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चाय वाले पीएम हिटलर तो नहीं, फिर प्रॉब्लम क्या है?
अभिषेक श्रीवास्तव जर्न�
8 Feb 2018 1:55 AM GMT
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कल मैं बेरोज़गारी पर हिटलर के किए काम को पढ़ रहा था। मार्क वेबर, गराटी और गाल्ब्रेथ जैसे विद्वानों द्वारा जर्मनी में रोजगार संबंधी हिटलर की नीतियों पर बहुत सकारात्मक लिखा गया है। ठीक उसी वक्त अमेरिका में रूसवेल्ट ने सत्ता संभाली थी। दोनों अपने-अपने देश के बारह साल तक मुखिया रहे। रूसवेल्ट के 'न्यू डील' नामक कार्यक्रम का कोई खास असर बेरोज़गारी पर नहीं पड़ा लेकिन हिटलर ने बेरोज़गारी दूर करने के कई नवीन प्रयोग किए। भारत में अमेरिका के राजदूत रहे जॉन केनेथ गाल्ब्रेथ ने इसके बारे में विस्तार से लिखा है।
हिटलर 1933 में जर्मनी की सत्ता में आया था। उसके शासन संभालते वक्त वहां करीब पैंसठ लाख लोग बेरोज़गार थे। तीन साल के राज के बाद महज डेढ़ लाख लोग बेरोज़गार रह गए। चार साल बाद कहते हैं कि बेरोज़गारी समाप्त हो गई। अपने प्रधानजी अगर हिटलर होते तो कम से कम बेरोज़गारी को लेकर उनके पास पकौड़ा नीति के अलावा कोई और ठोस पैकेज होता। उनके हाथ में कुछ नहीं है। लोग जबरन उनको हिटलर कहते हैं। मुझे कल वास्तव में ऐसा लगा कि ये बात गलत है। वे हिटलर नहीं हैं। हो ही नहीं सकते। हम लोग जबरन हिटलर बोल-बोल के उनका भाव बढ़ाए हुए हैं। ये सब बेकार की बात है।
वे हिटलर की घटिया नकल भी नहीं हैं। उनकी बुनियादी दिक्कत ये है कि वे एक आम चाय विक्रेता की चेतना और नोस्टेल्जिया से अब तक आगे नहीं बढ़ पाए हैं। इसीलिए चाय-पकौड़े पर ज़ोर रहता है। इसमें उनकी गलती भी नहीं है। जो जितना पढ़ा-लिखा है, जो काम किया है, उसी के हिसाब से सोचेगा। वर्ग-चेतना भी कोई चीज़ होती है कि नहीं? प्रॉब्लम क्या है?
अभिषेक श्रीवास्तव जर्न�
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