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बादल सरोज
हाल के दिनों में भारतीय राजनीति का सबसे उल्लेखनीय पहलू उस नैरेटिव - आख्यान - का ध्वस्त होना है, जिसे बड़ी चतुराई और तरतीब से गढ़कर आम बना दिया गया था। यह आख्यान "विपक्ष कहीं दिखता ही नहीं है" से शुरू हुआ था और "विपक्ष कहाँ है" से होता हुआ, अब तो युग-युगों तक "मोदी के सिवा कोई हैईये नहीं" तक जा पहुंचा था। इस आख्यान को गढ़ने के अनेक तरीके अपनाये गए। मीडिया पर प्रभुत्व कायम करके विपक्ष की गतिविधियों की अनदेखी और चुनाव परिणामो सहित बड़े-बड़े घटनाविकासों की चुनिंदा प्रस्तुति इसका एक तरीका था -- विपक्ष, खासकर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेताओं के साथ साम-दाम-दंड-भेद की आजमाइश दूसरा तरीका था। ऐसा नहीं कि इन सबका असर नहीं हुआ। हुआ, मगर उतना ही हुआ, जितना आभासीय घटाटोप का होता है ; अंततः उन्हें खत्म कर वास्तविक रोशनी सामने आ ही जाती है। 2024 अभी दूर है, मगर विपक्ष "कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती" की स्थिति से अब स्वयंभू ब्रह्मा और उनकी ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी की नींद उड़ाने तक पहुँच चुकी है। यह 2024 में किस तरह, कैसा आकार लेगी, यह कयास लगाने से पहले यह जानना जरूरी है कि यह बदल कर यहां तक कैसे पहुँची?
राजनीतिक बदलाव राजनीतिक दलों और नेताओं के कॉन्क्लेव, बंद कमरों की शिखर वार्ताओं के मोहताज नहीं होते। ये सब पहलकदमियां और इनमें मोर्चों, गठबंधनों का बनना बड़ी जमीनी हलचल का नतीजा होता है। मुद्दे और मोर्चे अवतरित नहीं होते, इवॉल्व होते हैं। शिखर पर जमी बर्फ अपने आप नहीं पिघलती - उसे मैदानों में सुलगते अलावों, धधकती आग पिघलाती है। पिछले दो-तीन वर्षों में यही हुआ है। ऐतिहासिक किसान आंदोलन के दौरान भारत के देहाती अवाम द्वारा दिखाई गयी असाधारण दृढ़ता ने मौजूदा सरकार की अविजेयता का भरम ही नहीं तोड़ा, पूरे देश को झकझोर कर जगा दिया। इसी तरह की बड़ी खदबदाहट मेहनतकशों के दूसरे तबके - मजदूरों, कर्मचारियों - की लड़ाई के उच्च से उच्चतर होते रूप में दिखी। इसी के साथ सिर्फ जेएनयू या जामिया ही नहीं, देश भर के विश्वविद्यालयों में उठे आंदोलनों के ज्वार ने सिर्फ युवा भारत को ही नहीं, उनके अभिवावकों को भी नए तरीके से सोचने-विचारने के लिए मजबूर कर दिया। इस जगार का चौथा आयाम सीएए और एनआरसी को लेकर सडकों पर उतरी महिलायें थी। जो सिर्फ ताजा इतिहास ही नहीं रच रही थीं, वे सैकड़ों - संभवतः हजारों - वर्षों में पहली बार उस देश, जिस देश मे आज भी मनु विराजमान है, की आधी आबादी को अपने आँचल को परचम बनाते हुए कस्बों और शहरों में महीनों तक मैदान में डटना सिखाकर इतिहास बदल भी रहे थीं। यह जमीनी थरथराहट है, जिसने विपक्ष के अनस्तित्त्वमान हो जाने के आभासीय घटाटोप को दरका दिया। गरज ये कि जनता, जो असली विपक्ष है, वह नया आख्यान रच रही थी - राजनीतिक पार्टियां तो सिर्फ एम्प्लीफायर हैं, उसकी पीड़ा को सूत्रबद्ध कर ज्यादा ऊंची आवाज देना उनका काम है। यह 2024 की बुनियाद है।
