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यहां है हिन्दु मुसलमांव सिख ईसाई भी, यहां है दाना व पानी व फल दवाई भी..
नज़्म
सुकून बनके सभी के दिलों पे छायी है
क़रार लेके वतन में बहार आयी है
मेरे वतन का हर इक ज़र्रा ज़र्रा प्यारा है
खुदा ने खूब सजाया है और संवारा है
वफा खुलूस मुहब्बत का क्या उजाला है
मेरे वतन का ज़माने में बोल बाला है
कलेजा चीर के अपना दिखा नहीं सकते
है प्यार कितना वतन से बता नहीं सकते
जो रंग रंग के फूलों से पुर गुलिस्तां है
ये अरज़-ए-हिन्द जहांभर में खूबज़ीशां हैं
जमीन खुश्क, नदियां चटान पाओगे
बलन्द-ओ-बाला पहाड़ो की शान पाओ
मेरी निगाहों को क्या क्या दिखाई देता है
हरा भरा हर इक सहरा दिखाई देता है
यहां है हिन्दु मुसलमांव सिख ईसाई भी
यहां है दाना व पानी व फल दवाई भी
मुझे तो खाके वतन से अजब मुहब्बत है
यहां के जर्रेसे "शारिक" बड़ी अकीदत है
- शारिक रब्बानी , प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार
Desk Editor
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