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नर्मदा यात्री दिग्विजय क्या अब राहुल और प्रियंका के साथ भारत यात्रा पर..
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शकील अख्तर
विपक्ष में सबसे महत्वपूर्ण होता जनता की आवाज बनना। और यह आवाज बनी जाती है जन आंदोलनों के जरिए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इनका महत्व समझती हैं। 2004 लोकसभा चुनाव से पहले वे खुद सड़कों पर उतरी थीं और जनता ने इसका प्रतिफल दिया था जीत के जरिए। अब सोनिया की निगाहें 2024 के लोकसभा चुनाव पर हैं। विपक्षी नेताओं के साथ बातचीत में उन्होंने सबसे ज्यादा जोर आगामी लोकसभा चुनाव पर ही दिया था। इसी क्रम में उन्होंने अपनी पार्टी को तैयार करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति की घोषणा की है। जिसमें पार्टी की महासचिव और यूपी इन्चार्ज प्रियंका गांधी को रखा है। प्रियंका आम तौर पर किसी कमेटी में नहीं होती हैं। लेकिन आंदोलनों की तैयारी, रुपरेखा बनाने और सड़क पर संघर्ष के लिए बनी इस समीति में प्रियंका को होना ही इसके महत्व को बताता है। सोनिया गांधी की निगाह में यह समिति कितनी महत्वपूर्ण है यह इससे और पता चलता है कि इसका संयोजक उन्होंने सड़क पर सबसे ज्यादा लड़ने वाले और मोदी सरकार से नहीं डरने वाले वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को बनाया है।
मोदी सरकार के सात साल और खास तौर से दूसरे कार्यकाल के ये दो साल कांग्रेसी नेताओं का परीक्षा काल रहे। बड़े बड़े नेता जो खुद को पार्टी के छात्र संगठन एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस से निकला बताते थे इस दौर में सत्ता की प्रशंसा करते देखे गए। हालांकि यह क्रम 2014 से चालू था। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता घुमा फिराकर प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करते थे। तारीफ करने में कोई बुराई नहीं है मगर उसके स्वर ऐसे होते थे कि वह तारीफ जितनी मोदी की तरफ जाती थी उससे ज्यादा राहुल गांधी की आलोचना और सोनिया पर सवाल की दिशा में मुड़ती थी। 2019 के बाद तो यह गति और तेज हुई। राहुल को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया को पत्र लिखकर कांग्रेस के काम काज पर सवाल उठाए। यह भी 2014 के बाद वाला ही पेटर्न था। जिसमें सोनिया और राहुल पर हमले जितना ही जोर मोदी को खुश करने पर भी था। ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद भाजपा को उपयोगी लगे। उन्हें एन्ट्री मिल गई। बाकी सब लाइन में लगे हैं। सबसे बुरा हुआ सचिन पायलट के साथ। वे खुदा ही मिला न विसाले सनम वाली स्थिति में फंस गए। वसुन्धरा राजे ने उन्हें भाजपा में नहीं आने दिया। अलग पार्टी बनाने की उन्होंने हिम्मत नहीं की। और कांग्रेस ने उन्हें सुबह का भूला कहकर स्वीकार तो किया मगर कुलिंग पीरियड में डाल दिया। जिसका राजनीति में मतलब होता है कि आराम करो। हम तुम पर निगाह रखे हुए हैं। कांग्रेस के एक बड़े नेता और जो राजस्थान के मामलों में असर रखते हैं ने कहा कि कम से कम एक साल का कूलिंग पीरियड होना चाहिए। अब वह एक साल भी पूरा हो गया है।
तो इन स्थितियों में सोनिया गांधी को अपने पुराने वफादार साथियों की याद आना स्वाभाविक थी। युद्ध की तरह राजनीति में भी माना जाता है कि उस हार का अफसोस नहीं होता जो विरोधियों के हाथ हुई हो। कसक वह हार देती है जिसमें अपनों का भी हाथ हो। 2014 में कांग्रेसी लड़े ही नहीं। हालांकि लड़ना तो उन्होंने 2012 से ही छोड़ रखा था जब अन्ना हजारे के जरिए देश में एक छद्म आंदोलन चलाया जा रहा था। दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय में आकर वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं जिनमें गृह मंत्री चिदम्बरम तक थे पर जूते और चप्पलें फेंके जा रहे थे। कृषि मंत्री और उस समय के भी और आज के भी सबसे दबंग नेताओं में से एक शरद पवार के गाल पर चांटा मारा जा रहा था। और अन्ना कह रहे थे कि केवल एक गाल में दूसरे में नहीं। उस समय दिग्वजिय सिंह ने केन्द्र सरकार और कांग्रेस कि किंकर्तव्यविमुढ़ता के मूल कारण पर उंगली रखते हुए कहा था कि सत्ता के दो केन्द्र नहीं होना चाहिए। उनका इशारा साफ था कि राहुल को सत्ता संभालना चाहिए। उस समय कांग्रेस के कई नेता अन्ना हजारे और रामदेव में देवत्व खोज रहे थे। मगर दिग्विजय साफ कह रहे थे कि ये संघ के एजेन्ट हैं। उस समय हालत इतने मजेदार थे कि दिग्विजय कांग्रेस के समर्थन में जैसे ही कुछ भी बोलते थे दूसरी तरफ से कांग्रेस का ही एक बयान आ जाता था कि ये उनकी व्यक्तिगत राय है। साथ ही पत्रकारों को आफ द रिकार्ड यह बता दिया जाता था कि उनके बोलने पर पाबंदी लगा दी गई है। दिग्विजय से जब इस बारे में पूछा जाता था तो वे हंसते हुए कहते थे कि कांग्रेस अध्यक्ष ने तो मुझसे कुछ कहा नहीं। हां एक बार यह जरूर दिग्विजय ने पत्रकारों से कहा था कि उन्हें शेरों से कभी डर नहीं लगता। मगर यहां (दिल्ली) के चुहों से लगता है। वे कब किसे कुतरना शुरू कर दें पता नहीं चलता।
