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बुद्धिजीवियों और राजनीतिक प्रेक्षकों को पाखण्ड से परहेज करना चाहिए
रंगनाथ सिंह
सुबह से सोच रहा हूँ कि वो लोग कितने मासूम हैं जो सीपीआई के किसी नेता के कांग्रेस में जाने पर स्यापा कर रहे हैं। जो पूरी पार्टी कई दशकों से कांग्रेस के साथ गलबहियाँ किए बैठी है उसके किसी नेता के आधिकारिक तौर पर कांग्रेस में चले जाने पर किस बात का मातम मनाया जा रहा है! वैसे भी कांग्रेस के अन्दर हमेशा ही एक वामपंथी धड़ा मौजूद रहा है। नेहरू से वाया इंदिरा सोनिया तक, वह धड़ा कई मौकों पर बेहद प्रभावशाली भी रहा है।
सीपीआई-सीपीएम ही क्यों सीपीआईएमएल जैसे सशस्त्र-संघर्ष की विरासत वाले भी आज राजद के पार्टनर हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में सीपीआई और कांग्रेस के बीच उतना ही अन्तर है जितना जदयू और भाजपा के बीच है। घुमाकर कान पकड़ने के पाखण्ड का क्या हासिल है?
जेएनयू छात्र संघ के चुनाव में भी एआईएसएफ (सीपीआई का छात्र संगठन) की क्या हैसियत रही है, यह सभी विद्वानों को पता है। कन्हैया ने अपने भाषण के दम पर वह चुनाव जीता था न कि संगठन के दम पर। जेएनयू कैम्पस में भी वामपंथी दलों में आइसा और एसएफआई ही मजबूत हैं। कन्हैया का जेएनयूएसयू का अध्यक्ष बनना अपवाद था। कन्हैया जब परिदृश्य में आये तो जेएनयू कैम्पस से बाहर भी सीपीआई की हैसियत माकपा के जूनियर पार्टनर की हो चुकी थी।
पूरी दुनिया में वामपंथ को बुद्धिजीवियों के बीच लोकप्रिय विचारधारा माना जाता है। इक्कीसवीं सदी आते आते सीपीआई बौद्धिक इदारे में भी भारत की सबसे कमजोर वामपंथी पार्टी हो चुकी थी। सीपीआई के जमाने में वामपंथ की तरफ आकर्षित होने वाले ज्यादातर बुद्धिजीवी आपातकाल के बाद राजनीति से ज्यादा बौद्धिक जीवन को समर्पित होते गये थे।
वर्तमान की बात करें तो सीपीआई से ज्यादा माओवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाले वामपंथी दिल्ली में पाये जाते हैं। आइसा की वजह से भाकपा-माले के झण्डाबरदार भी काफी हैं। जसम-आइसा के गठन से पहले वाली पीढ़ी में सीपीएम-जलेस-एसएफआई वाले काफी हैं। कन्हैया जैसे युवा बेगुसराय-पटना में ही सीपीआई से जुड़ते हैं, दिल्ली में सीपीआई ऑउट ऑफ फैशन है।
कन्हैया को परिस्थितियों ने राष्ट्रीय फलक पर ला दिया लेकिन वो जिस पार्टी में थे उसका कोई राष्ट्रीय भविष्य नहीं दिख रहा था। ज्यादातर जानकार मान रहे थे कि कन्हैया सीपीआई छोड़कर किसी न किसी अन्य दल में जाएँगे। कन्हैया ने लालू यादव का पैर छूकर आशीर्वाद लिया था लेकिन पुत्र-मोह में शायद लालू जी ने उन्हें मनचाहा आशीर्वाद न दिया हो। 2019 के लोकसभा चुनाव लड़ने से लेकर अब तक कन्हैया ने तमाम विकल्प तौले होंगे तब जाकर फैसला लिया होगा। कन्हैया का कांग्रेस में जाना यह दिखाता है कि उनकी राजनीतिक परिपक्वता बढ़ी है। उन्हें समझ में आ गया है कि राजनीति सम्भावनाओं को साधने की कला है।
आज कांग्रेस की प्रेस-वार्ता की सबसे रोचक बात यह लगी कि हार्दिक, कन्हैया और जिग्नेश की उम्र 25 से 41 साल के बीच है। यूपी में पहले ही कांग्रेस नई उम्र के नौजवानों को विभिन्न पदों पर आगे बढ़ा चुकी है। देखना है कि कांग्रेस का यह कायांतरण क्या रंग लाता है।