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शकील अख्तर
लगता है वह समय आने वाला है जब सिवाय भक्त होने के और कोई चीज गर्व करने लायक नहीं बचेगी! कभी देश में सबसे गर्व करने वाला काम खेती माना जाता था। हालांकि खेती किसानी के साथ बहुत सारी समस्याएं थीं। किसानों की हालत खराब थी। मगर फिर भी दूसरे कामों के मुकाबले खेती को आजाद काम माना जाता है। स्वतंत्र जीने की एक संभावना के तौर पर देखा जाता था। कहा जाता था-
" उत्तम खेती मध्यम बान
निषिद चाकरी भीख निदान! "
मगर आज खेती करने वाला सड़क पर पड़ा हुआ है। उसने पूस की रात खेत पर जाड़े से कंपकंपाते भी बिताई। फसल भी गई। मगर भरोसा रहा कि खेत तो है। आज उसे न फसल का भरोसा है न खेत का। उपर से इल्जाम भी उसी पर हैं कि वह दंगा कर रहा है, फसादी है। खालिस्तानी है, मवाली है। केन्द्र सरकार, सत्ताधारी पार्टी भाजपा और मीडिया उसे समाज के सबसे खराब इंसान के तौर पर प्रचारित कर रही है।
क्यों? क्योंकि जमींदार, साहूकार, सरकार सबसे से भुगतता रहा किसान कारपोरेट को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मोदी सरकार को लगा था कि जो किसान सदियों से अन्याय और शोषण को सहता रहा है इन किसान कानूनों को भी स्वीकार कर लेगा। किसान मूक प्राणी है। मगर ये कानून इतने खतरनाक थे कि किसान जो मूक के साथ मूढ़ भी माना जाता है एक मिनट में समझ गया कि कारपोरेट के हाथ में जाने का मतलब है हमेशा के लिए अपने खेतों से हाथ धोना। ये कुछ ऐसा ही है कि आदमी चाहे जितना नासमझ हो मगर कुएं में गिरने का मतलब तो जानता ही है। किसान ने सब दुःख उठाए, जुल्म सहे मगर ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसे अपने खेतों की मिल्कियत जाती लगी हो। यह पहली बार था।
सम्पूर्ण पैमाने पर। इससे पहले भूमि अधिग्रहण कानून के समय भी डर उसके मन में बैठा। मगर वह सारी जमीन का नहीं था। कुछ हिस्सा उद्धोगपतियों के लिया जा रहा था तो वह थोड़ा निशंक था। फिऱ भी घबराया हुआ तो था। लेकिन उस समय राहुल गांधी ने जो लड़ाई लड़ी वह अनायास इस नई लड़ाई की प्रेरणा बन गई। किसान नेता राकेश टिकैत ने आखिर कहा ही कि भूमि अधिग्रहण कानून केवल राहुल गांधी की वजह से मोदी सरकार को वापस लेना पड़ा। राहुल ने किसानों की जमीन उनकी मर्जी के बिना लेने के उस कानून का जबर्दस्त विरोध किया था।
खुद कांग्रेसी तो 2014 से पहले दस साल किए अपनी सरकार के कामों को ही नहीं बता पाते। कैसे यूपीए सरकार ने किसानों की कर्ज माफी करके उन्हें ऋण जाल से निकाला था। कैसे मनरेगा के जरिए गांव देहात की अर्थव्यवस्था बदल दी थी। किस तरह मध्यम वर्ग इन दोनों फैसलों के खिलाफ था मगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी टस से मस नहीं हुईं। इसी तरह वह यह भी नहीं बता पाया कि 2014 में आते ही मोदी सरकार के लाए भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ राहुल किसा तरह अड़ गए थे। और बिल वापस करवाकर ही माने।
किसानों की हिम्मत का एक बड़ा कारण यह भी था कि जब भूमि अधिग्रहण कानून वापस हो सकता है तो यॆ कृषि कानून क्यों नहीं? इसीने उसे हौसला दिया। और वह दस महीने से सड़क पर डटा हुआ है। भारत का सबसे लंबा आंदोलन। जिससे देश की सत्तर प्रतिशत से ज्यादा आबादी प्रभावित होती है। प्रभावित भी ऐसी वैसी नहीं अगर ये कानून लागू हो गए तो देश में खेती की तस्वीर हमेशा के लिए बदल जाएगी।
