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ग़ालिब न वो समझे हैं, न समझेंगे डेमोक्रेसी की मम्मी की बात!
राजेंद्र शर्मा
चचा ग़ालिब ने तो गोरों के लिए तभी कह दिया था -- ग़ालिब न ये समझे हैं, न समझेेंगे मेरी बात! जो गोरे उस शायर तक की बात नहीं समझे, जिसकी शायरी बहादुरशाह के दिल्ली दरबार में बखूबी समझी जाती थी, उनसे हम डेमोक्रेसी की इतनी पुरानी मम्मी की बात को, उसके तौर-तरीकों को, उसकी डेमोक्रेसी की डिलीवरी को, समझने की उम्मीद कर ही कैसे सकते हैं। इसलिए, वीडैम इंस्टीट्यूट वाले मोदी जी के इंडिया को चुनावी निरंकुश राज कहते हैं, तो कहते रहें। या ''फ्रीडम हाउस'' वाले मोदी जी के इंडिया को 'आंशिक रूप से स्वतंत्र' बताते हैं, तो बताते रहें। मोदी जी का इंडिया ऐसे-वैसों की बातों का बुरा नहीं मानता। नोटिस लेता भी है, तो इंडिया वालों को यह याद दिलाने के लिए कि यह सब तो डेमोक्रेसी की मम्मी को बदनाम करने का षडयंत्र है।
सच पूछिए तो ऐसा लगता है कि इन गोरों की भी समझ में आ गया है कि मोदी जी के इंडिया से भी, उन्हें जवाब में हर बार यही सुनने को मिलेगा। वो पट्ठे भी इसे खेल की भावना से ही लेते हैं और मजाल है, जो डेमोक्रेसी की मम्मी की इन गालियों का रत्तीभर बुरा मानते हों। उल्टे वो भी हर साल वही चुनावी निरंकुश तंत्र या आंशिक रूप से स्वतंत्र का फैसला दोहराते हैं और डेमोक्रेसी की मम्मी से एक बार फिर गालियां खाते हैं। पर बुरा तनिक भी नहीं मानते हैं। डेमोक्रेसी की मम्मी के प्रवक्ताओं के मुंह से निकली गालियों का बुरा कौन मानता है जी --इतने शीरीं हैं तिरे लब कि रक़ीब, गालियां खा के बेमज़ा न हुआ!
पिछली बार, यानी 2021 में भी उन्होंने डेमोक्रेसी की मम्मी को आंशिक रूप से स्वतंत्र ही बताया था और तब भी मम्मी ने षडयंत्रकारी कहकर उन्हें यूं ही गरिआया था। वैसे वह तो फिर भी अमृतकाल लगने से पहले की बात थी। बहुतों को उम्मीद भी थी कि कम-से-कम अमृतकाल में ये लोग डेमोक्रेसी की ऐसी नाप-जोख से बाज आएंगे और मम्मी को नाप-तौल के चक्करों से ऊपर बैठाएंगे। पर वो कहां समझने वाले थे! और मामला इंडिया का होता तो मोदी जी-शाह जी, सारे फंंड-वंड बंद कराके और आईटी, सीबीआई, ईडी की धाड़ पड़वा कर, दो दिन में ऐसा समझा देते कि मम्मी का छोड़ो, डेमोक्रेसी के बच्चों तक का नाप लेना भूल जाते। मगर कोई स्वीडन की यूनिवर्सिटी, तो कोई अमरीका का थिंक टैैंक, ईडी-सीबीआई वाले धाड़ डालने सात समंदर पार जाएं भी तो कैसे? मोदी जी के इंडिया के विदेश मंत्री जी, दोस्ती का हवाला देकर, वहां वालों से धाड़ पड़वाएं भी तो कैसे? स्वीडन, अमरीका वाले दूर से ही हाथ खड़े कर देेंगे : साहब क्यों हमारी नौकरी पर लात मारते हो। आपकी तरह हमारे पास डेमोक्रेसी की मम्मी थोड़े ही है। नतीजा यह कि 2022 में भी यानी भरे अमृतकाल की बीच, गोरे मोदी जी के नये इंडिया को कोई आंशिक रूप से स्वतंत्र तो कोई चुनावी निरंकुश राज बता रहे हैं और डेमोक्रेसी की मम्मी के प्रवक्ताओं से, मुंहझोंसो तुम क्या खाके समझोगे की लताड़ें खा रहे हैं!
