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इस्तीफा हो तो लालबहादुर शास्त्री जैसा, ओमप्रकाश राजभर, मायावती या नीतीश कुमार जैसा नहीं
रुद्रप्रताप दुबे
लाल बहादुर शास्त्री जी की जीवन की एक बड़ी घटना वो इस्तीफा भी रहा है, जो बतौर रेल मंत्री उन्होंने 1956 में तमिलनाडु की एक रेल दुर्घटना में करीब 142 लोगों की मौत के बाद दिया था।
ओशो कहते थे 'जिसने भोगा ही नहीं वो त्याग कैसे करेगा और अगर करेगा तो, वो त्याग नहीं झूठ है। वो उदाहरण देते हैं कि गरीबों के धार्मिक उत्सव हमेशा भोजन के उत्सव होते हैं और अमीरों के सदा उपवास के। जिनके अधिकतर दिन भूख में गुजरते हैं उसके लिए उत्सव का अर्थ ही पकवान है और खाने से ऊब चुके लोग उत्सवों के दिन उपवास की क्रिया की तरफ बढ़ जाते हैं। बुद्ध इसलिए सन्यासी हुए क्योंकि सांसारिक सुख से ऊब गए थे और महावीर नग्न इसीलिए हो पाए क्योंकि वस्त्रों से थक चुके थे। अब अगर हम बुद्ध और महावीर बनने जाएंगे तो चूक कर जाएंगे। पहले भोगने का सामर्थ्य और नैतिकता लाना पड़ेगा तभी त्याग को पा सकेंगे।'
मैं भी इस मत से सहमत हूँ कि 'त्यागपत्र' महानता की कुंजी तभी हो सकती है जब उसमें भोगा हुआ त्याग हो। लालबहादुर शास्त्री ने असमय मृत्यु को अपने परिवार में भोगा था इसीलिए उनके इस्तीफे वाले त्याग ने उनके राजनीतिक जीवन को गंभीरता दी जबकि हालिया वर्षों में ओम प्रकाश राजभर ने भाजपा सरकार के मंत्री पद से, मायावती जी ने संसद से और नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के ठीक एक दिन बाद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया था लेकिन इन तीनों नेताओं के समर्थक तक आज इस बात को भूल चुके हैं।
वजह सिर्फ एक, जिस पीड़ा को ये तीनों उस वक्त कह रहे थे, उसे उन्होंने बस कहा था, भोगा नहीं था और वक्त ने इसे साफ भी कर दिया जब आज तीनों में दो पूरे और एक लगभग भाजपा के साथ खड़े हैं।