दिग्विजय के इन तेवरों से कांग्रेस के दरबारी नेताओं के अलावा भाजपा भी परेशान रहती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में एक तरफ कांग्रेस ने दिग्विजय को भोपाल की मुश्किल सीट से लड़ने को कहा तो दूसरी तरफ भाजपा ने वहां अपनी सबसे बड़ी तोप साध्वी प्रज्ञा सिंह को उतारा। लेकिन वह हार भी दिग्विजय के मनोबल को तोड़ नहीं पाई। अभी पिछले दिनों भोपाल में एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा मारी जा रही पानी की तेज बौछारों और लाठियों के बीच उन्हें बेरिकेट्स पर चढ़ते देखा गया। तो कुछ दिनों बाद यूथ कांग्रेस के दिल्ली में संसद घेराव में पुलिस की बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ते हुए।
शायद कुछ लोगों के स्वभाव में ही संघर्षशीलता होती है। और इस मुश्किल समय में सोनिया ऐसे लोगों को ढुंढ कर जो पार्टी में कम हैं, मोर्चों पर लगा रही हैं। खुद उनमें गजब की संघर्ष क्षमता है। 2019 में जब कोई पार्टी का अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था। उन्होंने कांटों का ताज फिर अपने सिर पर रख लिया। शायद सोनिया को वे दिन भी याद गए जब वे 10 जनपथ में अपने बच्चों के साथ अकेले रहती थीं और अगर कोई नेता हाल चाल पूछने आ जाए तो कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी और प्रधानमंत्री नरसिंहा राव उसके हाल पूछ लेते थे। ऐसे में दिग्विजय सिंह जो उस समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे उनके समर्थन में अपना मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार हो गए थे। जब 1998 में वे कांग्रेस अध्यक्ष बनीं तो पार्टी के केवल तीन मुख्यमंत्री थे। और केसरी पार्टी फंड खाली करके गए थे। ऐसे में दिग्विजय ही आगे आए थे और उन्होंने पार्टी चलाने की सारी व्यवस्थाएं जुटाईं थीं। पचमड़ी में कांग्रेस सम्मेलन करके कांग्रेस में नया जोश भर दिया था।
संभवत: सोनिया को सब याद आया हो और अपनी आखिरी पारी खेल रहीं उन्होंने नए नेतृत्व का साथ देने के लिए वफादार और बेखौफ लोगों को फिर खड़ा करना शुरू किया हो। दिग्विजय उनके देखे परखे नेता हैं। चार साल पहले वे एक जोरदार बाजी पलट कार्यक्रम कर चुके हैं। उनकी नर्मदा परिक्रमा ने मध्य प्रदेश में 15 साल से जमी हुई भाजपा सरकार को उखाड़ दिया था। दिग्विजय 2017 में इसी सितंबर के महीने में जब यात्रा शुरू करने से पहले सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मिलने गए थे तब उन्होंने सुझाव दिया था कि राहुल एक यात्रा पर निकलें। यात्रा देश भर में हो और पैदल हो। अगर यह यात्रा होती तो कार्यकर्ताओं में उत्साह आता और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ज्यादा सीटें निकाल सकती थी। राहुल का पार्टी पर प्रभुत्व स्थापित होता और जी 23 बनाकर किसी का उन्हें चुनौती देने का साहस नहीं होता।
हो सकता है नई परिस्थितियों में कांग्रेस को यह आइडिया जम जाए। आंदोलन, जनजागरण करने के लिए बनी समिति का प्रस्ताव आने पर राहुल 'भारत एक है' जैसी किसी पद यात्रा पर निकल पड़ें। दो अक्टूबर आ रहा है। बापू को प्रणाम करके राजघाट से किसानों के धरने पर होते हुए उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और जिधर चाहें निकल जाएं। महंगाई, बेरोजगारी, रेल सड़क सब बेचने, कोरोना की दूसरी लहर में नहीं मिली चिकित्सा सुविधाएं, किसान, मजदूर अपने सारे सवालों को जनता के बीच रख दें। साढ़े छह महीने की 3300 किलोमीटर की पद यात्रा का अनुभव रखने वाले दिग्विजय साथ हों। प्रिंयका उत्तर प्रदेश में हो। और 15 अगस्त 2022 भारत की आजादी की 75 वीं सालगिरह पर इसका समापन हों। यात्रा से कार्यकर्ताओं का उत्साह आसमान छूने लगेगा और पार्टी में राहुल को चुनौतियां दे रहे लोगों का मनोबल जमीन पर आ जाएगा।