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"इश्क में धोखा" और "दर्दे दिल" अब नहीं होता है किसी पर एतबार

इश्क में धोखा और दर्दे दिल अब नहीं होता है किसी पर एतबार
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कविता का सौंदर्य ही ऐसा है कि हम हमारी भावनाओं को सामने वाले को अहसास करा देते हैं। हमारी भावनाएं जैसी भी हो वो सामने वाले के हृदय में जन्म ले लेती है।

कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वहजिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। साथ ही कविता को परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसे परिभाषित करना बहुत व्यापक है। सही मायने में एक कविता वो है जिसमें एक रचनाकार अपनी अनुभूति से अपनी भावनाओं को आम बोलचाल में न कहके उसे शब्दों के माध्यम से उकेरकर पाठकों तक पहुंचाता है।

कविता का सौंदर्य ही ऐसा है कि हम हमारी भावनाओं को सामने वाले को अहसास करा देते हैं। हमारी भावनाएं जैसी भी हो वो सामने वाले के हृदय में जन्म ले लेती है। कविता में भावनाएं जिंदा रहती है और शब्दों की कारीगरी होती है। एक रचनाकार अपने प्रभावपूर्ण शब्दों के चयन और लेखन से पाठकों को कविता का अहसास करा देता है, जिससे कविता की परिभाषा पाठक महसूस कर लेते हैं और इसे बताने की जरूरत नहीं पड़ती।

"इश्क में धोखा"

इश्क के दस्तूर को बावस्ता निभाया हमने, तब कहीं जा कर ये चिराग जलाया हमने।

जिंदगी कट गई हमारी गमे उल्फत में सारी, फिर भी जिंदगी को बड़े हौसले से सजाया हमने।।

हम तो वो ही हैं जो कल थे उसको ही आज बदलते देखा हमने।

क्या गुनाह हुआ हमसे हमे मालूम नही है, चाँद में भी दाग था देखा हमने।।

राग छेड़ दिया अब मैंने भी बगावत का उससे।

आजतक उसे खुश करके,क्या पाया हमने।।

"दर्दे दिल" अब नहीं होता है किसी पर एतबार,

फूल चमन से टूटने के बाद नहीं खिलते हर बार...

शंमा बन जली एक परवाने पर, फिर ना रौशन हुई जो बुझी एक बार...

तोड़ दी हर रस्म वफा में तेरे लिए, तुने ही मुझे तोड़ा जो मैं ढली तेरी मूरत में हर बार.. ...

पत्थर हूँ ना तराशना मुझे अब, टूट जाऊंगी जो तराशे हर बार...

मैं भी इंसान हूँ, मेरे भी जज्बात हैं, तोड़ते हो क्यों मुझे यू ही हर बार...

नयनों में अश्कों की बारिश, और ये यादों के कारवाआ ही जाता है हर बार...

महफ़िले आज भी सजती हैं, गजल में तेरा ही अक्श उभरता हैं हर बार...

ना तू रहा अब तू, ना मैं रही अब मैं,फासला बहुत हो गया तेरी जो बेरुखी हुई हर बार....

(कवि- अजय कुमार मौर्य, पी-एचडी शोधार्थी, तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी)

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