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लम्बे सफर की दूरी

suresh jangir
18 Feb 2021 5:20 PM GMT
लम्बे सफर की दूरी
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सन 1933 का साल बीतने को था। 'मेडिकल स्कूल' में अब उनका सेकेंड ईयर था

पुस्तक अंश

1931 जून के महीने में पीएमटी का इम्तहान देने वह 2 दिन पहले आगरा पहुंचे। 'राजा मंडी स्टेशन' (पुराने) के चारों तरफ धर्मशालाएं थीं। वह 'राजा मंडी' चौराहे के नज़दीक वाली एक धर्मशाला में रुक गए। उनका हाई स्कूल का रिजल्ट अभी आना था। धर्मशालाओं में थोक में पीएमटी के अभ्यर्थी टिके हुए थे। ज़्यादातर या तो बीएससी और एमएससी में पढ़ने वाले थे या 'पासआउट'। उन्होंने मान लिया कि ऐसे 'मेधावी' और 'पढ़ाकू' छात्रों के बीच उनकी क्या बिसात! मन में चालाकी सूझी- "अब दोबारा आगरा घूमने को तो 'बाबूजी' भेजेंगे नहीं लिहाज़ा क्यों न पूरा आगरा घूम कर मौज ही ली जाय"। गहरे तनाव में डूबी उस बड़ी भीड़ में वह उन चंद गिने-चुनों में थे जो बिलकुल मस्त थे और जिन्हें रत्ती भर भी 'टेंशन' नहीं था। सुबह टेस्ट देते और दिन भर ताजमहल-क़िला-फतेहपुर सीकरी आदि स्थानों का विचरण होता।4 दिन में टेस्ट ख़त्म हुए।

उन दिनों नतीजे एक दो दिन में ही आ जाते थे। धर्मशाला में पड़ोस के कमरे के लड़के ने लौट कर खबर दी "शुक्ला तुम्हारा नाम लिस्ट में चिपक गया है।" ये समझ गए कि भाई मौज ले रहा है। वह ज़ोर से हँसे। जब देखा कि पड़ोसी 'सीरियस' है तो उसे टालते हुए कहा कहा- ''फादर्स नेम कुछ ओर होगा।"" सुनने पर कई लोगों के कहने- 'मेडिकल स्कूल' पहुंचे। पीएमटी का रिज़ल्ट नोटिस बोर्ड पर बाहर ही टंगा था। 'हां नाम तो वही है- बटेश्वर प्रसाद शुक्ला!' 'पिता का नाम.....?' 'अरे यह तो द्वारिका प्रसाद शुक्ला ही लिखा है!' 'सरऊ.......एक से नाम के डबल बाप-बेटे!' दिमाग में उधेड़बुन चलती रही। झेंपे-झेंपे से ऑफिस के अंदर जाकर सम्बंधित बाबू से सलेक्टेड केंडिडेट का 'एड्रेस' पूछा। बाबू हैरान। इस क़िस्म की यह पहली क्वेरी थी। बड़ी ऊँ-आएं करके पता बताया- 'दियरा, सुल्तानपुर। तब ख़ुशी से सराबोर! आर्किमिडीज़ शैली में चीख़ते हुए बाहर आए और तार घर तक दौड़ते हुए गए। किसी तरह हाँफते-हूँफते 'बाबूजी' को टेलीग्राम दिया-'सेलेक्टेड। सेंड छुटका भैया फ़ॉर फ़ीस एट्सेटरा ।' अपनी धर्मशाला का पता भी लिख दिया। तीसरे दिन 'छुटका भैया' आ पहुंचे। छुटका भैया यानि बड़े भाइयों में ऊपर से नम्बर दो। वह कानपुर में थे और एम कॉम करके वहीँ किसी प्राइवेट मिल में सीनियर अकाउंटेंट की नौकरी कर रहे थे। फ़ीस-वीस जमा करवाई गई, सफ़ेद ड्रेस, एप्रिन और बाकी सारे तामझाम का इंतजाम हुआ। उन्हें हॉस्टल अलॉट हो गया।

