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- नई तकनीक और पिछड़ती...
प्रमोद रंजन
सोशल मीडिया, आर्टिफिशियल इंटलीजेंस आदि को लेकर भारतीय समाज में कुछ ऐसा स्वागत का भाव है, जैसे यह कोई ईश्वरीय देन है। पश्चिम में जहां इसके खतरों पर जोरदार बहस हो रही है, वहीं भारतीय वर्नाक्युलर बुद्धिजीवी इसे गंभीर विमर्श के लायक भी नहीं समझ रहा। विशेषकर हिंदी में तो स्थिति बहुत ही बुरी है।
सबस पहले यह समझना आवश्यक है कि इस नई तकनीक का आना वैसा ही नहीं है, - जैसे कि किसी शक्तिशाली ट्रैक्टर इंजन, किसी जूसर, किसी मिक्सर ग्राइंडर का आना था। इसका प्रभाव प्रिंटिंग-टेकनॉलिजी, टीवी प्रसारण की तकनीक के आगमन से भी बहुत अलग और गहरा है।
पहले वाली चीजें हमारे जीवन को अधिकांश मामलों में सिर्फ बाहर से छूती थींं, और प्रकारांतर से आग के आविष्कार, चक्के के आविष्कार, अस्त्र-शस्त्र के आविष्कार की अगली कड़ी भर थे। उनमें कोई बड़ा मूलभूत अंतर नही था। मौजूदा स्थिति की तुलना पहले के उन एकाकी आविष्कारों से नहीं की जा सकती। औद्योगिक क्रांति के दौर में जो मशीनें आईं उन्होंने सिर्फ शारीरिक श्रम में हाथ बंटाया था। लेकिन इक्कसवीं सदी में ‘बुद्धिमत्ता क्रांति’ हुई है, जिसमें मशीनें हमारी मानसिक, सृजनशील सहयोगी के रूप में समाने आ रही हैं।
पिछले कुछ दशकों से उपरोक्त तकनीक का उत्तरोत्तर विकास हो रहा है, उसने मनुष्यता के विकास-क्रम को एक महान छलांग दे दी है। एक ऐसी छलांग जहां से पिछला सिरा बिल्कुल छूट जाता है और हम स्वयं को एक नई जमीन पर देखते हैं। हां, हम हैं अभी भी जमीन पर ही। दर्शन में कमोवेश इसे ही एंथ्रोपोसीन (नव मानवाक्रांत कल्प), ट्रांस ह्यूमनिज्म (मानवेत्तर काल) और पोस्ट ह्यूमनिज्म (उत्तर-मानववाद) कहा जा रहा है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता का क्रमिक विकास तकनीक के प्रभाव को बहुत जटिल, बहुआयामी बनाता जा रहा है। अब यह सिर्फ मनुष्य के बाहर नहीं है, बल्कि उसके भीतर भी है। उसमें मनुष्य के मन, विचार और दृष्टिकोण को परिवर्तित करने की क्षमता है।
मौजूदा तकनीक से संबंधित इन बातों को गंभीर विमर्श के दायरे में लाए बिना हम जो कुछ करेंगे, वह निरर्थक होगा। इस समय हिंदी के बौद्धिक जिन विषयों पर बहुत गंभीर होकर विमर्श कर रहे हैं, उन सबसे कई गुणा अधिक महत्वपूर्ण, प्रासंगिक और दूरगामी महत्व का विषय का यह है। कुछ शाश्वत विषय इसके अपवाद हाे सकते हैं, लेकिन उनपर नया काम सदियों में कोई एक होता है।
आज तकनीक पर कामचलताऊ ढ़ंग से लिखने-बोलने से से काम नहीं चलेगा, जैसा कि हिंदी बुद्धिजीवी अभी कर रहे हैं। बल्कि इस बारे में हल्की-फुल्की भाषा में सामग्री पढ़ने की चाह रखने से भी बाज आना चाहिए। चलताऊ भाषा में आप नए उपकरणों की गुणवत्ता की, उनके उपयोग आदि की जानकारी ले-दे सकते हैं। किसी स्मार्ट उपकरण समीक्षाएं पढ़कर उसे खरीदने या न खरीदने का फैसला कर सकते हैं। लेकिन उन उपरकणों के व्यक्ति के शरीर, उसकी चेतना, उसके अवचेतन पर पड़ने वाले प्रभावों को उसी कामचलताऊ भाषा में चिन्हित नहीं कर सकते। उसे कैसे सार्वजनिक निगरानी में लाया जाए, किस दिशा में उसका विकास हो, किन दिशाओं में उन्हें न आगे बढ़ने दिया जाना चाहिए; इन मुद्दों पर विमर्श करने के लिए एक विशिष्ट, विभिन्न पारिभाषिक शब्दों से युक्त भाषा की आवश्यकता है। बल्कि इनमें हो रहे परिवर्तनों की गति इतनी की तेज है वह बार-बार फिसल जाएगी।
आज तकनीक पर बात करने के लिए ऐसे नए शब्दों का भी उपयोग करना होता है, जिनके अभी अर्थ तक पूरी तरह स्थिर नहीं हुए हैं। हिंदी के लेखक-पाठक के लिए यह स्थिति अधिक श्रम की मांग करने वाली और थकाऊ हो सकती है, लेकिन तकनीक पर सरलीकृत सामग्री की चाह रखने से हमें स्वयं को बचाना होगा।
हम जटिल ज्ञान और भावों को व्यक्ति करने के लिए एक विशिष्ट प्रकार की भाषा का उपयोग साहित्यिक आलोचना और समाजशास्त्रीय विमर्शों में करते आए हैं। तकनीक को विमर्श के दायरे में लेने के लिए विमर्श की वह पुरानी भाषा उपयोगी होगी, लेकिन हमें बहुत विकसित करना होगा। नई शब्दावलियों, नए मुहावरों और अभिव्यक्ति की नए प्रकार की शैलियों की तलाश करनी होगी, उसे बरतना और निरंतर नया सृजित करते रहना होगा। अंग्रेजी में यह काम हो रहा है। ऐसा कर पाना उनके लिए आसान है क्योंकि इन सब चीजों की खोज उसी भाषा को बरतने वाले लोग कर रहे हैं। इसलिए चीजों के जन्म की प्रक्रिया के साथ ही उससे संंबंधित शब्द और अभिव्यक्तियां भी स्वत: बनने लगती हैं।
लेकिन हिंदी को और अंग्रेजी से इतर अन्य भाषाओं को इससे जूझना होगा। जाे भाषाएं इस प्रसव-प्रक्रिया से नहीं गुजरेंगी, उसे बरतने वाले लोग बौद्धिक स्तर पर जल्दी ही आदिम जमाने के लगने लगेंगे।
[प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और तकनीक के समाजशास्त्र में है। संप्रति, असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर।]