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जहांगीरी-घंटा यानि पीएमओ शिकायत-सुझाव पोर्टल भी मात्र दिखावा ? मोदी सरकार श्रेय देना नहीं, सिर्फ लेना जानती है
डॉ राजाराम त्रिपाठी: राष्ट्रीय संयोजक, "अखिल भारतीय किसान महासंघ" (आईफा)
प्रधानमंत्री जी के पोर्टल पर सुझावों और शिकायतों पर भी नहीं हो रही कोई ठोस कार्यवाही, बस औपचारिक खानापूर्ति कर शिकायतों को कर दिया जा रहा है बंद।
*उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अपने के डेढ़ लाख शिक्षाकर्मी व अनुदेशकों को 20 सालों की सेवा के बाद भी नियमितीकरण न करने, कुशल मजदूर की मजदूरी भी न देने, चिकित्सा,बीमा, छुट्टी न देने के ऐतिहासिक शोषण की पीएमओ को शिकायत व अपील भी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई,
वरिष्ठ पत्रकार तथा जाने माने एक्टिविस्ट यशवंत (भड़ास चैनल) का निजी मोबाइल पुलिस के उच्चाधिकारियों द्वारा छीनने एवं दुर्व्यवहार की शिकायत पर भी पीएमओ द्वारा आज-पर्यंत कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई,
देशव्यापी लाकडाउन में खेती- किसानी को छूट देने का सर्वप्रथम का सुझाव दिया था बस्तर के किसान डॉ राजाराम त्रिपाठी ने,
लाक डाउन में देश के वनोपज संपदा संग्रहण और खरीदी को छूट देने भी डॉ राजाराम त्रिपाठी ने लिखा था प्रधानमंत्री को पत्र। सरकार ने सुझावों पर अमल किया और उपलब्धियों का पूरा श्रेय तो स्वयं ले लिया पर सुझाव देने वाले का कभी नाम तक नहीं लिया
"कृषक पेंशन निधि" तथा "किसान सम्मान निधि' जैसी केन्द्र सरकार की स्टार योजनाएं ,जिनके दम पर 2019 में यह सरकार सत्ता में पुनः काबिज हुई, इनकी सलाह भी डॉ त्रिपाठी ने ही दी थी।
कहा जाता है कि, मुगल काल में बादशाह जहांगीर ने लोगों को त्वरित न्याय देने के लिए किले के दरवाजे पर एक बड़ा घंटा लटकवाया था। जिसे कोई भी फरियादी दिन-रात कभी भी बजाकर सीधे मुल्क के बादशाह से अपनी शिकायत दर्ज कर न्याय प्राप्त कर सकता था। इसी जहांगीरी घंटे की तर्ज पर मोदी जी ने खूब तामझाम व प्रचार प्रसार के साथ पीएमओ पोर्टल प्रारंभ किया। सोशल मीडिया के इस प्लेटफार्म पर लोग अपनी जायज शिकायत सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंचा सकते थे और उन शिकायतों पर त्वरित कार्यवाही व निराकरण कर उन्हें राहत पहुंचाने का दावा किया गया था। इसके अलावा इस पोर्टल पर देश का हर नागरिक देश-निर्माण में अपनी सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु अपने उपयोगी सुझाव , योजनाएं सीधे अपने प्रधानमंत्री को भेज सकता था .
मोदी जी के इस पीएमओ पोर्टल का वास्तविक हस्र क्या हुआ या समझने के लिए हमें पहले इनकी कार्य प्रणाली समझना होगा। मोदी जी के पिछले लगभग 10 सालों के कार्यकाल की अगर एक वाक्य में व्याख्या करनी हो तो इसे वादों, नारों, जुमलों और भव्य आयोजनों की सरकार कहा जा सकता है। मोदी जी ने देश को भले कुछ और दिया हो अथवा ना दिया हो, लेकिन निश्चित रूप से इन्होंने कई लोकप्रिय नारे हमें दिए हैं।
इन्हीं नारों में इनका एक प्रमुख नारा था – ‘सबका साथ, सबका विश्वास’ । लेकिन ये सरकार और मोदी जी साथ और विश्वास तो सबका चाहते हैं, परन्तु किसी को भी, उसके योगदान हेतु श्रेय देना तो मानो इन्होंने सीखा ही नहीं है। हर कार्य और उपलब्धियों का प्रतिशत शत-प्रतिशत श्रेय मोदी जी और केवल मोदी जी को ही जाना चाहिए। किसी भी उपलब्धि का श्रेय वो अपनी पार्टी यहां तक की संबंधित विभाग के मंत्रियों के साथ भी बांटने को तैयार नहीं हैं।