कुछ ही दिनों में पढ़ाई का सत्र शुरू हो गया। मेडिकल कॉर्प्स को लंबी सेवाएं देने के बाद शिक्षा जगत में आये डॉ० (कर्नल) भडूचा 'स्कूल' प्रिंसिपल थे। फ़ौज से आए थे, लिहाज़ा फ़ौजियों की कड़क अभी भी बरक़रार थी और 'स्टूडेंट इस कड़क से काफी थर्राते थे।

सुन लिया था कि हॉस्टल में सीनियर्स शाम और रात को बड़ी खतरनाक क़िस्म की 'रैगिंग' लेते हैं, लिहाज़ा सुकुल कुछ दिन धर्मशाला में ही टिके रहे। तब भी दिन में कॉलेज में रगड़ाई हो ही जाती थी। बहरहाल सुल्तानपुर दियरा के सुकुल अब आगरा के 'पंछी शुक्ला' बन गए थे। आख़िरकार हॉस्टल में आना ही पड़ा। शरीर से हृष्ट-पुष्ट थे, इक्का-दुक्का सीनियर को धमका लिया, बदले में बड़े समूह के हाथों मार खाई।

तब उन्होंने तय कर लिया कि इस वाहियात 'प्रथा' को समाप्त करवाएंगे। अपने सहपाठियों में वह पूरे साल, 'रैगिंग' के ख़िलाफ़ प्रचार करते रहे। काफी सहपाठी उनसे सहमत थे। जब सेकंड ईयर में पहुंचे तो 'रैगिंग के ख़िलाफ़ एक बड़े समूह ने 'हल्ला बोल' अभियान छेड़ दिया। थर्ड ईयर तक आते-आते रैगिंग पूरी तौर पर बंद हो गई और आने वाले 20-25 साल तक बंद रही। बटेश्वर प्रसाद से उनका बीपी शुक्ला बन जाना सिर्फ नामकरण परिवर्तन नहीं था, वह दरअसल सामान्य छात्र से एक बड़े समूह के 'सोशल लीडर' में रूपान्तरित हो जाने की भूमिका भी था।

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के बाद का यह दौर भारतीय समाज में नई राजनीतिक चेतना के प्रसार और प्रभाव का दौर था। एक ओर गाँधी और कांग्रेस की परचम ऊंची होती जा रही थी तो दूसरी तरफ बॉम्बे, कलकत्ता, कानपुर, इंदौर, अहमदाबाद आदि शहरी मज़दूरों में लाल बाउटे (झंडे) वाले कम्युनिस्टों का जन्म हो रहा था। आगरा जैसे अनौद्योगिक शहरों में ये भगत सिंह के 'क्रांतिकारी' मूल्यों का हवाला देकर मध्यवर्ग के बीच अपनी पैठ बना रहे थे। शहर में सेकंड इयर मेडिकल छात्रों का जो समूह गाहे-बगाहे कांग्रेस की रैलियों और मीटिंगों में शामिल होने लगा था, उसकी कमान डॉ० शुक्ला के हाथों में थे। मीटिंगें अक्सर देर रात ख़त्म होनी थीं लिहाज़ा मेन गेट की 'एंट्री-एग्जिट' के झंझटों से मुक्ति पाने के लिए 'नूरी दरवज्जा' (दरवाज़ा) स्थित हॉस्टल की पिछवाड़े वाली दीवार में से चुपके से इतनी ईंटें निकाल ली गईं कि एक जने का आना-जाना बन सके। इस 'टूट-फूट' का 'कोड नेम' रखा गया- 'भगतसिंह गेट !'

