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अविश्वास पस्ताव पर सरकार तो बच गई, लेकिन सरकार का इकबाल गिर गया

अविश्वास पस्ताव पर सरकार तो बच गई,  लेकिन सरकार का इकबाल गिर गया
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अनिल जैन
लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के गिरने पर शायद ही किसी को हैरानी हुई होगी। जिन विपक्षी दलों ने अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस दिए थे, उन्हें भी यह गलतफहमी कतई नहीं थी कि उनके प्रस्ताव से सरकार गिर जाएगी। इसके बावजूद सत्ताधारी खेमे में अविश्वास प्रस्ताव के पेश होने से लेकर उस पर मत-विभाजन होने तक जिस तरह की बेचैनी और बदहवासी तथा बहस के दौरान जो बौखलाहट दिखाई दी, वह हैरान करने वाली रही। इससे भी ज्यादा हास्यास्पद और हैरान करने वाला वह मुदित और आनंदित भाव रहा जो अविश्वास प्रस्ताव गिरने के बाद सत्तापक्ष के महारथियों और रथियों के चेहरे पर तैरता दिखा।
दरअसल, अविश्वास प्रस्ताव पर बहस और मतदान का दिन नियत होते ही सरकार और सत्तारुढ दल के प्रचार तंत्र ने कारपोरेट नियंत्रित मीडिया की मदद से पूरे देश में यह माहौल बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी कि विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव के जरिये नरेंद्र मोदी की 'लोकप्रिय' और 'विकासवादी' सरकार को गिरा कर देश में अस्थिरता पैदा करना चाहता है। लेकिन इस कोशिश में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि संसदीय लोकतंत्र की जितनी समझ सत्तारुढ दल के वाचाल प्रवक्ताओं से लेकर शीर्ष नेतृत्व तक को है, उतनी ही या उससे थोडी कम-ज्यादा समझ राजनीति की औसत समझ रखने वाले आम लोगों को भी है।
सबको मालूम था कि यह कोई पहला मौका नहीं है कि जब सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जा रहा है। पिछले 67 सालों में किसी भी सरकार के खिलाफ यह 27वां अविश्वास प्रस्ताव था। सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में पेश हुए। लालबहादुर शास्त्री ने भी अपने छोटे से कार्यकाल में तीन बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया था। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के जरिये न तो इंदिरा गांधी की सरकार गिरी और न ही लालबहादुर शास्त्री की।
संसदीय लोकतंत्र में हर अविश्वास प्रस्ताव का मकसद सरकार को गिराना नहीं होता। इसका मुख्य उद्देश्य होता है देशहित के विभिन्न मसलों पर सरकार की जवाबदेही रेखांकित करना और सरकार के चाल-चलन पर सवाल उठाना। इसी मकसद से संसद में विपक्षी दल अक्सर काम रोको प्रस्ताव भी लाते हैं, जिसका मकसद कोई काम रोकना नहीं होता, बल्कि तात्कालिक महत्व के किसी मसले पर सरकार को घेरना ही होता है। मोदी सरकार के खिलाफ पेश किए अविश्वास प्रस्ताव का मकसद भी सरकार को सवालों के कठघरे में खडे करने तक ही सीमित था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में विपक्ष के इस 'लोकतांत्रिक हथियार' का जिस तरह मखौल उडाया, उससे यही जाहिर हुआ कि वे न सिर्फ अपने को किसी भी तरह के सवालों से परे मानते हैं, बल्कि संसदीय लोकतंत्र को भी महज चुनावी हार-जीत से ज्यादा कुछ नहीं समझते।