अब हम आते हैं जहांगीरी घंटे यानी पीएमओ पोर्टल पर। इस पोर्टल पर आनलाइन शिकायत दर्ज होने के बाद शिकायत के बारे में पोर्टल पर और कभी-कभी फोन पर आपकी शिकायत पर की गई कार्यवाही की जानकारी दी जाती है और शिकायतकर्ता को आशा बंधती है कि शायद उसकी शिकायत का अब निराकरण होगा। लेकिन शिकायत के निराकरण के नाम पर संबंधित विभाग या अधिकारियों से उनका पक्ष पूछपाछ कर , अंततः आपको बता दिया जाता है कि आपकी शिकायत निराधार है और आपकी शिकायत की फाईल या खिड़की बंद कर दी जाती है।
इस संदर्भ में अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे, फिर भी दो विशिष्ट उदाहरणों की बानगी पेश है।
1- अखिल भारतीय किसान महासंघ आईआई के राष्ट्रीय संयोजक किसान नेता डॉ राजा राम त्रिपाठी ने उत्तर प्रदेश के लगभग डेढ़ लाख शिक्षाकर्मी तथा अनुदेशकों को लगभग 20 साल सेवा के बाद भी नियमितीकरण न किए जाने और आज भी उन्हें एक कुशल मजदूर की मजदूरी भी न देते हुए, छुट्टियों ,मेडिकल सुविधाएं ,पेंशन,बीमा आदि सभी जरूरी सुविधाओं से वंचित रखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा किए गए ऐतिहासिक शोषण, अन्याय , पक्षपात की पीएमओ को की गई शिकायत पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। शिकायतकर्ता द्वारा अपील किए जाने के बावजूद बिना शिकायत की जांच किया और उत्तर प्रदेश सरकार से गोल-गोल जवाब लेकर शिकायत को बंद कर दिया गया।
2- वरिष्ठ पत्रकार तथा एक्टिविस्ट यशवंत (भड़ास चैनल) का निजी मोबाइल पुलिस के उच्चाधिकारियों द्वारा छीनने, एवं दुर्व्यवहार की शिकायत पर भी पीएमओ द्वारा आज पर्यंत कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई। यशवंत सोशल मीडिया पर बार-बार कह रहे हैं कि उनके खिलाफ की गई शिकायतें पूरी तरह से फर्जी हैं ,और वह शिकायतकर्ताओं को जानते पहचानते तक नहीं, बावजूद इसके बिना पर्याप्त जांच के बिना ही उनका मोबाइल निजी मोबाइल जप्त कर लिया जाता है और मांगने की बावजूद न तो शिकायत की प्रति दी जाती है ना ही मोबाइल की पावती दी जाती है। देश के सर्वोच्च जिम्मेदार और शक्तिशाली प्रधानमंत्री के निज कार्यालय को की गई शिकायत पर भी किसी तरह की जांच-पड़ताल किए बिना ही, इस कांड से संबंधित दोषी पुलिस उच्च अधिकारियों से प्राप्त जानकारी के आधार पर शिकायत बंद कर दी जाती है। जाहिर है कोई भी गलती करने वालाअधिकारी अपनी गलती भला क्यों कर स्वीकार करके सजा भुगतना चाहेगा?
हम आते हैं प्रधानमंत्री द्वारा अपने पोर्टल पर मांगे जाने वाले सुझावों पर।
यह किसी भी देशवासी के लिए बड़े गौरव की बात होती है कि देश की बेहतरी के लिए उसकी सलाह, सुझाव योजनाएं सीधे उनके प्रधानमंत्री द्वारा सुनी जाती है. लेकिन साथ ही वो देशवासी यह भी चाहता है कि प्रधानमंत्री अगर उसकी सलाह, सुझाव योजनाओं पर अगर कोई पहल करते हैं तो कम से कम उसकी सहभागिता का श्रेय भी उसे दें, ताकि वो तथा उसके जैसे अन्य देशवासी भी उत्साहित हो कर राष्ट्रनिर्माण के कार्य में बढ़-चढ़ कर आगे आएं। आम नागरिक की सक्रिय सहभागिता सफल परिपक्व लोकतंत्र का अहम लक्षण है। परंतु सुझाव सलाह के मायने में भी पीएमओ पोर्टल वन वे ट्रैफिक बनकर रह गया।
इसी संदर्भ में कुछ सटीक उदाहरण नीचे प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
1- जब वैश्विक महामारी कोविड 19 की वजह से दुनिया के साथ-साथ भारत भी इसकी चपेट में आया और प्रधानमंत्री ने 24 मार्च 2020 को राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की तो पूरे राष्ट्र ने उनका समर्थन किया और सब लोग घरों में कैद हो गये. यह अभूतपूर्व अनुशासन का प्रदर्शन था देशवासियों का. लेकिन घरों में रहने के बावजूद लोगों को खाद्य पदार्थों की आवश्यकता तो पड़ती ही है. इसलिए कुछ आपात सेवाएं जारी रखी गई.