दरअसल नेशनल ऍसेम्बली (नयी दिल्ली) में बम फोड़ने से पहले भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद व उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों ने यहीं 'नूरी दरवज्जे' में एक मकान किराये पर लेकर विस्फोटक की फ़ैक्ट्री स्थापित की थी। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 'असेम्बली' में जो बम फेंका था, वह इसी 'फ़ैक्ट्री' की ईजाद था। बाद में एकाध मुख़बिरों द्वारा इसका इसका भेद खोल देने और 'नूरी दरवज्जे' के इस मकान पर पुलिस के छापे आदि से स्थानीय लोगों को इसका सूत्र मिला।

प्रो० पीएन वाही हॉस्टल वॉर्डन थे। (पेथोलोजी के प्रो० वाही आगे चलकर इसी संस्थान में प्रिंसिपल हुए और 70 के दशक में 'आगरा यूनिवर्सिटी' के वाइस चांसलर भी।) उन्हें दीवाल के तोड़े जाने की इत्तिलाह मिली तो उन्होंने यह सोच कर मरम्मत करवा दी की ऐसा करके वह छात्रों को रात-बिरात 'आवारागर्दी' करने से रोक रहे हैं। छात्रों और वॉर्डन के बीच तोड़ने-जोड़ने का यह 'आइस-पाइस' पूरे साल चला और आख़िर में झक मार कर वार्डन साहब ने हथियार डाल दिए। 'भगत सिंह गेट' आगरा मेडिकल स्कूल जूनियर हॉस्टल का एक 'परमानेंट फ़ीचर' बन गया।

(इसी 'गेट' की बदौलत आगे चलकर आज़ाद भारत की 'आगरा नगर महापालिका' ने इस सड़क का ही नाम 'भगत सिंह द्वार' रख दिया।)

सन 1933 का साल बीतने को था। 'मेडिकल स्कूल' में अब उनका सेकेंड ईयर था

छुट्टी का दिन था जब 'हॉस्टल' के दरवाज़े को धकेल कर कोई भीतर दाखिल हुआ। अपना परिचय आरडी भारद्वाज के रूप में दिया। उन्होंने बताया कि वह शहीद भगत सिंह के विचारों के मानने वाले हैं और फ़िलहाल इसी शहर में आकर बस गए हैं। काफ़ी देर तक गपशप हुई। भारद्वाज का मानना था कि केवल आज़ादी हासिल करने से कुछ नहीं होना। उत्पादन के संसाधंनों पर मज़दूरों का क़ब्ज़ा ज़रूरी है। सुकुल की समझ में यह नहीं आया कि आखिर बिना पढ़ा-लिखा मज़दूर उत्पादन के साधनों पर क़ब्ज़ा कैसे कर लेगा? अगर कर भी लिया तो उसे चलाएगा कैसे? भरद्वाज ने 'सोवियत यूनियन' का उदाहरण दिया। दो-एक पुस्तिकाएं भी दीं।

'हाँ होने को तो कुछ भी हो सकता है।' पहले विचार का उपसंहार हुआ।

आरडी भरद्वाज ने प्रस्ताव रखा- जल्द मिलते हैं। उन्हें जवाब सकारात्मक मिला। भरद्वाज कई बार मेडिकल हॉस्टल आए। एकाध बार इन्हें भी अपने यहां बुलाया। वह भारद्वाज को पसंद करने लगे थे। उन्हें यह भी समझ में आने लगा था कि भारद्वाज खांटी कम्युनिस्ट हैं। लंबे समय से बंबई में बसे भारद्वाज वहां के कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन आंदोलनसे जुड़े थे। सन 31 में उन्हें अहमदाबाद के मज़दूर आंदोलन के दौरान गिरफ़्तार किया गया था। उन्हें 2 साल की सज़ा भी हुई थी और वह पिछले दिनों ही जेल से रिहा हुए थे। "अब पार्टी का हुकुम है कि मैं इधर काम करूँ।" काफी दिनों बाद उन्होंने अपने बारे में बताया था।