चूंकि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले 13 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री भी रहे हैं और प्रधानमंत्री के रुप में भी वे चार साल पूरे कर चुके हैं, लिहाजा यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे सामान्य संसदीय परंपराओं से अनजान होंगे या उन्हें अविश्वास प्रस्ताव का मतलब नहीं मालूम होगा। फिर भी उन्होंने अपने भाषण के दौरान अविश्वास प्रस्ताव की शाब्दिक व्याख्या ही की और यह जताने की हास्यास्पद कोशिश की कि यह प्रस्ताव उनकी सरकार को गिराने तथा देश को अस्थिर करने के मकसद से लाया गया है। यह जानते हुए भी कि यह अविश्वास प्रस्ताव चंद महीनों पहले तक उनके गठबंधन की सहयोगी रही तेलुगू देशम पार्टी की ओर से लाया गया है, प्रधानमंत्री ने अपनी दलील को पुख्ता करने और कांग्रेस पर निशाना साधने की गरज से कुछ पुराने उदाहरण पेश किए। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, एचडी देवगौडा और इंदर कुमार गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों को भी अविश्वास प्रस्ताव के जरिये गिराने का पाप किया था। हालांकि यहां भी मोदी हमेशा की तरह अपनी आदत के मुताबिक गलतबयानी कर गए। हकीकत यह है कि चरण सिंह और चंद्रशेखर ने अपनी सरकार के अल्पमत में आने पर अविश्वास प्रस्ताव का सामना किए बगैर ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। मोदी को ये सारे गलत-सलत उदाहरण तो याद रहे लेकिन उन्हें शायद यह मालूम नहीं है कि भारतीय संसद में पहला अविश्वास प्रस्ताव 1963 में जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ आचार्य जेबी कृपलानी ने पेश किया था, जिसके पक्ष में महज 62 वोट पडे थे। उस अविश्वास प्रस्ताव पर उस समय लोकसभा में नए-नए आए डॉ. राममनोहर लोहिया ने अकाट्य तर्कों और तथ्यों के साथ जो भाषण दिया था, उसने नेहरू के दमकते हुए आभामंडल को बुरी तरह निस्तेज कर दिया था। लोहिया का वह ऐतिहासिक भाषण आज 55 साल बाद भी भारत के संसदीय इतिहास का एक अहम दस्तावेज है।
इस समय भी लोकसभा में विपक्ष की स्थिति संख्या बल के लिहाज से देखें तो 1963 के मुकाबले कोई बेहतर नहीं है। गुणवत्ता के लिहाज से तो बेहद दयनीय है ही। इसलिए विपक्ष को भी मालूम था कि उसके अविश्वास प्रस्ताव से सरकार का कुछ नहीं बिगडना है। इसके बावजूद उसने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया तो महज इसलिए कि इस पर होने वाली बहस के माध्यम से वह देश को सरकार के चाल-चलन को लेकर आगाह कर सके और यह बता सके कि सत्तापक्ष ने जो वायदे जनता से किए थे, वे पूरे नहीं हुए हैं। ऐसा करना विपक्ष का अधिकार भी और कर्तव्य भी। इसलिए प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों तथा उनके ही सुर-ताल पर कूल्हे मटकाने वाले मीडिया का यह विलाप बेमतलब है कि विपक्ष सरकार को गिराने के मकसद से अविश्वास प्रस्ताव लाया था।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में सिर्फ अविश्वास प्रस्ताव का ही उपहास नहीं उडाया, बल्कि वे उन सारे सवालों का जवाब देने से भी बचते दिखे जो विपक्ष ने बहस के दौरान उठाए थे। एक राजनेता के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'ख्याति' भले ही एक कामयाब मजमा जुटाऊ भाषणबाज के तौर पर रही हो, लेकिन उन पर यह 'आरोप' कतई नहीं लग सकता है कि वे आमतौर पर एक शालीन और गंभीर वक्ता है! चुनावी रैली हो या संसद, लालकिले की प्राचीर हो या फिर विदेशी धरती, मोदी की भाषण शैली आमतौर पर एक जैसी रहती है- वही भाषा, वही अहंकारयुक्त हाव-भाव, राजनीतिक विरोधियों पर वही छिछले कटाक्ष, वही स्तरहीन मुहावरे। आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर गलत बयानी, तथ्यों की मनमाने ढंग से तोड-मरोड, सांप्रदायिक तल्खी और नफरत से भरे जुमलों तथा आत्म प्रशंसा का भी उनके भाषणों में भरपूर शुमार रहता है। इस सिलसिले में बतौर प्रधानमंत्री उनके पिछले पौने चार साल के और उससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दिए गए उनके ज्यादातर भाषणों को भी देखा जा सकता है। अविश्वास प्रस्ताव पर उनका भाषण भी ऐसा ही रहा, जिसमें न तो न्यूनतम संसदीय मर्यादा व शालीनता का समावेश था और न ही प्रधानमंत्री पद की गरिमा व लोकतांत्रिक परंपरा का।
अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, किसानों की समस्या, देश में बढती भीड की हिंसा (मॉब लिंचिंग), जम्मू-कश्मीर की स्थिति, सभी पडोसी देशों से तनाव भरे रिश्ते, रॉफेल विमान सौदे पर उठा विवाद आदि कई मसले थे, जिन पर देश अपेक्षा कर रहा था कि प्रधानमंत्री कुछ ठोस और समाधानकारक बोलेंगे, लेकिन प्रधानमंत्री ने देश को निराश किया। उन्होंने संसदीय मंच का इस्तेमाल भी चुनावी रैली की तरह ही किया। वही यूरिया, एलईडी बल्ब, गैस के चूल्हे, सर्जिकल स्ट्राइक की घिसी-पिटी बातें। उनके बगल में बैठें राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज की मुखमुद्राएं भी मोदी के भाषण को ऊबाऊ और बेजान बताती प्रतीत हो रही थीं।
प्रधानमंत्री अपने भाषण के जरिये अपनी पार्टी के सांसदों की तालियां और मीडिया की सस्ती सुर्खियां बटोरने के मकसद से नाटकीयता भरे भावुक अंदाज में अपनी तथाकथित गरीब पारिवारिक पृष्ठभूमि का हवाला देना भी नहीं भूले। इस सिलसिले में उन्होंने नामदार बनाम कामदार और चौकीदार बनाम भागीदार जैसे जुमलों के जरिये राहुल तथा नेहरू -गांधी परिवार पर जमकर कटाक्ष किए और अपने सांसदों को मेजें थपथपाने के लिए प्रेरित किया।
अविश्वास प्रस्ताव पर हुई पूरी बहस का एक दिलचस्प पहलू यह भी रहा कि अविश्वास प्रस्ताव के जिस नोटिस को लोकसभा अध्यक्ष ने बहस के लिए मंजूर किया था, वह तेलुगू देशम पार्टी की ओर से दिया गया था और बहस की शुरुआत भी तेलुगू देशम के सदस्य ने ही की। लेकिन प्रधानमंत्री ने अपने 80 मिनट के भाषण में अधिकांश समय हमेशा की तरह कांग्रेस को और खासकर नेहरू-गांधी परिवार को निशाना बनाने में ही खर्च किया। तेलुगू देशम की ओर से आंध्र प्रदेश के विभाजन से संबंधित उठाए गए मुद्दों को उन्होंने बहुत ही सरसरी तौर पर छुआ।
सत्तापक्ष के दूसरे वक्ताओं ने भी सरकार का पक्ष रखते हुए ऐसा कुछ नहीं कहा, जिससे कि विपक्ष के उठाए सवालों का जवाब मिलता। सभी ने प्रकारांतर से प्रधानमंत्री का स्तुति गान ही किया। अलबत्ता गृह मंत्री की हैसियत से राजनाथ सिंह ने जरुर अगर-मगर लगाते हुए मॉब लिंचिंग के मुद्दे को छुआ, लेकिन वे ऐसी घटनाओं में लिप्त लोगों को कोई सख्त संदेश देने से साफ बचते दिखे। उन्होंने मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर चिंता तो जताई लेकिन 1984 की सिख विरोधी हिंसा को याद करते हुए, जिसकी कि कोई जरुरत नहीं थी। अगर उन्हें 1984 का जिक्र करना जरुरी लगा था तो फिर इस सिलसिले में 2002 के गुजरात को तथा खालिस्तानी आतंकवादियों के हाथों पंजाब के 50 हजार से अधिक निदोर्षों के मारे जाने को कैसे भुलाया जा सकता है?
अविश्वास प्रस्ताव के दौरान लोकसभा अध्यक्ष की जो भूमिका रही, वह तो एक अलग ही व्यापक बहस की दरकार रखती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विपक्ष जिस मकसद से अविश्वास प्रस्ताव लाया था, उसमें आंशिक तौर पर ही सफल रहा। जबकि सत्तापक्ष दबे हुए और डरे हुए मीडिया के जरिये अपने को विजेता दिखाने में कामयाब रहा। अविश्वास प्रस्ताव से सरकार तो गिरना नहीं थी, सो वह नहीं गिरी लेकिन सरकार में बैठे लोग अपने को गिरा हुआ दिखाने से नहीं बच सके।
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