पर डेमोक्रेसी की मम्मी जी भी इन राहुल गांधी जैसों का क्या करें, जो दूसरे देशों में जाकर, मोदी जी के नये इंडिया के खोट गिना रहे हैं। अडानी-अडानी नहीं करना है, नहीं करें। मोदी-मोदी करने का भी मन नहीं है, नहीं करें। पर ये कैसे मातृद्रोही हैं, जो डेमोक्रेसी की मम्मी को, मम्मी कहने में भी सकुचा रहे हैं ; बच्चों के आगे और वह भी विदेशी बच्चों के आगे, डेमोक्रेसी की मम्मी की शिकायतें लगा रहे हैं। और शिकायतें भी कैसी? कहते हैं, सब माल दोस्तों की जेब में डाला जा रहा है। संसद में विरोधियों का माइक बंद किया जा रहा है। सड़क पर विरोधियों को जेल में डाला जा रहा है। कपड़ों से पहचान कर, पहले बहुत से लोगों को पराया बनाया जा रहा है और फिर परायों के घरों, दूकानों वगैरह पर बुलडोजर चलाया जा रहा है। और यह सब डेमोक्रेसी की मम्मी का नाम जपते हुए किया जा रहा है! यह डेमोक्रेसी की मम्मी को, मम्मी के आसन से हटाने की कोशिश नहीं तो और क्या है? मोदी से लड़ने के चक्कर में डेमोक्रेसी की मम्मी का ही तख्तापलट करने की कोशिश को एंटीनेशनलता नहीं तो और क्या कहा जाएगा! नागपुरी भाई चाणक्य का इतिहास सुधार कर उससे अब सही ही तो कहलवा रहे हैं --गोरी महिला का बेटा...।
पर बेचारी डेमोक्रेसी की मम्मी को, मम्मी-मम्मी करने वाले उनके बच्चों ने ही कन्फ्यूज कर के रख दिया है। मोदी जी की ही पार्टी के डेमोक्रेसी के दो सिपहसालारों ने, मम्मी जी का हाथ खींच-खींचकर, मेरी सुनो, मेरी सुनो के चक्कर में, मम्मी के सिर में दर्द कर दिया है। एक हैं दुब्बे जी। कह रहे हैं कि प्रभु श्री मोदी के लिए संसद में दुर्वचन कहने के लिए, राहुल गांधी के लिए इतनी सजा काफी नहीं है कि संसद के रिकार्ड से उनकी बातें हटा दी गयीं। राहुल गांधी को ही संसद से हटाया जाना चाहिए, जिससे कोई फिर से संसद में प्रभु की बेअदबी नहीं कर सके। पर दूसरी तरफ से डेमोक्रेसी की मम्मी का हाथ खींच रहीं हैं, मैडम प्रज्ञा। एक तो भगवाधारी और उस पर ठकुराइन। बम-वम की बातें ऊपर से। वो डेमोक्रेसी की मम्मी से कह रही हैं कि संसद से बाहर करने से भी क्या होगा? पब्लिक का क्या भरोसा, फिर चुन दिया तो! अगले को देश से ही बाहर करो। सिंपल है, पासपोर्ट रद्द कर दो, देश में आने ही मत दो। डेमोक्रेसी की मम्मी के घर में अगर रहना होगा, तो मम्मी का जयकारा तो करते रहना होगा!
अब कोई वीडैम वाला, कोई फ्रीडम इंस्टीट्यूट वाला डेमोक्रेसी के इतने ऊंचे लेवल को क्या समझेगा कि डेमोक्रेसी की मम्मी के यहां, एंटीनेशनलों को सजा देने तक के लिए, कई-कई विकल्प हैं। अगर देश के अंदर ही रहने वालों के लिए रेड, जेल, दलबदल वगैरह, कई-कई आप्शन हैं, तो जो बंदा विदेश में पहुंच जाए उसके लिए भी सदस्यता खत्म, नागरिकता खत्म वगैरह, कई-कई आप्शन हैं। मम्मी जी सजा में आप्शन दिला रही हैं और ये फ्रीडम इंस्टीट्यूट वाले आंशिक रूप से स्वतंत्र बता रहे हैं। और वह भी तब जबकि अमरीकी सरकार से पैसा उठा रहे हैं। लगता है कि मोदी जी को अमेरिकियों के लिए सामने से शर्त लगानी ही पड़ेगी; हमसे चीन को घिरवा लो या स्वतंत्रता को आंशिक से पूर्ण करवा लो! खैर! जब तक अमरीका-वमरीका सुधरते नहीं हैं, तब तक चचा तो साथ हैं ही -- ग़ालिब न वो समझे हैं, न समझेंगे डेमोक्रेसी की मम्मी की बात।
(इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)