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- इस्लाम ने औरतों को...
इस्लाम ने औरतों को हज़ार राइट दिए मगर मौलवी साहब के उम्मती पांच नहीं गिना पाते हैं। चुग बीन कर सिर्फ तीन बातें बताएंगे, कि लड़कियां ज़िंदा दफ्ना दी जाती थीं, लड़कियों को घर में बराबरी नहीं मिलती थी और औरतों को इज़्ज़त हासिल नहीं थी।
इनसे पूछिए अगर सब लड़कियां दफ्ना दी जाती थी तो ये सब अलाने, फलाने हवा में तैरते नुत्फे से पैदा हो गए? अगर बराबरी हासिल नहीं थी तो नबी ए करीम (सअ) ने जिस ख़दीजा के यहां नौकरी की वो अरब के सबसे बड़े कारोबार की मालिक कैसे थीं? उनके पास इतने हक़ूक़ कैसे थे कि नबी ए करीम से शादी का पैग़ाम ख़ुद भेज सकती थीं? ख़दीजा इतनी एम्पावर्ड थीं कि अपने ज़िंदा रहते नबी ए करीम को दूसरी शादी नहीं करने दी। उनके पास अपनी दौलत पर इतना अधिकार था कि अपनी उसको अपनी मर्ज़ी से अरबों का शिकम भरने के लिए दान कर सकें।
आज की औरत अपने बाप या मां से मिले ज़ेवर तक की पूर्ण मालिक नहीं। अकेली ख़दीजा नहीं थीं उस दौर में। इसके बरअक्स हिंदा को ही देखिए। वो इतनी मज़बूत है कि बद्र, उहद की जंग में मारे गए अपने मुश्रिक भाई, बाप, चचा और रिश्तेदारों के क़त्ल का बदला लेने मैदान में आ सकती है और फौजियों का उत्साह बढ़ा सकती है। लेकिन ये सब नबी ए करीम (सअ) के ज़माने की बातें हैं। उनकी रेहलत के बाद मुसलमानों ने औरतों के हक़ूक एक एक करके बढ़ाने के बजाए ख़त्म किए हैं। चलिए दलील मान ली नबी की बेटी का तरका नहीं होता लेकिन क्या मां की मीरास में भी उसका हिस्सा नहीं होता। मुसलमान फख़्र से बताते हैं हमारे नबी की बेटी चक्की चलाकर अपने बच्चों को रोटी खिलाती थीं। इसके पीछे ईमानदारी रही होगी लेकिन अरब की सबसे अमीर और सबसे बड़ी कारोबारी औरत की बेटी घरेलू दिहाड़ी पर आ गई तो सवाल आर्थिक अधिकार पर भी होना चाहिए न? हमारे दौर में कितनी लड़कियों को मुसलमान ख़दीजा बनने देंगे? चलिए ख़दीजा आपके फ्रेम में फिट नहीं होतीं तो हिंदा जितने अधिकार ही दे दीजिए।
क़ुरान में मीरास, तरके और विरासत का ज़िक्र मुसलमान बताते हुए फूले नहीं समाते लेकिन कितने लोग इसपर अमल करते हैं? कह लीजिए ज़वाल का दौर है। जिस दौर में चरस, कबूतरबाज़ी, पबजी और पतंग मर्दों को विरासत में मिल रही हैं उस दौर में औरतों को सिवा दिलासे के विरसे क्या दे सकते हैं? भगवा लव ट्रैप की फिक्र है, तीन तलाक़ पर शरियत की चिंता है मगर देने के लिए क्या है? गाली, दोयम दर्जे की ज़िंदगी और हर क़दम पर बैरियर। जब देने को सिवा गाली और क़ैद कुछ है ही नहीं किस दम पर इन्हें बांध कर रखेंगे? दो वक़्त की रोटी और सौ पचास रुपये पर? घर वापसी का गेट सिर्फ आपके लिए थोड़े है? जिधर चकाचौंध होगी उधर जाएंगी। क्यों? क्योंकि आप ही कहते हैं नाक़ेसुल अक़्ल है। जब अक़्ल नहीं तो सोचे क्यों।
- जैगम मुर्तजा ( पत्रकार)