पर उनमें से एक कार्य ऐसा था कि जिसे भी जारी रखना परम आवश्यक था। और वह कार्य था – खेती किसानी का. जब खेतों से फल-सब्जियों का उत्पादन नियमित होता तभी सप्लाई चेन द्वारा लोगों के घरों तक आपूर्ति हो पाती. इसी बात को ध्यान में रख कर *25 मार्च को अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) के राष्ट्रीय संयोजक डॉ राजाराम त्रिपाठीq ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टैग करते हुए विस्तृत सुझाव दिया, कि खेती के कार्य को तत्काल लॉकडाउन से मुक्त किया जाएं और कैसे केवल फल-सब्जी तथा तत्कालीन खेतों में खड़ी रबी की फसलों को भी सही समय पर कटाई करके खलिहान तथा फिर खलिहान से गोदाम तक या किसानों के घरों तक और फिर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के कार्य को लॉकडाउन से मुक्त रखा जाए. डॉ त्रिपाठी के विस्तृत सलाह को पंजीकृत कर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तुरंत अमल में लाया गया, औऱ *27 मार्च 2020 को गृह मंत्रालय के द्वारा इसी आशय के संशोधित आदेश जारी कर खेती के ज्यादातर कार्यों को लॉकडाउन से मुक्त कर दिया गया. हांलांकि अलग-अलग राज्यों ने केंद्र सरकार के उन आदेशों की अपनी समझ और सुविधा के अनुसार अलग-अलग व्याख्या करते हुए उनका क्रियान्वयन समुचित ढंग से नहीं किया जिससे किसानों को अपूरणीय क्षति तथा अभूतपूर्व परेशानियां हुई, स्थानीय प्रशासन ने भी कोरोना को रोकने तथा कृषि कार्य को रोकने का अंतर समझने की कोशिश नहीं की और सुदूरवर्ती इलाकों में पुलिस अपना पराक्रम निरीह किसानों पर दिखाती रही, आज भले कोरोना नहीं है पर तीन साल बाद आज भी देश के किसान उसकी मार से उबर नहीं पाए हैं।
2-कोरोना केंद्र सरकार द्वारा गरीबों औऱ असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए तथा अन्य वर्गों के लिए जब विभिन्न प्रकार के राहत की घोषणाएं की गई तब देखा गया कि इन घोषणाओं में कृषि और कृषकों के लिए कोई बहुत सार्थक पैकेज नहीं है, जिससे लॉकडाउन से खेती को हुए नुकसान की भरपायी करते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके. इसे ध्यान में रखते हुए, 25 अप्रैल, 2020 को डॉ. त्रिपाठी द्वारा 52 किसान संगठनों से सलाह-मशविरा कर मैराथन बैठकों के बाद काफी मेहनत करके 25 सूत्री मार्गदर्शी सुझाव व मांग पत्र प्रधानमंत्री को सौंपा गया. इन अधिकांश सुझावों का स्पष्टदर्शी प्रभाव सरकार के तत्कालीन विशेष पैकेज में दिखाई दिया पर सरकार ने इन सुझावों का श्रेय देने की बात तो दूर रही, सुझावों के लिए धन्यवाद देना तक जरूरी नहीं समझा।
3- एक और महत्वपूर्ण बानगी देखिए। यह मामला भी कोरोना काल से जुड़ा हुआ है।
भारत विश्व के सबसे ज्यादा वन क्षेत्र वाले 10 देशों में से एक है. भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 21.23% क्षेत्र पर वन स्थित हैं. देश के कई राज्यों में जैसे कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा ,झारखंड, उत्तराखंड ,हिमाचल प्रदेश ,महाराष्ट्र तथा पूर्वोत्तर की राज्यों में में जहां आज भी पर्याप्त वन क्षेत्र है, जैसे कि छत्तीसगढ़ में तो लगभग 44% हिस्सा वन क्षेत्र हैं और भारत के समूचे 1 क्षेत्रों का 7.7% वन छत्तीसगढ़ में ही है. इन वन क्षेत्रों में बहुसंख्यक जनजातीय समुदाय निवास करता है और इन क्षेत्रों की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या जंगलों से वनोपज एकत्र कर होने वाली आय से ही अपना जीवन यापन करती है. छत्तीसगढ़ में तो 425 ऐसे वन राजस्व ग्राम भी है जिनकी आजीविका का साधन केवल मुख्य रूप से जंगल ही है. छत्तीसगढ़ में इस कार्य को सुचारू संचालन हेतु 901 प्राथमिक लघु वनोपज सहकारी समितियां है कार्य कर रही है जो पूरी तरह से वनोपज संग्रहण तथा विपणन पर ही निर्भर है.
