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- गांधी करुणामय थे,...
ओम थानवी :
गांधी करुणामय थे, सदाशय थे। वे महान आत्मा इसीलिए कहलाए कि उन्होंने ने आततायियों को भी इज़्ज़त बख़्शी। उनको भी, जो अलग रास्ते पर चले।
लंदन में 1909 में सावरकर ने गांधीजी से उनके विचारों पर तकरार की थी। बरसों बाद, जब सावरकर कालकोठरी से अंगरेज़ों के सामने गिड़गिड़ा रहे थे, गांधीजी ने अंगरेज़-राज द्वारा घोषित दया-घोषणा का लाभ सावरकर को भी मिले, ऐसी अपील की।
वह उनकी दरियादिली थी, जिसे सावरकर को गांधीजी के आशीर्वाद सरीखा बताया जा रहा है। रक्षामंत्री ने तो सावरकर के माफ़ीनामों के पीछे भी गांधी को खड़ा कर दिया। यह जाने बग़ैर कि गांधीजी ने लिखकर सावरकर को स्वातंत्र्य-वीर नहीं, स्वातंत्र्य-विरोधी ठहराया था।
सही है कि गांधीजी ने अपने साप्ताहिक 'यंग इंडिया' के 26 मई, 1919 के अंक में सावरकर की रिहाई की सिफ़ारिश की। मगर क्या कहते हुए? गांधीजी ने साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा: "दोनों सावरकर भाइयों ने अपने राजनीतिक विचारों को व्यक्त कर दिया है और दोनों ने कहा है कि वे किसी भी क्रांतिकारी विचार का समर्थन नहीं करते हैं और यह भी कि यदि उन्हें छोड़ दिया जाता है तो वे सुधार क़ानून के तहत काम करेंगे ... दोनों साफ़ कहते हैं कि वे अंगरेज़ों के राज से स्वतंत्रता नहीं चाहते। बल्कि, इससे उलट, वे अनुभव करते हैं कि भारत का भविष्य अंगरज़ों के सहयोग से बेहतर सँवारा जा सकता है ..."।
गांधीजी के इस कथन को संघ-विचारक और नेता छिपा जाते हैं। वे यह भी नहीं बताते कि रिहाई के बाद सावरकर ने क्या कभी अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ गांधीजी को ग़लत साबित करने की चेष्टा की?
सचाई तो यह है कि सावरकर गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शरीक़ पाए गए थे। हत्याकांड की जाँच के लिए भारत सरकार द्वारा गठित आयोग ने अपने अंतिम निष्कर्ष में "सावरकर और उनकी मंडली (ग्रुप)" को गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र का गुनहगार ठहराया गया।
नए तथ्यों के रोशनी में पहले की जाँच — जिसके फलस्वरूप गोडसे को फाँसी हुई थी — को आगे बढ़ाते हुए भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जेएल कपूर को उस षड्यंत्र की जाँच का ज़िम्मा सौंपा था। कपूर कमीशन ने गवाहों और दस्तावेज़ों की लम्बी पड़ताल के बाद यह निष्कर्ष व्यक्त किया: "All these facts taken together were destructive of any theory other than the conspiracy to murder by Savarkar and his group." [भावार्थ: सभी तथ्यों का संज्ञान एक ही बात साबित करता है कि (गांधीजी की) हत्या का षड्यंत्र सावरकर और उनके समूह ने रचा।]
पता नहीं अब किस मुँह से उन्हीं सावरकर को गांधीजी की ही ओट देकर इज़्ज़त दिलवाने का शर्मनाक प्रयास किया जा रहा है। हालाँकि यह सिलसिला नया नहीं है। 2014 से इसकी गति बढ़ी है। मगर अब तो संविधान की शपथ लेकर आए मंत्रियों तक को इस दुष्प्रचार में झोंका जा रहा है।