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हमारी पत्रकारिता हमारी समझदारी का ही प्रतिनिधित्व करती है जैसे हम हैं वैसे वह भी है
स्नेहा दुबे ने कोई अनोखा काम किया है? वैसे किया ही होगा क्योंकि हर साल होने वाली यूपीएससी की परीक्षाओं में कोई चाहें पहली रैंक लाए या 600वीं उसे हम लोग आईएएस की परीक्षा पास करना ही कहते हैं.
किसे जानने में सिर खपाना है कि आईएएस उन तमाम सेवाओं में से एक सेवा का नाम है जिसे भारत संघ प्रदान करता है. इसमें दो दर्जन से अधिक सेवाएँ होती हैं जिनके लिए परीक्षा का आयोजन यूपीएससी करता है.
कौन पता लगाए कि आईएफएस यानी इंडियन फॉरेन सर्विसेज अर्थात् भारतीय विदेश सेवा की भी भर्ती इसी के द्वारा होती. और टॉप रैंकर ही इसे चुन पाते हैं चूँकि सीमित पद होता है. जबकि आईएएस के पद अधिक होते हैं क्योंकि राज्य वैकेंसी की सूचना देता है.
और फिर इसके आगे कौन पता लगाए कि आईएफएस से लेकर आईपीएस, रूकिए वह पुलिस वाला आईपीएस नहीं बल्कि इंडियन पोस्टल सर्विसेज अर्थात् भारतीय डाक सेवा, तक कई पद होते हैं. और कैसे इनकी वैकेंसी आती है.
तो जब हम लॉट साहबों को लेकर इतने निठल्ले हैं. तो हमें तो यही पता होगा ना कि स्नेहा दुबे अचानक से यूएन पहुँची और वहाँ बैठे-बैठे पर्स में से कागज निकालकर सारा बयान लिख डाला होगा. और फटाफट कह दिया. यानी देखो स्नेहा कितनी महान हैं.
ऐसे ही तो होता है, कलेक्टर राजा होता है, यह हमारी आम धारणा है. तो उसी से हमने सोच लिया कि स्नेहा ने अपने मन से सब लिख मारा. अब कौन पता करे की एनालिस्ट से लेकर स्पीचराइटर और प्रूफिंग तक का पूरा स्टाफ और विदेश मंत्रालय व पीएमओ तक के ड्राफ्टिंग हेड कॉपी चेक करते हैं.
क्या करना है जानकारी लेकर हम बस जेसीबी पर बैठी ब्यूटीफुल पत्रकारा, या फिर बुलेट और ट्रैक्टर चलाकर विभिन्न भाव-भंगिमाओं से उल-जुलुल सवाल पूछती पत्रकाराओं के प्रेजेंटेशन हमें अच्छे लगते हैं. तो बस वही सब है.
हिंदी पट्टी यानी कचरा पट्टी के पत्रकार तो और महान हैं. पूरी हिंदी पट्टी की पत्रकारिता यूपी बिहार के पत्रकारों से भरी है. जो पड़ोसी देश नेपाल के सीमावर्ती राज्य हैं और यहाँ के लोग नेपाल को कोई दूसरा देश नहीं महज दूसरी जिला भर मानते हैं.
वहीं के इलाकों के थोक भाव के पत्रकार आज तक यह ढर्रा नहीं बदल पाए हैं कि नेपाल पानी छोड़ता है. वह हर वर्ष बिना किसी लाग-लपेट के नेपाल से पानी छुड़वाकर बाढ़ लाते हैं. इनके हिसाब से जो बैराज होते हैं वह बाढ़ का पानी रोकने के लिए होते हैं. इतने तो समझदार हैं.
तो जब हमें ही समझ की नहीं पड़ी है. तो चाहें नेपाल पानी छोड़े, या अंजना ओम कश्यप विदेश नीति पूछने के लिए ऑफिस में घुस जाएं क्या फर्क पड़ता है. हमारी पत्रकारिता हमारी समझदारी का ही प्रतिनिधित्व करती है. जैसे हम हैं वैसे वह भी है.