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- 1928 जनवरी का महीना...
1928 जनवरी का महीना ..। शाम के झुटपुटे में रेत पर बैठे बापू, समुद्र को निहारते उदास से बैठे थे।
मनीष सिंह
बापू पोरबंदर में अपने घर आये थे। दोपहर में एक कान्फ्रेंस थी, अब खत्म हो चुकी थी। दुनिया को दिशा देने वाला मोहनदास का दिल भी डूबता था। निराशा उस पर भी छाती थी। भारी ताकतवर अंग्रेजी राज, अपनी ताकत में इंच भर की कमी बरदाश्त नही कर सकता था। पुलिस, जेल, लाठी, औऱ गोली उंसके औजार थे, भय उसका आधार!!
और हिन्दुतानियो के पास क्या था, कुछ भी नही!!! ये तो हिंदुस्तानी भी न थे- पंजाबी थे, बंगाली थे, सिंधी और गुजराती थे, कश्मीरी तमिल और मराठी थे। हिन्दू थे, और मुसलमान थे। ग़ुलाम आत्मा थी, दिल मे नफरत और भय था.. अविश्वास था। अविश्वास खुद पर, अपनी नियति पर, आस पड़ोस पर। इस नफरत, भय और अविश्वास को प्रेम, हिम्मत और आत्मविश्वास में बदलना बेहद कठिन प्रयोग था। राह क्या थी, गांधी खोए थे।
ठंडी सांस भरते गांधी ने सागर को देखा। उठती गिरती लहरें, दूर तक विस्तार.. खारा पानी। अब तो इसका खारापन भी सरकारी हो गया था। बरसों से लूटती आ रही सरकार ने अब हर गरीब की थाली पर टैक्स थोप दिया था। आम आदमी नमक नही बना सकता सरकार बनाएगी बेचेगी। एक मिनट ... !!
बापू के दिमाग मे बिजली कौंधी। जो भारतीय है, उनकी संस्कृति में हिंसा नही। सच्चे हिन्दू हत्या नही कर सकते, असल ईमान का मुस्लिम दंगे नही कर सकते .. और मुट्ठी भर को छोड़ इस देश मे सच्चे हिन्दू और ईमान वाले मुसलमान हैं। ये मार नही सकते, मर सकते हैं। मिलकर जी सकते हैं, मिलकर नमक बना सकते हैं ?? घर घर मे, समुद्र तटों पर, सड़कों के किनारे, साथ साथ, हजारों लोग, लाखों लोग, एक साथ..
हां,एक साथ- ये साथ जरूरी है।
सागर ने उत्तर दे दिया था। गांधी मुस्कुराए, सागर भी हंस दिया। बापू उठे, धीमे धीमे चलते हुए वापस आने लगे। कदमो के निशान रेत पर बन रहे थे। पोरबंदर का सागर आखरी बार अपने महान बेटे को जाते देख रहा था। एक होठ लहर बढ़ाकर उसने पैरों के निशान चूम लिए।
आंदोलन के प्रतीक विरोध के लिए नही होते। वो लोगों के दिल से भय, नफरत और अविश्वास को खींचकर प्यार, हिम्मत और आत्मविश्वास लाने के लिए होते हैं। आखिर मुट्ठी भर नमक ब्रिटिश सरकार का कुछ नही बिगाड़ सकता था। लालसा के साथ खरीदे गए विदेशी कपड़े को एक गरीब, सड़क पर होली जला दे। इस होली से किंग जार्ज को फर्क नही पड़ता। चरखे की तकली से पुलिस के हाथ नही बंधते।
मगर दिल जुड़ जाते हैं, एक हो जाते हैं, सोच मिल जाती हैं। और आततायी सरकार का सिंहासन डोलने लगता है। आततायी जनता की एकता से डरता है। वो निरापद, मगर सामूहिक कर्म से कांप उठता है। वो तर्कहीन है, बात करने से डरता है। उसे तो हिंसा चाहिए, झगड़े चाहिए, अफवाहें चाहिए, अविश्वास, भय और अलग अलग झुंड चाहिए। इससे निपटना आसान है। खुदीराम, उधमसिंह, सूर्यसेन, मदनलाल, भगतसिंह, आजाद से एक एक कर निपटना आसान है।
पर गांधी से डर लगता है।
गांधी जोड़ देता है। जब लाखों हाथ एक साथ जुड़कर मोमबत्तियां जलाने लगते हैं। मानव श्रृंखला बंनाने लगते है। फ़ैज़ की नज्में और शुभा मुद्गल का गीत सुनने लगते है, लंगर में बनी बिरयानी चखने लगते हैं, प्रेम करने लगते हैं, विश्वाश करने लगते हैं, तो वो भयमुक्त हो जाते हैं, आत्मविश्वासी हो जाते हैं। जब वो एक हो जाते हैं, सवाल करते हैं, संविधान दिखाते है। वो सहानुभूति दिखाते है, उनसे जिनके परिजन आतताई सत्ता की लापरवाही से, उसके अहंकार से मारे गए हों। जनता जब जेल और बंदूकों से डरना बन्द कर दे..
.. तो सरकार को डर लगता है। बरेटा से नहीं, तकली से डर लगता है। एकता, निडरता और सौम्यता गांधीयों के हथियार हैं, जिनसे सरकारों को डर लगता है। मगर केवल ऐसी सरकारों को, जिसकी सत्ता नफरत की बुनियाद पर रखी गयी हो।
उसे जल्द से जल्द, हिंसा चाहिए।