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डरी हुई मीडिया से बिकी हुई मीडिया ज्यादा खतरनाक होती है जानते हो क्यों
शिव कुमार मिश्र
30 April 2018 4:16 PM GMT
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मीडिया की वर्तमान स्थिति बतलाता बेहतरीन आलेख बिका हुआ मीडिया डरे हुए मीडिया से अधिक खतरनाक है।
हेमंत कुमार झा की कलम से गिरीश मालवीय के द्वारा
मीडिया की वर्तमान स्थिति बतलाता बेहतरीन आलेख बिका हुआ मीडिया डरे हुए मीडिया से अधिक खतरनाक है। लेकिन, सबसे खतरनाक है सत्ता सापेक्ष मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध मीडिया, जो सत्ता संरचना का ही एक अनिवार्य कंपोनेंट बन जाता है और कृत्रिम धारणाओं का निर्माण कर प्रतिगामी मूल्यों के प्रतिस्थापन में निर्णायक भूमिका निभाता है।
डरा हुआ मीडिया अधिक नहीं गिर सकता। वह सिर्फ कुछ जरूरी मुद्दों से अपनी आंखें फेर लेगा। बिके हुए मीडिया के गिरने की भी एक सीमा है। लेकिन, पूरे नैरेटिव को किसी खास दिशा में मोड़ कर जरूरी मुद्दों को नेपथ्य में डाल सत्ता-संरचना के व्यापक उद्देश्यों की राह प्रशस्त करते प्रतिबद्ध मीडिया के गिरने की कोई सीमा नहीं होती। वह पूरी तरह जन-निरपेक्ष है, बल्कि अपने चरित्र से ही जनविरोधी है। इसने बढ़ती बेरोजगारी, गरीबों की शिक्षा और चिकित्सा, श्रमिकों के मुद्दों आदि को विमर्श के दायरे से ही बाहर कर दिया। विशेष कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इन संदर्भों में सारी हदें पार कर ऐसे मुद्दों को विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया, जिनसे आम आदमी का कोई लेना-देना ही नहीं। यह न डरा हुआ है, न बिका हुआ है। यह स्वयं में सत्ता का ही एक अंग है। यह कारपोरेट कम्पनियों में तब्दील हो चुका है जिसका प्रमुख उद्देश्य सत्ता और कारपोरेट गठजोड़ के कुकृत्यों पर पर्दा डालना है और लोगों को ऐसे नशे में गाफिल रखना है कि वे सोचने-समझने की शक्ति खो दें।
यह बड़ी गलतफहमी है कि प्रमुख मीडिया कंपनियां मुनाफे के लिये मरी जा रही हैं। नहीं, अब इनका मुख्य उद्देश्य मुनाफा रहा ही नहीं। बड़े कारपोरेट घराने मीडिया में अपना पूंजी निवेश बढाते जा रहे हैं। ऐसा ये मुनाफा के लिये नहीं कर रहे। उनके उद्देश्य व्यापक हैं। मीडिया तंत्र पर आधिपत्य से तमाम विमर्शों को अपने हितों की ओर मोड़ने की उनकी क्षमता में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। वे राजनीतिक एजेंडा सेट करते हैं, गैर जरूरी सामाजिक मुद्दों को हवा देकर लोगों की ऊर्जा को गलत दिशा में भटकाते हैं, सामाजिक-सांस्कृतिक विभाजन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित कर सामूहिक चेतना को नष्ट करते हैं। इस तरह वे जन प्रतिरोध की संभावना को खत्म करते हैं।
विकसित यूरोपीय देशों ने इस संकट की पहचान कर नियामक तंत्र को एक्टिवेट किया और कानून बना कर मीडिया व्यवसाय में पूंजी की मनमानियों पर लगाम कसने में कुछ हद तक सफलता पाई। कई देशों में मीडिया कंपनियों के शेयर खरीदने की सीमा तय कर दी गई। इसमें वहां के लोगों के बौद्धिक स्तर और सामूहिक चेतना की भी बड़ी भूमिका रही। हमारे देश में न्यूज चैनल जिस तरह बेवजह के मुद्दों पर लोगों को उलझाए रखते हैं, वहां यह संभव नहीं हो सका। स्वीडन में चैनलों की इन प्रवृत्तियों पर अपना विरोध दर्ज करने के लिये लोगों ने टीवी का रुख खिड़की की ओर कर दिया और टीवी को ऑन कर बाहर टहलने निकल जाने लगे। विरोध के इस तरीके ने राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया और चैनलों को अपना कंटेंट सुधारने पर विवश होना पड़ा।
भारत इस मामले में अनोखा देश है। यहां बेरोजगारी की मार से त्रस्त युवक दीपिका पादुकोण के प्रेम प्रसंगों पर आधे घण्टे का प्रोग्राम आराम से देखता रहता है और फिर चैनल बदल कर नागिन के बदले का उत्सुक दर्शक बन यह भूल जाता है कि उसके रोजगार की संभावनाएं किस तरह सिकुड़ती जा रही हैं, कि कैसे उसकी तरह के लोगों से शिक्षा और चिकित्सा की सुविधा छीन कर उन्हें मुनाफे के तंत्र में बदला जा रहा है। उसे नहीं पता कि टीवी पर चल रहा राजनीतिक घमासान किस तरह फिक्स है और कैसे पक्ष-विपक्ष मिलकर उसके जीवन से जुड़े जरूरी मुद्दों को उसके ज़ेहन से दूर कर रहे हैं।
मीडिया के अपने कुछ शाश्वत मूल्य हैं जो प्रगतिशील लोकतांत्रिक समाज में उसकी अनिवार्यता को सैद्धांतिक आधार देते हैं। सत्य के प्रति आग्रह और जनपक्षधरता आदर्श रूप में इसकी मौलिक प्रवृत्ति है। किंतु, उत्तर-सत्य ( Post-truth) के इस दौर में मुख्य धारा की मीडिया ने पहली हत्या सत्य की ही की और जनपक्षधरता की जगह सत्ता-सापेक्षता ने ले ली। सत्ता की भाषा ही मीडिया की भाषा बन गई। शाश्वत मूल्य तिरोहित होते गए और जो सामने है...वह मीडिया की शक्ल में एक नशा है, एक भटकाव है। सत्य नेपथ्य में है और कृत्रिम सत्य हमारी चेतना पर इस तरह हावी है कि हम खुद अपनी पहचान भी नहीं कर पा रहे।
शिव कुमार मिश्र
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