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- हिन्दी साहित्य और पैसा...
हिन्दी साहित्य और पैसे का छत्तीस का आँकड़ा है। पैसे का जिक्र आते ही हिन्दी साहित्य की शान्ति में खलल पड़ जाता है। यहाँ गरीबी जीवन-मूल्य की तरह स्थापित है। लोग भूल जाते हैं कि समूचा बौद्धिक कर्म एक मध्यमवर्गीय उद्यम है। तोल्सतोय या रवींद्रनाथ ठाकुर की तरह पैसे-रुपये से बेफिक्र होकर लिखने का सौभाग्य तभी मिलता है जब आपके पास पुश्तैनी जमीन-जायदाद हो। दूसरी सुखद स्थिति है कि आप कोई अच्छी नौकरी कर रहे हों और बचे हुए समय में रुपये-पैसे से बेफिक्र होकर नेम और फेम के लिए अतिरिक्त उद्यम कर रहे हों।।
'मुझे चाँद चाहिए' जैसी मशहूर किताब लिखने वाले लेखक सुरेंद्र वर्मा ने एक पीएचडी छात्र से साक्षात्कार के लिए 25 हजार रुपये मांग लिये। छात्र इतना शरीफ था कि पैसे तो नहीं दिये बल्कि वर्मा जी की बातचीत रिकॉर्ड करके वाटसेप पर घुमा दी। अगर ये शोधार्थी अमेरिका में होता तो इस हरकत पर उसे लेखक को मोटा हर्जाना देना पड़ जाता। छात्र को इस बात का शुक्रगुजार होना चाहिए कि हिन्दी लेखक अभी उस स्तर तक नहीं पहुँचे हैं कि ऐसे मामलों को अदालत में ले जाएँ।
इस तरह के शोध छात्रों में अभी यह समझ नहीं आयी है कि किसी की अनुमति के बगैर उसकी कॉल रिकार्ड नहीं करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि मुझे भी बचपन से यह ज्ञान था। बीबीसी हिन्दी में हमें सिखाया गया कि किसी से बातचीत रिकॉर्ड करें तो उसे यह जरूर बतायें कि हम यह बातचीत रिकॉर्ड कर रहे हैं।
शोध छात्रों के यह भ्रम भी साफ कर लेना चाहिए कि वो शोध करके लेखक पर कोई अहसान करते हैं। पीएचडी के दम पर स्थापित होने वाले लेखक आम तौर पर आला दर्जे के लेखक नहीं होते। आला लेखकों के दम पर पीएचडियाँ खड़ी होती हैं। सुरेंद्र वर्मा ने सही सवाल किया कि 'क्या मैंने आपसे मुझपर पीएचडी करने के लिए कहा था?' जिसे जिस विषय पर पीएचडी करना हो करे लेकिन यह लेखक की मर्जी है कि वह शोधार्थी को समय देना चाहता है या नहीं। लेखक ही क्या, यह हर व्यक्ति की आजादी है वो अपना टाइम किसको और कैसे देगा। लिखने-पढ़ने वाला आदमी हर किसी को समय देता रहेगा तो लिखेगा-पढ़ेगा कब?
इस पूरे संवाद से जाहिर है कि 80 वर्षीय सुरेंद्र वर्मा जी के जीवन की मूल चिन्ता है, पैसा। जिस पैसे से उनकी दवा-दारू आती होगी। दाना-पानी चलता होगा। फोन-पानी का बिल भरते होंगे। अन्य जरूरी जिम्मेदारियाँ होंगी। आज के जमाने में 'पैसा हाथ का मैल है', वही कहेगा जिसके हाथ में पैसा कमाते समय मैल नहीं लगता। कुछ लोग लेखक को एक साधारण व्यक्ति की तरह देखने के बजाय ईसा मसीह की तरह देखने के आदी हो चुके हैं। जाहिर है कि ऐसे ज्यादातर लोग अक्सर दूसरों को ही सूली पर चढ़वाने में हाथ बँटाते हैं, खुद नहीं चढ़ते।
जरूरी नहीं कि हर लेखक सुरेंद्र वर्मा की राह पर चले। सबकी अपनी स्थितियाँ-परिस्थितियाँ होती हैं। अनुपम मिश्र ने शानदार किताबें लिखीं लेकिन उनको कॉपीराइट फ्री कर दिया। निजी तौर पर मुझे जिस तरह का लेखन पसन्द है उसके लिए जरूरी है कि हम अपनी रोजीरोटी को लेखन से अलग रखें। लेकिन अंततोगत्वा यह लेखक का चुनाव है कि वो कौन सा रास्ता चुनना चाहता है। जीवनयापन के लिए एक निश्चित आमदनी तो हर किसी को चाहिए।
यह ध्यान रहे कि फोकट में लिखने से कोई महान लेखक नहीं बन जाता, न ही पैसे लेकर लिखने से किसी का लेखन खराब हो जाता है। जो लेखक अपनी रोजीरोटी के लिए लेखन पर निर्भर हैं, उन्हें पारिश्रमिक माँगने से बिल्कुल नहीं झिझकना चाहिए। मुझे सचमुच अच्छा लगा कि सुरेंद्र वर्मा ने यह बात साफ तौर पर कहने का साहस दिखाया। हिन्दी लेखकों के भविष्य के लिए यह शुभसंकेत है।
लेखक - रंगनाथ सिंह ( पत्रकार )