भरद्वाज ने उन्हें पढ़ने के लिए एक किताब दी- टेन डेज़ दैट शुक दि वर्ल्ड।' रूस में अक्तूबर 1917 में हुई बोल्शेविक क्रांति पर आधारित यह किताब जॉन रीड नामक एक अमेरिकी पत्रकार की रचना थी जो उन दिनों रूस में था जब वहाँ लेनिन के नेतृत्व में दस दिनों में अपने क़िस्म का दुनिया का पहला सत्ता परिवर्तन हुआ और सत्ता मज़दूरों के हाथ में आई थी। इस किताब ने उन्हें बड़ा रोमांचित किया। इसके कुछ दिनों बाद भरद्वाज ने उनके हाथ में 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' की एक प्रति सौंपते हुए कहा-यह वह पहला दस्तावेज़ है जिसने आगे चलकर दुनिया को हिलाया। कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक ऐंगल्स का नाम वह पहले ही सुन चुके थे लेकिन उनकी लिखी कोई किताब पहली बार पढ़ने जा रहे थे। मुलाक़ातों और पढ़ने-लिखने का ये सिलसिला महीनों चलता रहा। वह भी अब मानने लगे थे की 'सोवियत यूनियन' की तरह हिन्दुस्तान में भी एक सोशलिस्ट क्रांति ज़रूरी है।

भारद्वाज उन्हें अब 'कॉमरेड शुक्ला' कह कर बुलाने लग गए थे और यह उन्हें 'कॉमरेड भारद्वाज।' एक बार कॉमरेड भारद्वाज के न्यौते पर वह 'आगरा कॉलेज' के सप्रू हॉस्टल भी पहुंचे। यहाँ एक छोटी सी मीटिंग रखी गयी थी। मौजूद लोगों में ज़्यादातर 'आगरा कॉलेज' के ही छात्र थे। इनमें मौजूद लोगों में एक जना ही आगे चलकर उनके साथ दूर तक आया। इस शख्स का नाम था-अब्दुल हफ़ीज़। इस मीटिंग में 'मेरठ षड्यंत्र' क्या है' शीर्षक से एक पुस्तिका कॉमरेड भारद्वाज ने सभी को दी। इस तथाकथित 'षड्यंत्र' केस के नाम पर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने 27 कम्युनिस्टों को आम हड़ताल और इस प्रकार की दूसरी गतिविधियों द्वारा ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के आरोप में कुछ को आजीवन कारावास और बाक़ियों को 12 साल की क़ैद की सजा सुनाई गयी थी। बाद में इलाहबाद हाई कोर्ट ने सभी को 3 साल की सजा काटा हुआ मान कर बरी कर दिया था। यह पुस्तिका' मेरठ षड्यंत्र' के नाम पर अंग्रेज़ों के' षड्यंत्र' का कच्चा चिट्ठा बयान करती थी।

मीटिंग के बाद कॉमरेड भारद्वाज ने पूछा- क्यों कॉमरेड, क्या ऐसी मीटिंग हम आपके हॉस्टल में नहीं रख सकते, आपके कुछ दोस्तों को लेकर?

इन्होने जवाब दिया-"मैं अपने साथ के कई दोस्तों से मार्क्सिज़्म-लेनिनिज़्म पर बातचीत करता रहता हूँ, बेहतर होगा कि उनके बहुत से सवालों के जवाब देने के लिए आप भी मौजूद रहें। चलते-चलते डॉ० शुक्ला ने कुछ पुस्तिकाएं और भी मांग लीं। अगले इतवार को 'मेडिकल हॉस्टल' में हुई मीटिंग में कुल 9 लोग थे। कॉमरेड भारद्वाज को छोड़ सभी मेडिकल छात्र थे।