हाल के दौर की एक और बड़ी विशेषता एकता की व्यापकता की नयी कसौटी बनना भी है। विभिन्न राजनीतिक संबद्धताओं, विचारों, झण्डों, मतों और आग्रहों के सैकड़ों - किसान आंदोलन में तो 550 से अधिक - संगठनों का कुछ साझे मुद्दों के आधार पर एक मंच पर आना है। इस व्यापकता ने जड़ता तोड़ी है। इन्होने अमल में लाकर दिखाया है कि परिस्थितियों के मुताबिक़ वे भी साथ आ सकते हैं, जिनके साथ आने की कोई परम्परा नहीं रही। यह अहसास शुद्धतावाद के आग्रह को व्यावहारिकता के तड़के से परिशोधित करने का था। देश की राजनीतिक जमातों से लेकर जनता के दीगर संगठनों ने महसूस किया कि स्नान के लिए गंगाजल, खानपान के लिए शुद्ध जल की जिद बरकरार रखते हुए भी जब बस्ती में आग लगती है, तो हर तरह के पानी का इस्तेमाल किया जाना लाजिमी हो जाता है। विपक्ष लगभग एकमत है कि यह समय ऐसा ही समय है।
अगर ऊपर लिखी हलचलें बुनियाद हैं, तो इकट्ठा होने का कारगर तरीके से आजमाया गया यह ताजा तजुर्बा 2024 की विपक्षी एकता की तामीर का नक्शा है। खुद के अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही दो-चार पार्टियों को छोड़कर आज देश में एक भी ऐसी पार्टी नहीं है, जो भाजपा को सत्ता से हटाना मौजूदा राजनीति की सर्वोपरि जरूरत न मानती हो। यह अहसास जल्द ही, 2024 से पहले तो निश्चित ही, आकार लेगा।
इस दौर की तीसरी विशेषता और विपक्ष के राजनीतिक परिवर्तनकारी विपक्ष में बदलने की ताकत मौजूदा सत्ता के विरोध भर से ऊपर उठकर कारणों की शिनाख्त, जिम्मेदारों के चिन्हांकन और उससे उबरने के लिए वैकल्पिक नीतियों के सूत्रीकरण को लेकर जारी मंथन है। इस तरह के मंथन राजनीतिक पुनर्विचार तक ही सीमित नहीं रहते - वे परिवर्तन का औजार भी बनते हैं। हाल में हुए हिमाचल के चुनाव में पुरानी पेंशन योजना की मांग इसकी मिसाल है। उसने देवभूमि से भक्तों को बेदखल कर नयी पेंशन योजना लाने वालों को ही उसे रद्द कर पुरानी योजना बहाल करने पर मजबूर कर दिया। यह एक बानगी है - जनता के अलग-अलग तबकों में ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जो 2024 में निर्णायक बन सकते हैं, 2024 में विपक्ष की एकजुटता का आधार बन सकते हैं। राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो' यात्रा इस कालखंड की एक महत्वपूर्ण परिघटना है - उसके प्रति जनता के आकर्षण के पीछे उनकी पार्टी का संगठन नहीं है, यह सच्चाई तो खुद उन्होंने और उनकी पार्टी ने कबूल की है। उनका "चमत्कारिक" व्यक्तित्व भी नहीं है, फिर क्या है? यह जन असंतोष है, जो अक्सर आक्रोश में फूट पड़ता है और विपक्ष के दल या नेता को देखे बिना अपनी पीड़ा को स्वर देने के लिए उतर पड़ता है। उसे सिर्फ निदान नहीं, समाधान चाहिए।
इन सबका जोड़ 2024 से पहले आकार लेगा और उसके परिणाम को निर्धारित करेगा। क्या लेगा, कैसे लेगा, इसकी अटकलें लगाने की बजाय 1977 और 1989 के अनुभवों से सीखा जा सकता है : जब साथ आने और अलग-अलग चलकर भी एक ही निशाने पर एक साथ वार करने "मार्च सेपेरेटली, स्ट्राइक टुगेदर" की रणनीति अपनाई गयी और मकसद हासिल किया गया। हालांकि बिहार में हुआ बदलाव और त्रिपुरा में उभर रही संभावना इससे आगे की उम्मीद भी जगाती हैं।
लेखक माकपा केंद्रीय समिति के पूर्व सदस्य हैं।