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- मुसलमानों का संघ प्रेम...
पिछले हफ्ते देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम समाज के संबंध से दो घटनाएं घटी, एक तो कुछ मुसलमान अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात की, दूसरी घटना संघ प्रमुख भागवत दिल्ली में एक मस्जिद पहुंच गए जहां उमैर इलियासी इमामत करते हैं जो इमामों के एक संगठन का खुद को अध्यक्ष बताते हैं। एक हफ्ते में दोनों खबरों ने देश विभिन्न तबकों खासतौर से मुसलमानो में एक बहस छेड़ दी कि आखिर इन दोनों घटनाओं के पीछे क्या कारक सक्रिय हैं और इनसे क्या हासिल हो सकता है। दोनों घटनाओं को लेकर निंदा और समर्थन का दौर जारी है और पक्ष विपक्ष में दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं।
हम पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत के मस्जिद जाने का विश्लेषण करते हैं कि आखिर क्या कारण हो सकते हैं जो हिंदुत्व पर एकाधिकार रखने वाले संगठन के प्रमुख मस्जिद चले गए। दरअसल उस मस्जिद के इमाम उमैर इलियासी के पिता जो इनसे पहले यहां इमाम हुआ करते थे के भाजपा से अच्छे संबंध थे और वाजपेई दौर में जमील इलियासी ने वाजपई हिमायत कमेटी भी बनाई थी। मौलवी जमीन इलियासी के भाजपा ही नहीं संघ के उस समय के नेताओं से भी अच्छे संबंध रहे थे। तो हो सकता है कि उनके पुत्र उमैर इलियासी ने भी अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए इन संबंधों को बरकरार रखा हो और व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर ही मोहन भागवत मस्जिद में उनसे मिलने आए हों जहां उमैर इलियासी ने उनका शुक्रिया अदा करते हुए उन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि से नवाज़ दिया। लोकतंत्र में कोई कहीं भी जा सकता है और किसी से मुलाकात कर सकता है और कोई किसी को भी किसी अच्छी उपाधि से नवाज़ सकता है इस पर कोई बहस नहीं की जा सकती लेकिन बहस इस पर तो की जा सकती है कि आखिर संघ जैसे बड़े संगठन के प्रमुख को क्या पड़ी है जो मस्जिद जाकर भाईचारे को बढ़ावा देने का प्रयास करें। इससे पहले भी मोहन भागवत समय समय पर मुसलमानो को देश का महत्वपूर्ण हिस्सा करार दे चुके हैं। हो सकता है कि भागवत मस्जिद जाकर इस संदेश को और गहरे अंदाज में देना चाहते हों।
अब चर्चा करते हैं मुस्लिम समाज के अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों के भागवत से मुलाकात करने की। जो डेलीगेशन मोहन भागवत से मिलने गया उनमें पूर्व सांसद और प्रसिद्ध उर्दू साप्ताहिक नई दुनिया के संपादक शाहिद सिद्दीकी, देश के जाने माने मुसलमान औद्योगिक घराने से संबंध रखने वाले सईद शेरवानी, पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग शामिल हैं। आगे लिखने से पहले यह बात स्पष्ट कर दूं कि मैं इन सभी साहेबान से व्यक्तिगत रूप से मिलता रहा हूं और इनसे मेरे निकटतम संबंध भी रहे हैं और यह बात भी दावे से कह सकता हूं कि भारत में यह सभी लोग सत्ता शक्ति के चरम पर पहुंच कर भी लालची नहीं रहे हैं और इन पर व्यक्तिगत स्वार्थ हासिल करने का इल्ज़ाम भी मैं नहीं लगा सकता लेकिन इन सभी महानुभावों ने मोहन भागवत से मुलाकात जरूर की और इस कदम का मैं खुद भी आलोचक हूं। इससे पहले मशहूर मौलाना अरशद मदनी भी मोहन भागवत से मिले थे जिसका मकसद सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देना था।
