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- मौत की 'बदकिस्मती'
विजय शंकर पाण्डेय
कई बार मौतें भी बतियाना चाहती हैं. मगर कई मौतों के साथ कई राज भी दफन हो जाते हैं. और कई, प्रश्नों को हमेशा के लिए अनुत्तरित छोड़ जाते हैं. इसके बाद मीडिया अंधेरे में तीरंदाजी की प्रैक्टिस शुरू कर देती है. जैसे आगे और पीछे चलने वाले विज्ञापनों की तरह कई खबरों में भी असंभव काम संभव होते दिखने लगते हैं. मगर रेमंड का सूट पहन लेने से मैन कम्पलीट सिर्फ टीवी स्क्रीन या अखबारों के पन्नों पर ही होता है, यह तो अब आप भी जान गए होंगे.
कल एक पत्रकार ने देश के नाम गिरामी अस्पताल के चौथे माले से कूद कर खुदकुशी कर लिया. वैसे पत्रकार की मौत सार संक्षेप भर की ही समझे जाने का चलन है. मगर कई मौतें भी पिछले जन्म में बिल्ली पूज कर और अपना नसीब ऊपर से लिखवा कर ही 'जन्म' लेती हैं. चूंकि मामला राजधानी का है, तो थोड़ी तो इज्जत बख्शनी ही पड़ेगी.
एक खुदकुशी और हुई है. वह भी कल ही. एक युवा पीसीएस अधिकारी ने बलिया में अपने कमरे में फांसी पर लटक कर जान दे दी. पहला मामला चूकि देश की राजधानी का है, तो जांच के आदेश केंद्रीय मंत्री ने दे दिया. दूसरा मामला चूंकि नितांत पिछड़े जिले का है, सो वहां मामले की पड़ताल में पुलिस जुटी है. हर मौत का अपना अपना लेवल होता है.
क्या नौकरियां खुदकुशी का सबब बन रही हैं? जाहिर है उपरोक्त दोनों मामलों में जांच अधिकारी इस तरह के सवालों से नहीं जूझेंगे. क्योंकि उन्हें पगार इस तरह के फालतू सवालों के जवाब ढूंढने के लिए नहीं दी जाती हैं. आईएएस और पीसीएस आज के युवाओं का ड्रीम जॉब है. और पत्रकारिता में ग्लैमर का तड़का है.
ग्लैमर की दुनिया का एवरेस्ट फतेह कर लेने के बाद दिलीप कुमार को याद आता है कि वह अभिनेता नहीं होते तो पत्रकार होते. शायद उन्हें पत्रकारों का हस्र नहीं पता है. वरना कोई सायराबानो उन्हें बनारस के कबीर चौरा अस्पताल के बेड पर तड़पता छोड़कर आजमगढ़ का रुख कर ली होती. वैसे सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी भी बहुत कुछ कहना चाहती है.
यह सवाल मेरे दिमाग में इस वजह से भी कौंध रहा हैं कि न तो पहली बार किसी पत्रकार ने खुदकुशी की है और न ही पहली बार किसी प्रशासनिक अधिकारी या फिल्म स्टार ने मौत को गले लगाया है. अब एक छोटे बड़े अंतराल के बाद इस तरह की घटनाएं आए दिन सामने आ रही हैं. तो हमें ऐसे सवालों से क्यों नहीं जूझना चाहिए?
लखनऊ के रहने वाले सौमित ने मुंबई में मिडडे और डीएनए जैसे बड़े अखबारों में काम किया. फिर मात्र 30 साल की उम्र में नौकरी छोड़ मुंबईवाला वेबसाइट शुरू कर दिया. जानने वाले बताते हैं कि इस वेबसाइट ने कई अच्छी खबरों को ब्रेक किया, मगर सौमित सिस्टम को ब्रेक नहीं कर सका और जुलाई 2016 में खुदकुशी कर खुद ब्रेकिंग न्यूज में तब्दील हो गया. सौमित ने कोई सुसाइड नोट तो नहीं छोड़ा था. हालांकि मैं कहीं पढ़ा था कि आखिरी दिनों में उसके व्यवहार में अजीब सा परिवर्तन आया था. पूरे सिस्टम के प्रति उसके दिमाग में जहर भरा था.
गौर कीजिए तो जुम्मा जुम्मा दो साल पहले ही बलिया जिले के मनियर में पहली पोस्टिंग पाई थी पीसीएस अधिकारी मणिमंजरी राय. कल देर रात से अब तक मणिमंजरी से संबंधित बीस-बाईस अलग अलग खबरें तो मैं पढ़ ही चुका हूं. मीडिया के 'विश्वस्त सूत्र' जो बता रहे हैं, उसके मुताबिक मणिमंजरी का सुसाइड नोट हमारी व्यवस्था का ही 'विरुदावली' गा रहा है.
बनारस की पत्रकार रिजवाना तबस्सुम के परिजनों के तो अभी आंखों के आसू भी नहीं सूखे होंगे, मगर उससे जुड़ी खबरों का सूखा पड़ गया. साल 2013 में भोपाल में मुख्य सचिव के कार्यालय के बाहर सल्फास निगलने वाले पत्रकार राजेंद्र कुमार अब कितनों को याद आते हैं?
राजस्थान के चूरू जिले के राजगढ़ के थानाध्यक्ष विष्णुदत्त विश्नोई याद हैं आपको या भूल गए. पुलिस ने अपने इस ईमानदार और कर्मठ अधिकारी का सुसाइड नोट उसी तरह सार्वजनिक नहीं किया, जैसे कल बलिया की मणिमंजरी राय का नहीं किया गया. पुलिस के पास जांच का अधिकार है. जाहिर है जांच की आंच का रिमोट वह कभी नहीं छोड़ना चाहेगी.
यह उस रिमोट का ही कमाल है कि थाने में घुस कर मंत्री को मार दिया गया, तब भी पुलिस उस अपराधी का बाल भी बांका नहीं कर सकी. आज अखबारों और टीवी चैनलों को गला फाड़ फाड़ कर विरुदावली गाकर बताना पड़ रहा है कि विनोद दुबे गली छाप नहीं, हाई लेवल का क्रिमिनल है भाई साहब. मान भी जाइए. बिल्कुल माफिया डॉन टाइप.
माफिया डॉन हो, या दबंग गुंडा टाइप ठेकेदार, आखिर किसकी शह पर दो दो दशक से गुल खिला कर सर्वाइव कर जा रहे हैं? अब तो आप यह भी कहने की स्थिति में नहीं हैं कि 'सबको देखा बारी बारी.... इसलिए अबकी मेरी दिहाड़ी'
भला 28-30 की तरुणाई क्या खुदकुशी के लिए होती है. यह तो सपने देखने की उम्र होती है. यहां सिर्फ किसी मणिमंजरी या तरुण ने दुनिया को अलविदा नहीं कहा है. बल्कि सपनों ने मौत को गले लगाया है. बकौल पाश - 'सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'.