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- काशी को समझने का सफ़र
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जिंदगी के इस मोड़ पर लम्बे समय से मैं सफ़र में हूं. मैं नहीं जानता कि भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है. मैं इस बूढ़े शहर बनारस यानी काशी को जानने-समझने की कोशिश कर रहा हूं. अनेक साथी मिले. कुछ मेरे साथ चले और कुछ रास्ते में थककर रुक गए. उन सभी साथियों को मेरा प्रणाम..!
जो बीच रास्ते में रुक गए, उनसे मुझे चलते रहने की प्रेरणा मिली, इसलिए उनके प्रति मैं "विशेष आभार" व्यक्त करता हूं. मेरी यात्रा जारी है. मैं प्रख्यात आलोचक व साहित्यकार प्रोफेसर चौथीराम यादव का आभारी हूं, जो मेरी पुस्तक "उड़ता बनारस" पर टिप्पणी करते हुए इसे एक "ऐतिहासिक दस्तावेज" बताए हैं. मैं नहीं जानता की अपने प्रयास में कितना सफल हुआ हूं.
मेरी यात्रा और सफ़र का द्वन्द्व जारी है. नदी के किस किनारे लगूंगा, यह भी मैं नहीं जानता हूं. किसी भी सफ़र का यही आनंद है. लोग मिलते हैं कारवां बनता है और फिर हवा के किसी झोंके से वह अचानक बिखर जाता है. किसी रेत के महल की तरह..! उढेरना और फिर उसे बुनना..! मैं यही कर रहा हूं. अब भी..! यह कोई मेरा व्यक्तिगत सफ़र नहीं है. इस यात्रा में अनेक साथी शामिल हैं.
गंगाघाटी की पक्काप्पा संस्कृति के दो ऐतिहासिक पुस्तकालय कारमाइकल लाइब्रेरी व गोयनका पुस्तकालय, गोयनका छात्रावास, एक वृद्ध आश्रम, शिवपुत्र विनायक व अनेक देवी-देवताओं के साथ 400 घरों को जमींदोज करके शिव की मुक्ति का यह सफ़र है. यात्रा जारी है. भविष्य को मुट्ठी में बंद करने की यह यात्रा है लेकिन समय के बारे में कोई नहीं जानता है. जब लाहौरी टोला और ललिता गली को जमींदोज किया जा रहा था, तब हवा भी खामोश थी. लोग चुप थे. बुद्धिजीवी खामोश रहे. धर्माचार्य अपने ईष्टदेव की पूजा में व्यस्त थे और "विकास" अपने लश्कर के साथ दस्तक दे रहा था.
मैं मानता हूं कि आसमानी शक्तियां अपने तरीके से संकेत देती रहती हैं. काशी में घाट के समानांतर बनी साढ़े पांच किलोमीटर लम्बी "रेत की नहर" गंगा की उफनती धारा के सााथ बह गई. मणिकर्णिका का आधुनिक श्मशान पानी में डूब गया. "विकास" अपनी गति से चलता रहा और प्रकृति भी समय-समय पर अपना संदेश देती रही. मई-जून, 2021 में गंगा का पानी घाट किनारे हरे रंग का हो गया था.
भविष्य के गर्भ में कुछ छिपा है. आम आदमी खामोश है लेकिन इस बदलाव को धीरे-धीरे महसूस कर रहा है. जिंदगी बदल रही है. सोचने का तरीका भी बदल रहा है. जिन घटनाओं पर गुस्सा आना चाहिए, वैसा अब नहीं होता है. चारों तरफ खामोशी पसरी है. अपनी विरासत को बचाने की कोई छटपटाहट नहीं है. यह बूढ़ा शहर अपना केंचुल बदल रहा है. मैं अपने मित्रों के साथ इस बदलाव को देख रहा हूं. कुछ लोग तो अब देखना भी बंद कर दिए हैं. वे सिर्फ गर्वान्वित हो रहे हैं. गर्व..! किसका ? क्या धरोहर को खोने का गर्व या फिर विस्थापित होने का..! अपनी जमीन से विस्थापित होने का दर्द भविष्य की अनेक पीढ़ियों का पीछा करता है. झेलना पड़ता है. उससे बचना मुश्किल है.
~ सुरेश प्रताप जी की फेसबुक वॉल से