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कविता : पेट की आग

Desk Editor
6 Sep 2021 5:43 AM GMT
कविता : पेट की आग
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वास्ता तो बस चंद रोटियों से है, जो कर सके उसकी क्षुधा शांत, और बुझा सके पेट की आग,

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किसी धर्म को नहीं जानती,

किसी मजहब को नहीं पहचानती,

सच क्या है, झूठ क्या है

उसे नहीं पता,

जीवन के आदर्शों से कोई वास्ता नहीं,

किसी के वादों को,

किसी के उपदेशों से,

नहीं है - उसे कोई वास्ता,

वास्ता तो बस चंद रोटियों से है,

जो कर सके उसकी क्षुधा शांत,

और बुझा सके पेट की आग,

अन्न के कुछ दाने

हैं - उसके लिए

मोतियों से भी बढ़ कर,

विकास की इस इक्कीसवीं

सदी में,

बड़ी बड़ी बातों और वादों के बीच,

जहां

अनगिनत साँसें भूख से रुक जाती हैं,

वहीं

गोदामों में भरे अन्न के भंडार

सड़ कर नष्ट हो जाते हैं,

गरीबी कम नहीं होती,

और

पेट जलते रहते हैं,

कौन है जिम्मेदार...?

हम, आप या सरकार...?? "

अरे

समाज में नफरत फैलाने वालों

मंदिर मस्जिद छोड,

कभी

इनकी भूख भी तो

देखो ना,

फटी कमीज़ से झांकते,

इनके तन को भी

तो देखो ना...!

- प्रो शिव सरन दास

गोरखपुर विवि

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