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इतिहास का बग़ौर अध्ययन करें तो यह नतीजा निकाला जा सकता है कि यहूदी समुदाय केवल प्रवासी की स्थिति में ही उन्नति और विकास कर सकता है
ऐल्बर्ट आइन्स्टायन का नाम कौन नहीं जनता,, आज का दिन उनके और फ़िज़िक्स के हवाले से बहुत ही महत्वपूर्ण है। 26 सितम्बर 1905 के Annalen der Physik नामक जर्नल के अंक में उनके "The Annus mirabilis papers" नाम से चार शोध पत्र प्रकाशित हुए थे। इन लेखों ने आधुनिक भौतिकी में एक इंक़िलाब बरपा कर दिया था।
—इन शोध पत्रों पर आगे चर्चा होगी।
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इतिहास का बग़ौर अध्ययन करें तो यह नतीजा निकाला जा सकता है कि यहूदी समुदाय केवल प्रवासी (Diaspora) की स्थिति में ही उन्नति और विकास कर सकता है। इस संदर्भ में इस्लाम को यह शरफ़ हासिल है कि केवल उसकी रियासतों में यहूदी अपना उत्कर्ष दे सके। इस हवाले से हम देखते हैं कि इन रियासतों ने अपने आधीन बसने वाली यहूदी आबादी और समाज के साथ एक प्रकार की रवादारी की नीति अपनायी और ऐसा वातावरण दिया ताकि वे भी ज्ञान-विज्ञान के विकास और प्रसार में अपना योगदान दे सकें।
इसके विपरीत मध्य काल में ईसाई रियासतों में यहूदियों का उत्पीड़न और नरसंहार की अनेक घटनाएँ हुई हैं लेकिन इसके बावजूद यहूदी समाज की उपस्थिति तमाम "शोबों" में साफ़ दिखायी देती है। लेकिन सही अर्थों में 17 वीं शताब्दी से यूरोप ने यहूदियों के potential को पहचाना और एक बेहतर माहौल देने की कोशिश शुरू की गयी।
यहाँ पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भारत, चीन सहित अन्य स्थानों पर यहूदियों के आबादियाँ रहीं हैं और रवादारी की रवायत के बावजूद इन सभ्यताओं के मध्य यहूदी योगदान शून्य है। भारत में यहूदी समुदाय अगर कुछ बेहतर करने की स्थिति में दिखायी देता है तो मुस्लिम और ब्रिटिश आगमन के बाद ही ऐसा सम्भव हो सका है।
इस्लामी रियासतों की रवादारी का नतीजा था कि यहूदियों की आबादियाँ समय के "मसायब" बर्दाश्त करने में सक्षम हो सकीं। यद्यपि अर्नोल्ड टोयनबी द्वारा यहूदियों के लिये fossil का शब्द इस्तेमाल करने पर तीखी आलोचना की गयी थी लेकिन अगर मध्य पूर्व के मध्य काल से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक के घटनाक्रम पर ग़ौर करें तो यह बात सत्य प्रतीत होती है।
— असगर मेंहदी