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रुपया और गिरा, एक डॉलर का 82.33 का

रुपया और गिरा, एक डॉलर का 82.33 का
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आज के अखबार में यह खबर पढ़कर याद आया कि एक बच्चे की विदेश में रहने वाली बुआ ने उसे 100 अमेरिकी डॉलर दिए हैं। बच्चे ने उसे घर में पूजा पर रख दिया है और इंतजार कर रहा है कि डॉलर 100 का हो जाए तो उसके 10,000 रुपए हो जाएंगे। डॉलर को रुपए में बदल कर वह इसमें से 100 रुपए का प्रसाद चढ़ाएगा और मिठाई खाएगा। भगवान जी भी उसकी बात सुन रहे लगते हैं।

ऐसे में रुपया क्यों न गिरे और सरकार जी क्या करें? किसी को पता ही नहीं है कि मोदी जी जब रुपए के गिरने के लिए प्रधानमंत्री को कोसते थे तो ऐसा नहीं होता था। जब देश का बच्चा-बच्चा रुपये के गिरने की कामना करेगा तो रुपया कैसे टिकेगा। कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर बच्चों को इस तरह डॉलर देने या पूजा में डॉलर रखकर उसके 10,000 होने का इंतजार करने पर प्रतिबंध लग जाए। देखते रहिए .... जब सीएसआर का पैसा पीएम केयर्स में जा सकता है तो सरकार को मजबूत करने के लिए कुछ भी हो सकता है।

आज के अखबारों में खबर है, सिख उम्मीदवार कृपाण,कड़ा पहनकर परीक्षा में बैठ सकते हैं। दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड (डीएसएसएसबी) ने शुक्रवार को हाईकोर्ट को यह जानकारी दी। मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने डीएसएसएसबी के इस फैसले के मद्देनजर दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति द्वारा दाखिल याचिका का निपटारा कर दिया। मुझे लगता है कि हिजाब के मामले में ऐसा फैसला क्यों नहीं हो सकता है। जब परीक्षा केंद्र में कड़ा-कृपाण की छूट दी जा सकती है तो स्कूल यूनिफॉर्म में हिजाब को शामिल करने से कौन सी आफत आ जाएगी। और हिजाब से समस्या है तो कड़ा कृपाण से क्यों नहीं। एक देश एक प्रधानसेवक और डबल इंजन वाले देश में ये क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है। नहीं समझ में आए तो मुझे पढ़ते रहिए।

नोबल भले नहीं मिला, नोबल पाने लायक काम तो है और ये माहौल किसने बनाया, ऐसे काम के हालात क्यों है

बहुत सारे लोग खुश हैं कि अल्ट न्यूज के संस्थापक मोहम्मद जुबैर और प्रतीक सिंन्हा को वह पुरस्कार नहीं मिला जिसकी उम्मीद जताई गई थी या शिगूफा छोड़ा गया था। कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि यह अफवाह भी उन्हीं ने उड़ाई होगी। मेरे लिए यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। मुझे याद आता है कि शांति स्थापित करने और इसका पुरस्कार लेने की कोशिश तो अटल बिहारी वाजपेयी ने भी की थी और नहीं भी की हो तो उनके समर्थकों ने यह प्रचारित किया ही था कि शांति के लिए बस चलाने वाले प्रधानमंत्री (सेवक नहीं) को नोबल मिल सकता है। मिला उन्हें भी नहीं था पर तब खबरों को निराधार और गलत बताने या उसपर खुश होने जैसा कुछ नहीं था। होता भी कैसे? तब सोशल मीडिया भी तो नहीं था।

अब काफी कुछ बदल गया है। इसमें योगदान रथयात्रा का भी है भले यात्री मार्गदर्शक मंडल में हैं। अंदर अशांति बाहर शांति स्थापित करने की कोशिश पता नहीं किसलिए हुई थी पर हुआ कारगिल था जो इतिहास है और बदला नहीं जा सकता है ना उसकी कोशिश ही हो रही है। अपने ढंग से शांति स्थापित करने की कोशिश तो प्रधानसेवक ने भी की थी पर वो हो नहीं पाया और कारण चाहे जो हो, अंत घुसकर मारूंगा से हुआ। इसमें कुछ भूमिका क्रिकेट और क्रिकेटरों के साथ दलबदल से भी हो सकती है पर वह अलग मुद्दा है। कुल मिलाकर कहना यह है कि शांति का नोबल लेने की कोशिश दो बार उच्च स्तर पर हुई है। एक बार हम मुंह की भी खाए हैं। भले याद नहीं करते।

इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। मोहम्मद जुबैर और प्रतीक सिन्हा अपना काम कर रहे हैं। एक ऐसा काम जो उन्हें लगा कि जरूरी है किया जाना चाहिए और सरकार भी पीआईबी से (यदा-कदा) करवा रही है। काम कुछ नहीं, फैक्ट चेक करने का है। बहुत सारे लोग और संस्थान करते हैं। कुछ साल पहले तक, सच कहूं तो 2014 के पहले इसकी जरूरत ही नहीं थी। अब इतनी है कि कई लोग, कई संस्थान ही नहीं पीआईबी को भी करना पड़ता है। कौन कितना कामयाब है और कितना सही करता है वह अलग मुद्दा है पर फैक्ट चेक करने वालों को इस पुरस्कार के योग्य माना गया और फैक्ट चेक इतना महत्वपूर्ण है वह तो इस शिगूफे से साफ हो ही गया और मैं इसी से खुश हूं।

कोई माने या नहीं माने, मैं देख रहा हूं कि अल्ट न्यूज का काम कितना बढ़िया है और बाकी लोगों (तथा उनके संस्थानों का) क्या हाल है। ये सब ऐसे हैं और ऐसा कर रहे हैं, अल्ट न्यूज के होते हुए। मोहम्मद जुबैर और प्रतीक सिन्हा अपना काम नहीं कर होते तो क्या करते और क्या होता - आप समझ सकते हैं। यही यह बताता है कि पुरस्कार इसबार भले नहीं मिला, हालात ऐसे ही बने रहे तो आगे मिल जाएगा। आप चाहते हैं कि न मिले तो सुधर जाइए वरना आपकी यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रहेगी। मैं और मेरे जैसे तो अब भी खुश हैं कि आपकी पोल खुली, सुधर जाएंगे तब भी खुश रहेंगे कि आप सुधर गए और नहीं सुधरेंगे तो अगली बार जब पुरस्कार मिलेगा या कुछ और बेपर्दा होंगे और फिर खुश होउंगा। लगे रहिए पर नोट कर लीजिए - जो होता है अच्छे के लिए ही होता है।

संजय कुमार सिंह

संजय कुमार सिंह

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