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कविता : रोज टूटते हैं कुछ सपने, नहीं मिलते कोई अपने

Desk Editor
20 Sept 2021 8:02 PM IST
कविता : रोज टूटते हैं कुछ सपने, नहीं मिलते कोई अपने
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शहर..


रोज टूटते हैं कुछ सपने

नहीं मिलते कोई अपने

रिश्तों में घुल रहा जहर

शायद इसी को कहते हैं शहर

यहाँ दुःख और दर्द की

हैं ऐसी कितनी रातें

जिनकी होती नहीं पहर

शायद इसी को कहते हैं शहर

जुड़ते हैं सब संबंध यहाँ

किसी से कुछ पाने के लिए

मतलबों की बहती लहर

शायद इसी को कहते हैं शहर

बंद भवनों में कैसा जीवन

घुट कर रह जाता है यह मन

वक्त जब ढाता है कहर

शायद इसी को कहते हैं शहर

मीनाक्षी जोशी

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