कुछ दिनों के बाद गर्मियों की छुट्टियां थीं। घर जाते समय वह पत्नी के लिए तोहफ़े के तौर पर एक किताब लेते गए। रूसी लेखक मेक्सिम गोर्की के इस उपन्यास का शीर्षक था 'माँ'। शादी के बाद से लेकर आज तक उनकी तरफ़ से पत्नी को दिया जाने वाला यह यह पहला तोहफ़ा था। पति से इस तरह किसी किताब का तोहफ़ा पाकर वह 'चूंच' गईं। झेंपते हुए उन्होंने पूछा- " इसका क्या होगा?" बटेश्वर प्रसाद ने जवाब दिया- "पढ़कर तो देखो, अलग तरह का सुख मिलेगा।"

मुन्नी देवी पर अब तक श्वसुर द्वारा लायी गयी धर्म और समाज की पुस्तकों की साफ़-सफ़ाई और 'मेंटिनेंस' की जिम्मेदारी रहती थी। उन्हीं में से कुछ को वह कभी- कभार पढ़ भी लेती थीं। उन्हें 'तोता-मैना' बहुत भाती थी। यूं उन्हें 'चंद्रकांता' भी बेहद पसंद था। 'बाबूजी' बनारस से ख़ास बटेश्वर बहू के लिए इसे लाए थे। पढ़ने को राजकुमारी चंद्रकांता और राजकुमार विक्रम सिंह की प्रेमकथा के उतर-चढ़ाव को वह बड़ी दिलचस्पी से पढ़ती लेकिन इससे भी ज़्यादा मज़ा, रहस्य और रोमांच उन्हें ऐयार तेजसिंह और ऐयारा चपला की कहानी में मिलता। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि 'बाबूजी' ने कोई सामान मंगवाया, भोला बाहर खड़ा पुकारता रहा और वह पढ़ने में ऐसी डूबीं रहीं कि उन्हें भोला की आवाज़ ही नहीं सुनाई दी। बड़की बहनी (जेठानी) आईं, आकर उन्होंने उन्हें ज़ोर की चिकोटी काटी तब कहीं जाकर उनकी तन्द्रा टूटी। बहनी ढेर बिगड़ी। (हालाँकि उनका ग़ुस्सा बहुत क्षणिक होता था।)

एकाध बार पति ने मज़ाक बनाया- यह भी कोई कहानी है! पति द्वारा दी गई भेंट को जब उन्होंने उल्टा-पुल्टा तो यह कुछ अलग क़िस्म की किताब लगी। छुट्टियों में वह किताब पढ़ती गईं और सवाल पूछती गईं। उपन्यास और उसकी कथा के जरिए पति-पत्नी के बीच होने वाला यह पहला राजनीतिक संवाद था जिसने आगे चलकर प्रणय के उनके रिश्तों को अलग सांचों में ढालना शुरू कर दिया।

'माँ' का चरित्र उन्हें अच्छा तो लग ही रहा था, उनकी मानसिक उत्तेजना भी बढ़ा रहा था। उन्हें पति की इस बात पर सहज विश्वास नहीं हो पा रहा था कि यह असल जीवन से उठाई गई कोई कहानी है। किताब के बहाने रूस और रूस के बहाने यूरोप की सांस्कृतिक दुनिया उन्हें अजीबोग़रीब लगती। वह जितना हैरान 'आलू शोरबे की सब्ज़ी' के बारे में सोच-सोच कर होतीं उतना ही परेशान चोंगे के भीतर पर्चे छुपाकर माँ के फ़ैक्ट्री के भीतर जाने और फिर तलाशी के विवरण से होतीं। पावेल की पहली गिरफ़्तारी पर वह बेहद डर गई थीं। उन्हें लगा- अब इस बेचारी माँ का क्या होगा? उन्हें इस बात ने बड़ी हैरत में डाला कि माँ बिना चिंतित हुए बेटे के साथियों के साथ उनकी यूनियन और पार्टी के कामों में जुट गई।

एक दिन उन्होंने पति से बहुत झेंपते हुए कहा कि उन्हें सचमुच अलग तरह का सुख मिल रहा है।

(वरिष्ठ कम्युनिस्ट क्रन्तिकारी स्व० डॉ० बी०पी० शुक्ला की जीवन गाथा )

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