मोहन भागवत से इस मुलाकात को करने के पीछे भी जो मकसद बताया गया वो भी सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देना बताया गया। मैंने डेलीगेशन में शामिल सईद शेरवानी साहब से फोन पर इस मुलाकात का मकसद पूछा तो उन्होंने तफसीली जवाब देते हुए कहा कि "हर आदमी अपने व्यक्तिगत कामों को लेकर सरकार में बैठे या प्रभावशाली लोगों के पास इसलिए जाता है कि उसकी समस्या का समाधान हो जाए लेकिन जब अपने समाज या कौम की समस्याओं को देखते हुए सरकार या उसमें प्रभावशाली व्यक्तियों से मिला जाता है तब लोग 'एजेंट' कह कर मुखातिब करते हैं तो ये नाइंसाफी है, देखिए जब समस्याएं मौजूद हों चाहे व्यक्तिगत हों या समाज के स्तर पर हों तो उनका समाधान निकालने के रास्ते ढूंढने चाहिए और यदि पावर सेंटर से समाधान होना है तो बात उससे होगी जो पावर में होगा, फिलहाल भाजपा और संघ की सरकार है, मोहन भागवत सरकार में शक्तिशाली व्यक्ति हैं तो उनसे मुस्लिम समाज की समस्याओं के समाधान हेतु मुलाकात करने में मैं समझता हूं कोई हर्ज नहीं है, मैं पहली बार भागवत जी से मिला, हिंदू मुस्लिम एकता पर चर्चा हुई तो भागवत जी ने कहा कि संघ में भी अलग अलग विचारधारा के लोग मौजूद हैं, कुछ हिंदू मुस्लिम एकता के समर्थक हैं और कुछ मुसलमानो से संवाद के खिलाफ हैं लेकिन भागवत जी खुद हिंदू मुस्लिम एकता के समर्थक रहे हैं, संघ परिवार हिंदू समुदाय का सबसे मजबूत और प्रभावशाली संगठन है और अगर संघ परिवार की तरफ से सांप्रदायिक सौहार्द की कोशिश की जाती है तो हमें भी उसका जवाब देना पड़ेगा क्योंकि सांप्रदायिक सौहार्द देश के लिए अतिआवश्यक है।"
हो सकता है कि सईद शेरवानी व प्रतिनिधिमंडल में शामिल अन्य लोगों की बात उनके तजुर्बे के अनुसार ठीक हो लेकिन फिलहाल यह बात संघ की गतिविधियों और भाजपा सरकारों के मुसलमानो के प्रति रवैए से बिल्कुल साबित नहीं होता कि मोहन भागवत और संघ परिवार सांप्रदायिक सौहार्द की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में नमाज़ पढ़ने पर मुकदमे लिखे जा रहे हैं जबकि नमाज़ या नमाज़ पढ़ने के तरीके मे कोई ऐसी बात नहीं जिसे अपराध घोषित किया जा सके। इसके अलावा दक्षिणी भारत में भाजपा और संघ के लोग लगातार मुस्लिम विरोधी गतिविधियां चलाकर हिंदुओं का ध्रुवीकरण कर रहे हैं। उत्तर भारत में दो दशक पूर्व ऐसा ही माहौल बनाया गया था। सांप्रदायिक सौहार्द कायम होना चाहिए लेकिन फिलहाल मुस्लिम कयादत इस मामले जल्दबाजी कर रही है। मुस्लिम विरोधी माहौल बना कर हिंदुत्ववादी सरकारें बनाई गई हैं और इससे ज्यादा नफ़रत भरा माहौल बन नहीं सकता और इन सभी मामलों में मूलरूप से संघ परिवार जिम्मेदार रहा है।
तीन दशकों तक नफरत के ज़हर को पीकर या पिलाकर आरएसएस कौन सा सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करना चाहता है। नुपुर शर्मा के विवादित बयानों के बाद जो अरब व अन्य मुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया आई थी उसके बाद सत्ताधारी घटकों पर दबाव था कि दुनिया में यह संदेश दिया जाए कि हम सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ा रहे हैं। खासतौर से संघ परिवार को देश में सांप्रदायिक नफ़रत फ़ैलाने का जिम्मेदार बताया जाता रहा है, हो सकता है कि उसी कड़ी में संघ बड़ी चालाकी से अपने प्रमुख को मस्जिद भेजकर दुनिया को दिखा रहा हो कि हम शांति के संवाहक हैं। हकीकत में अभी संघ के लोगों या उसकी समर्थित सरकारों द्वारा मुसलमानो से की जा रही भेदभाव वाली कार्रवाइयां इस बात का खुला सबूत है कि मुस्लिम विरोधी एजेंडा में किसी प्रकार की कमी नहीं की गई है। सरकार से लेकर न्याय व्यवस्था तक में मुस्लिम विरोधी एजेंडा बड़ी मजबूती से चल रहा है। लेकिन मोहन भागवत या हिन्दू मुस्लिम एकता के अलंबरदार भाजपा और संघ के लोग इस मामले में आंखें बंद कर चुप्पी साधे चुपचाप तमाशा देख कर मज़े लेते रहते हैं। मुसलमान कयादत को इन सभी चीजों पर गौर फिक्र कर ही ऐसी मुलाकातें करनी चाहिए। सांप्रदायिक सौहार्द के लिए हिंदू समाज के गैर संघी समूहों से भी बातचीत की जा सकती है। जरूरत फिलहाल संघ के दुष्चक्र से बचने की है क्योंकि अभी उसकी नीयत साफ नहीं है।