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राष्ट्रीयता बनाम साम्राज्यवाद, गरीब और मध्यवर्ग की बेबसी गाँधी का आगमन
सुनील कुमार मिश्र
वर्तमान परिदृश्य और उस समय के परिदृश्य मे काफी समानता है। गरीब सड़क पर भूखा, प्यासा बेरोजगार, मध्यमवर्ग बुरे वक्त से बुरी तरह से सशंकित। बड़ा और छोटा व्यापारी, गरीब, नौकरी करने वाला हर वर्ग भविष्य को लेकर चिंतित। फिर मुखी का आत्मनिर्भर भवः कह कर पल्ला झाड़ लेना, फिर लंगड़ी व्यवस्था के प्रति विश्वास जाहिर करना ☛हमे विश्वास है ये उठेगा, चलेगा और दौड़ेगा। बताने की आवश्यकता नही ☛अनर्थव्यवस्था के गहरे जानकार है, बोले है तो ठीक ही बोले होंगे।
मन में वर्तमान परिदृश्य को देखकर गहरा अवसाद पनप रहा था कि अचानक याद आया नेहरु का लेख, जो अवसाद से बाहर लाता है और मार्ग दिखाता है☛ पहला विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ। राजनीति उतार पर थी। इसका कारण था कांग्रेस का तथाकथित नरम दल और गरम दल मे विभाजन और युद्ध काल मे लागू किये गये नियम और प्रतिबंधित।
अन्ततः विश्वयुद्ध समाप्त हुआ और शांति के परिणामस्वरूप देश मे राहत और प्रगति के बजाय दमनकारी कानून और पंजाब मे मार्शल ला लागू हुआ। जनता मे अपमान की कड़वाहट और आवेश भर गया। ऐसै समय मे जब हमारे देश के पौरुष को लगातार कुचला जा रहा था। शोषण की निर्मम और अनवरत प्रक्रिया से हमारी गरीबी बढ़ रही थी और हमारी जीवन शक्ति क्षीण हो रही थी, संवैधानिक सुधार और नौकरियों के भारतीयकरण की लगातार बातचीत जैसे मजाक और अपमान जनक हो गई।
लेकिन हम लाचार थे, इस दुष्चक्र को कैसे रोका जा सकता था। ऐसा लगता था कि किसी सर्वशक्तिमान राक्षस के चंगुल मे फंसे हम बेबस थे, हमारे शरीर को जैसे लकवा मार गया था, हमारे दिमाग जैसे मुर्दा हो गये थे। किसान वर्ग चापलूस और भयभीत था। कारखानों में भी मजदूरों की स्थिति बेहतर नहीं थी मध्य वर्ग एवं बुद्धिजीवी लोग जो इस सर्वग्राही अंधकार मैं आकाशदीप हो सकते थे वह खुद इस सर्वव्यापी उदासी में डूबे थे।
और तब गांधी का आगमन हुआ। वे एक ताजा हवा के झोंके की तरह आए जिसमे फैल कर हमें गहरी सांस लेने की योग्य बनाया। वे आलोक की ऐसी किरण की तरह आये जिसने अंधकार को भेदकर हमारी आँखों के सामने से पर्दा हटा दिया। वे एक ऐसै बवंडर की तरह आये जिसने बहुत सी चीजों को उलट-पुलट दिया, विशेषकर लोगों के सोचने के दिमागी तरीके को। वो ऊपर से अवतरित नही हुये थे, वे भारत की करोड़ों की आबादी के बीच से ही निकल कर आये थे। ये उन्ही की भाषा बोलते थे और लगातार उनकी और उनकी सोचनीय स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करते थे। उन्होंने हमसे कहा कि इन कि इन मजदूरों और किसानों की पीठ मे उतर जाओ, तुम सब, जो उनके शोषण के सहारे जिन्दा हो उस व्यवस्था को समाप्त कर दो, जो इस गरीबी और दुर्गति की जड़ है। राजनैतिक स्वतंत्रता ने एक नया रुप लिया एक नया अर्थ ग्रहण किया। वे हमेशा सामान्य जनता की खुशहाली पर नजर रखते थे। हमारे प्राचीन ग्रन्थों मे कहा गया है कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र के लिये सबसे बड़ा उपहार होता है अभय (निर्भयता), केवल शारीरिक साहस नही बल्कि मन मे भय का अभाव। इतिहास के प्रभात मे ही जनक और याज्ञवल्क्य ने कहा था कि नेताओं का प्रथम काम जनता को निर्भय (जनता) बनाना है।