जैसा भारत के पहले कृषि वैज्ञानिक. विशेषज्ञ घाघ ने कहा था कि उत्तम खेती, वह एक झटके से खतम होकर निषिद चाकरी और भीख निदान के स्तर पर आ जाएगी। किसान खुद अपनी जमीन पर नौकर हो जाएगा और फसल आने पर उसे खरीदने के लिए कारपोरेट से भिखारी की तरह याचनाएं करेगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा और कारपोरेट जिस कीमत में चाहे उसमें किसान की फसल लेगा। बहुत भयानक स्थिति होगी वह। एक तरफ कारपोरेट कम कीमत में किसान की फसल लेकर उसकी कमर तोड़ देगा दूसरी तरफ उसी की जमाखोरी करके उपभोक्ताओं को मनमानी कीमत में बेचेगा। किसान लगातर घाटे में, कर्ज में आकर अपनी जमीने बेचने पर मजबूर होगा। और यही कारपोरेट चाहता है। कौड़ियों के दाम उसकी जमीन बिकेगी और फिर वह अपनी जमीन पर ही नौकरी, मजदूरी करेगा।
आज का भारत बंद खाली किसानों का नहीं है, यह भारत के भविष्य का फैसला है। भाजपा को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक दल इसका समर्थन कर रहे हैं। अमेरिका तक में प्रधानमंत्री मोदी के दौरे के दौरान उनके खिलाफ और किसानों के समर्थन में नारे लग गए। बैचेनी भाजपा में भी है। मगर वहां किसी की हिम्मत नहीं हो रही जो प्रधानमंत्री मोदी को बता दे कि ये कानून कारपोरेट का मुनाफा तो आसामान में पहुंचा देंगे। मगर देश की ग्रामीण आबादी बरबाद हो जाएगी। इसे कुछ हद तक आरएसएस के किसान संगठन ने समझा है। वह बंद का समर्थन कर रहा है। इस तरह देश में मोदी सरकार और कारोपोरेट के एक हिस्से को छोड़कर कोई भी कृषि कानूनों के समर्थन में नहीं है। ध्यान देने वाली बात यह है कि कारपोरेट में भी एक हिस्सा। जिसे राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी के मित्र कहते हैं के अलावा दूसरे उद्योगपति भी इन कृषि कानूनों के पक्ष में नहीं हैं। मगर जो उद्धोगपति कभी अंग्रेजों के खिलाफ बोल गए थे आज बोलने के साहस नहीं कर पा रहे हैं। हर तरफ बैठा हुआ यह डर किस तरह देश को कमजोर कर देगा इसे कोई नहीं सोच रहा।
किसान इसी डर के खिलाफ खड़ा हुआ है। सारे मौसम उसने सड़क पर निकाल दिए। पिछले साल सर्दियों में आया था। और फिर सर्दियां आ गईं। कितने किसान मरे इसकी कोई गिनती नहीं है। एक मोटा आंकड़ा 600 से ज्यादा का है। मगर यह यहां सड़क पर आंदोलन करते हुए शहीद हुए किसानों का है। लेकिन गांव में खुले में बैठे इन किसानों की चिन्ता में परिवार के कितने लोग बीमार हुए, मर गए इसकी कोई गिनती नहीं है। एक आंदोलन पूरे परिवार को हिला देता है। आजाद भारत में ऐसे किसान आंदोलन या कोई आंदोलन इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। हां अंग्रेजों के राज में हुए। चंपारण का किसान आंदोलन जिससे गांधी जैसा नेता तप कर निकला। या अवध का किसान आंदोलन जिससे नेहरू ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की, के अलावा उस समय भी किसानों को इतनी कुर्बानियां देने की जरूरत नहीं पड़ी।
यह आंदोलन कितनी कुर्बानी लेगा, कितना लंबा चलेगा पता नहीं। मगर एक बात स्पष्ट है कि किसान अब मानने वाले नहीं। खेती में कहा जाता है कि एक मौसम चक्र होता है जिसमें जमीन रूप बदलती है। तीनों मौसम देखने के बाद किसान नई जमीन का मिज़ाज भांप लेता है। और उसीके अनुरूप जुताई, गुड़ाई करता है। उसने यहां भी तीनों मौसम देख लिए। अब वह राजनीतिक रूप से ज्यादा गहरी जुताई, गुड़ाई करेगा। उत्तर प्रदेश, पंजाब और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव उसकी प्रयोगशाला होंगे। बंगाल में उसने खुलकर भाजपा का विरोध किया था। परिणाम सामने है कि जो नेता उस समय डर कर भाजपा में चले गए थे वे वापस लाइन लगाकर ममता बनर्जी के दरवाजे पर खड़े हुए हैं।
किसान से टकराना आसान नहीं। भाजपा हमेशा व्यापारियों की पार्टी रही। मगर किसानों के विरोध में खुलकर कभी सामने नहीं आई। यह पहला मौका है जब भाजपा सरकार खुल कर कारपोरेट के समर्थन में और किसानों के विरोध में है। परिणाम क्या होगा यह भविष्य ही बताएगा। और वह भविष्य भारत के गौरव या कारपोरेट की जीत में से किसी एक का होगा।