भारत में कमोबेश इसी तर्ज पर लगभग 250 से अधिक प्रकार की वनोपज संग्रहण किया जाता है, इन सारे वनोपजों में से लगभग 70% प्रमुख वनोपज इन्हीं दिनों मार्च-अप्रैल में एकत्र की जाती हैं और यह वनोपज इन दिनों अगर एकत्र नहीं की गई तो या तो यह इन दिनों वनों में प्राय: हर वर्ष लगने वाली आग से जलकर नष्ट हो जाती है, या फिर मई-जून की गरमी में यह सूख कर अनुपयोगी जाती है, और इन सबसे भी अगर बची भी तो आगे आने वाली मानसून पूर्व की बारिश की बौछारों में तो पूरी तरह से बर्बाद हो ही जाती है।
अतः डॉ राजाराम त्रिपाठी अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) द्वारा सरकार को समर्थन तथ्यों, आंकड़ों के साथ सुझाव देते हुए 4 अप्रैल 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय विस्तार से वस्तुस्थिति की जानकारी देते हुए मांग की गई थी कि देश में तत्काल लाक डाउन के दरम्यान बचाव के साधनों तथा सुरक्षा के साथ वनोपजो के संग्रहण और उनकी शत् प्रतिशत खरीदी सुनिश्चित की जाए तथा संग्राहक परिवारों को इन वनोपजों का *'उचित मूल्य' दिलाया जाए।
उक्त पत्र को प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा आदिवासी मामलों के मंत्रालय को आगे कार्यवाही हेतु तत्काल 4अप्रैल को हीअग्रेषित कर दिया गया। तत्पश्चात संबंधित राज्यों में 5-6 अप्रैल से वनोपज संग्रहण का कार्य सुचारू रूप से प्रारंभ हुआ, और दो मई को केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा 49 वनोपज के जिसे माइनर फॉरेस्ट प्रोड्यूस (एमएफपी) कहते हैं, उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा भी की गई , जो कि भले ही देर से उठाया गया, पर निश्चित रूप से अच्छा कदम था.
इन्हीं महत्वपूर्ण निर्णयों के कारण हम कोरोना से लड़ाई लड़ते हुए भी अपनी अर्थव्यवस्था को काफी हद तक बचा पाए लेकिन उपरोक्त सभी मामलों में सरकार ने जिन व्यक्ति या संगठनों के सुझाव को आधार पर उपरोक्त निर्णय लिये, उनका जिक्र तक नहीं किया है. यहां तक कि धन्यवाद ज्ञापन का एक मुफ्त ईमेल तक भेजने में सरकार कंजूसी बरतती है।
पिछले लोकसभा चुनाव के पूर्व, भाजपा के चुनावीघोषणा पत्र बनाते समय जिन कृषि विशेषज्ञों को आमंत्रित कर उनसे सलाह ली गई थी उनमें डॉक्टर त्रिपाठी भी एक थे। *उल्लेखनीय है कि, वर्तमान में किसानों के मदद हेतु संचालित ,"कृषक पेंशन निधि" तथा "किसान सम्मान निधि' जैसी केन्द्र सरकार की स्टार योजनाओं की आवश्यकता तथा उसके संभावित स्वरूप के बारे में अपनी परिकल्पना कोई स्पष्ट करते हुए इन्हें भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल करने के बारे में डॉक्टर त्रिपाठी ने ही सलाह दिया था , इन सुझावों को भाजपा की तत्कालीन समूची चुनाव घोषणा पत्र समिति ने सराहा भी था और इन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल भी किया था, और इस चुनाव में किसानों के वोटों से अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की। इन योजनाओं के दम पर पिछला चुनाव जीतने के बाद भी योजनाओं का सुझाव देने वाले का नाम भी कभी इनके द्वारा नहीं लिया गया। यह दीगर बात है की इन योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन तथा संचालन में इतनी खामियां रह गई हैं, कि इन महात्वाकांक्षी योजनाओं का मूल उद्देश्य कहीं खो गया।
सवाल ??
सोचने की बात यह है कि, एक ओर तो सरकार यह कहते नहीं थकती है कि, वह हर नागरिक की सहभागिता शासन में चाहती है, ऐसे में कोई विशेषज्ञ अगर मेहनत करके कोई सार्थक सुझाव सरकार को भेजता हैं तो उन्हें कोई श्रेय देना तो दूर उसकी अभिस्वीकृति तक नहीं करती है,,,ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि ‘सबका साथ- सबका विकास’ जैसे खोखले नारों के भरोसे क्या यह सरकार/भाजपा 2024 की चुनाव की वैतरणी पार कर पाएगी?