान हंसते हंसते झूले और कुछ देर थरथराने के बाद शांत हो गए। कई बार लगता है कि इन तीन लाशों की तुलना में हम करोड़ों लोग कितने बोने हैं। आज पाकिस्तान के लाहौर में सेंट्रल जेल में भगतसिंह नहीं हैं। वहां एक बड़ा सा मॉल बन गया है और एक बड़ी सड़क बन गयी है जिस पर रात दिन गाड़ियां दौड़ती रहती हैं। आज अगर ये तीन सपूत बोल सकते और वे हमसे पूछते कि हम भारत के लिए शहीद हुए या पाकिस्तान के लिए? तो न इस प्रश्न का आपके पास कोई जबाव है न मेरे पास।
इतिहास इन तीन लाशों पर रुका नहीं क्योंकि इतिहास कभी रुकता नहीं है वो तो चलता रहता है। इतिहास लाहौर से चला और सही 17 साल बाद 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस पहुंच गया। यहां एक 78 साल के बूढ़े आदमी को प्रार्थना के समय जाते हुए सामने से आकर कोई गोलीं मारता है और एक बहुत बड़ा आदमी जिसे हम अपना वटवृक्ष कहते थे, तीन गोलियां खाकर भर भरा कर गिर गया। उसकी भी लाश थोड़े समय तक थरथराती है और शांत हो जाती है। दिल्ली के बिड़ला हाउस में आज गांधी नहीं हैं। वहां गांधी की यादें रह गयी हैं।
शाहिर लुधियानवी से माफी मांगते हुए यह पक्तियां प्रस्तुत हैं-
ये जश्न मुबारक हो फिर भी यह सदाकत है,
हम लोग हकीकत के अहसास से तारी हैं।
गांधी हों या भगतसिंह इतिहास की नजरों में
हम दोनों के कातिल और दोनों के पुजारी हैं।
गांधी और भगत सिंह दोनों भारत की स्वाधीनता के लिए लड़े और अंतिम सांस तक लड़े। भगत सिंह, गांधी के प्रति पूरा सम्मान प्रदर्शित करते हैं। भगत सिंह खुद स्वीकार करते थे कि क्रांति का मतलब बम और पिस्तौल से नहीं है और इस तरह की पटाकेबाजी से क्रान्ति या बदलाव नहीं आ सकता। वे एक गम्भीर व्यक्तित्व वाले नौजवान थे जो चिंतन और विचार विमर्श को अधिक महत्व देते थे। उन्होंने कहा भी कि जब वे महात्मा गांधी के अहिंसक तरीके का विरोध कर रहे है तो इसलिए कर रहे हैं कि उनको लगता है कि महात्मा गांधी एक अत्यंत असंभव आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं और भारतीय समाज अभी अहिंसा के लिए तैयार नहीं है। लेकिन वे गांधी के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहते है कि महात्मा गांधी ने लोक जागरण का जो महान कार्य किया है उसके लिए उन्हें कोटि कोटि सलाम न किया जाय तो उनके प्रति बहुत बड़ा अन्याय होगा ।
गांधी और भगत सिंह दोनों के ही रास्ते, दोनों के कार्यक्रम, दोनों के संगठन, दोनों के लक्ष्य अलग थे। दोनों ही अपने विचारों से एक इंच भी सरकने को तैयार नहीं थे। फिर भी एक प्रश्न उठता है कि गांधी को भगत सिंह को बचाने की कोशिश करनी चाहिए थी। क्योंकि गांधी राष्ट्रपिता थे। एक पिता बनना ही बहुत कठिन काम है, तो राष्ट्रपिता बनना तो बहुत ही कठिन काम है। करोड़ों करोड़ लोग और उनकी आकांक्षाएं, उनकी अपनी आशा और विश्वास उन सब का बोझ जो ढो सके, उन सबके दिए घावों को जो बर्दाश्त कर सके, जो अपनी जनता के आंसू पोंछ सके वही राष्ट्रपिता बन सकता है। इसलिए गांधी पर यह जिम्मेदारी आती है कि उन्होंने अपने एक बच्चे को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की?
महात्मा गांधी इंग्लैंड से बैरिस्टरी पढ़कर आये थे। वे जानते थे कि सारे सबूत भगत सिंह के खिलाफ हैं और अंग्रेज कानून के दायरे में उन्हें फांसी से बचाना मुश्किल है। गांधी यह भी जानते हैं कि वाइसराय इरविन को भी फांसी को रद्द करने के अधिकार नहीं। ब्रिटेन की संसद ही वाइसराय की सिफारिश पर इसे रद्द कर सकती थी। सभी ऐतिहासिक दस्तावेज पब्लिक डोमेन में हैं ,लेकिन सत्य से किसे लेना देना है और कौन इतना पढ़ेगा कि दरअसल गांधी ने भगत सिंह की फांसी को लेकर कितनी बहस वाइसराय से की और फिर वह बात कहाँ जाकर खत्म होती है। अंग्रेज ,गांधी से कहते हैं कि हम सिर्फ इतना कर सकते हैं कि लाहौर कांग्रेस होने तक फांसी न दें।
गांधी वाइसराय से कहते हैं कि देखिये या तो आप भगतसिंह की फांसी को हमेशा के लिए रद्द करें और फांसी रद्द नहीं कर सकते तो फिर मुझे कोई राहत न दें। मैं झेलूंगा जो मुझे झेलना है। लेकिन में आप से कोई घूस नहीं चाहता हूँ। अब आप गांधी की सैद्धांतिक दृणता को देखिए। वे कहते हैं कि मुझे बीच का कोई रास्ता नहीं चाहिए। फांसी का मुझ पर एक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा लेकिन मैं उसको झेलने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं आपसे कोई गुप्त समझौता नहीं करना चाहता।
भगत सिंह को बचाने के लिए 23 मार्च 1931 को वाइसराय को लिखी उस चिट्ठी में गांधीजी ने जनमत का हवाला देते हुए लिखा कि जनमत चाहे सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है. ...मौत की सजा पर यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी सी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
जब गांधी कराची कांग्रेस में पहुंचते हैं तो लाल कुर्तीधारी नौजवान भारत सभा के युवकों ने काले कपड़े से बने फूलों की माला गांधीजी को भेंट की. स्वयं गांधीजी ने कहा कि मैं यहां अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया? मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया. समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा देखी।
आज जब भी चर्चा भगत सिंह की छिडती है तो वह गांधी तक ही जा पहुंचती है? लेकिन जब हम दोनों शख्शियतों को देखते है तो ऐसी चर्चाएं मात्र 23 साल के भगत सिंह की अद्भुत शहादत का गुमान और एक बूढ़े गांधी द्वारा उसे बचाए न जा सकने की शिकायत एक साथ मौजूद रहती है।
आज न तो भगत सिंह हमारे बीच हैं ना गांधी। हम भारतमाता के दोनों सपूतों को नमन करते हैं । आज जब इंटरनेट के युग में सब कुछ पब्लिक डोमेन में है। किसने क्या भूमिका निभाई? भगतसिंह की डायरियों, तत्कालीन पुस्तकों में और अदालतों के अभिलेखों में सभी की भूमिकाएं दर्ज हैं। उन्हें हम चाहकर भी बदल नहीं सकते।
( नोट- प्रस्तुत लेख में कुछ अंश गांधी शांति प्रतिष्ठान के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कुमार प्रशांत के भाषण से लिये हैं)
© अवधेश पांडे