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- भगत सिंह के जन्म दिन...
- मनीष आजाद
'भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की
देशभक्ति की सजा आज भी तुम्हे मिलेगी फांसी की।'
2004 में मैं किसी काम से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर पंहुचा. दिल्ली में ट्रेन पर बैठने से पहले मैंने कनाट प्लेस स्थित 'पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस' से 'भगत सिंह और साथियों के दस्तावेज' खरीदा और ट्रेन में बेफिक्र पढ़ते हुए रायपुर आ गया. संयोग से अगले दिन छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस [1 नवम्बर] था. इस अवसर पर हर साल राज्य प्रायोजित मेला लगता है. स्थानीय दोस्त के आग्रह पर मै भी मेले में जा पंहुचा. वहां एक बड़े पंडाल के अंदर राज्य की उन्नति से सम्बंधित कई झांकिया लगी थी. दूसरे कोने पर लगी एक झांकी ने मेरा ध्यान खींचा. उस झांकी का विषय था- 'नक्सल जब्त साहित्य'. उस झांकी नुमा स्टाल पर छत्तीसगढ़ के जंगलों में काम कर रहे नक्सलियों द्वारा प्रकाशित साहित्य और उनके कुछ दस्तावेज रखे हुए थे. अचानक मै चौंक गया. वहां कोने में 'भगत सिंह और साथियों के दस्तावेज' भी रखी हुए थी. और उसी के साथ लेनिन की मशहूर पुस्तक 'राज्य और क्रांति' भी रखी हुई थी. मेरे बैग में अभी भी 'भगत सिंह और साथियों के दस्तावेज' पड़ी हुई थी. क्षण भर के लिए मेरे शरीर में सुरसुरी दौड़ गयी. भगत सिंह का लिखा साहित्य कब से 'नक्सली साहित्य' की श्रेणी में आ गया.
जिनके घर मैं रुका था वे पेशे से वकील थे, और कई नक्सलियों का केस भी वे देख रहे थे. उन्होंने मुझे हंसते हुए बताया की आप रायपुर या विलासपुर जैसे शहरों में आराम से भगत सिंह को पढ़ सकते है, लेकिन जैसे ही आप शहर की सीमा लांघ कर उन जंगलों या गावों की और बढेंगे, जहाँ राज्य और पूंजीवादी घरानों के खिलाफ़ आदिवासियों-दलितों का संघर्ष चल रहा है, वैसे वैसे आपके झोले में रखी भगत सिंह की किताब भारी होने लगेगी और भगत सिंह करवट बदलने लगेंगे. वे जिंदा होने लगेंगे. और जिंदा भगत सिंह से कौन सी सत्ता नहीं डरती? उस रास्ते में यदि आप इस जिंदा भगत सिंह के साथ पकड़ लिए गये तो फिर आपको वही सजा मिलेगी जो अंग्रेजी राज्य में भगत सिंह और उनके साथियों को मिलती थी.
बाद के 17 सालों के अपने राजनीतिक जीवन में मैंने इस सत्य को खुद बहुत नजदीक से महसूस किया. कश्मीर मामलों के एक जानकार ने भी मुझे ऐसी ही एक बात बताई. एक सन्दर्भ में उन्होंने मुझे बताया की 'यू ट्यूब' पर मशहूर फिल्म 'उमर मुख्तार' देखना बहुत सामान्य बात है. लेकिन 90 के दशक में जब कश्मीर में 'militancy' अपने चरम पर थी, उस समय इस फिल्म को देखना आपको जेल पहुंचा सकता था, या आपकी जान भी ले सकता था. यानी उस समय कश्मीर में 'उमर मुख्तार' देखना या दिखाना एक राजनीतिक कार्यवाही थी.
भगत सिंह द्वारा दलितों का आह्वाहन करते हुए लिखी गयी यह पंक्ति की 'सोये हुए शेरो उठो, और बगावत खड़ी कर दो', बिहार के किसी नक्सल प्रभावित दलित बस्ती में राजद्रोह की ताकत रखती है. और इसका उच्चारण करने वाले को जेल की सलाखों तक पंहुचा सकती है.
भगत सिंह की ताकत को सबसे अच्छी तरह थाने का थानेदार समझता है. किसी भी आन्दोलन में जब वह नौजवान प्रदर्शनकारियों पर ताबड़तोड़ लाठियां बरसाता है तो यही बोलता है- 'अभी मै तेरे सर से भगत सिंह का भूत उतारता हूँ.' 'सीएए-एनआरसी' प्रदर्शन के दौरान लखनऊ में 'दीपक कबीर' और अन्य लोगों को पीटते हुए पुलिस वाले ठीक यही बात चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे.
दरअसल समाज में जिन विचारों की प्रासंगिकता होती है, उन विचारों के वाहक भी उन समाजों में अनिवार्यतः होते है. चाहे वे कम मात्रा में ही क्यों ना हो. भगत सिंह अपने विचारों में तो जीवित है ही, अपने विचार के वाहकों में आज सक्रिय भी है. इसलिए आज भगत सिंह के विचारों के निष्क्रिय पाठ से आगे जाकर भगत सिंह के विचारों के सच्चे वाहकों को पहचानना और उनसे एकाकार होना आज के समय की एक प्रमुख चुनौती है.
अंत में एक बात बताना भूल गया. उस दिन रायपुर में जब मै 'जब्त नक्सल साहित्य' में लेनिन की 'राज्य और क्रांति' को आश्चर्य से देख रहा था तो मैंने नज़र बचा कर 'राज्य और क्रांति' उठा ली थी. मुझे एक सुरियलिस्ट [surrealist] फीलिंग हुई कि शायद इसका भी कोई पन्ना मुड़ा होगा. लेकिन मैंने देखा की इस पुस्तक में अंतिम पेज तक निशान लगा हुआ था. कोई पन्ना मुड़ा नहीं था. मतलब यह किताब किसी ने पूरी पढ़ ली थी. 1931 वाले भगत सिंह तो फाँसी पर चढ़ने से पहले इसे आधी ही पढ़ पाए थे.
उसी सुरियलिस्ट फीलिंग में अचानक मुझे लगा की भगत सिंह अब संतुष्ट हैं कि आज यह किताब पूरी पढ़ी जा चुकी है.