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- रवीश कुमार की फिल्म को...
रवीश कुमार की फिल्म को लेकर वरिष्ठ पत्रकार शम्भुनाथ शुक्ला ने लिखी एक रिपोर्ट
शम्भुनाथ शुक्ल
Ravish Kumar पर बनी फ़िल्म भारत में अब प्रदर्शित हुई है। लेकिन मैं इसे एक साल पहले टोरंटो फ़िल्म फ़ेस्टिवल में देख चुका था। तब कैसा महसूस किया था। इस पर एक रिपोर्ट-
नमस्कार! मैं रवीश कुमार
कल शाम छह बजे जब हम टोरंटो डाउन टाउन के scotia बिल्डिंग में पहुँचे तब नीचे एक काफ़ी लंबी क़तार में हम भी लग गए। लेकिन हमारी फ़िल्म का समय हो रहा था इसलिए जब वहाँ खड़ी मैनेजर से बात की तो उसने सीधे ऊपर जाने दिया। ऊपर हाल नंबर आठ में हमारी फ़िल्म शुरू होने वाली थी। हाल के मुख्य दरवाज़े पर सन्नाटा था इसलिए लगा कि हाल में ज़्यादा लोग नहीं होंगे और आराम से पीछे बैठ कर फ़िल्म देखेंगे। मगर अंदर घुसे तो पाया कि हाल पूरा भरा हुआ है। कहीं कोई सीट ख़ाली नहीं और हमें सबसे आगे बैठना पड़ा। कोई 55 साल बाद इस तरह से फ़िल्म देखना मजबूरी थी। फ़िल्म शुरू नहीं हुई थी और लाइटें जल रही थीं। एक नज़र पीछे घुमाई तो हाल में 70 प्रतिशत गोरे-गोरियाँ। कुछ चीनी, जापानी और कुछ अफ्रीकी भी। देर तक नज़र गड़ाने पर पाया नहीं कुछ हम जैसे हिंदी-पाकी भी हैं। पाँच मिनट बाद लाइट गुल और एक गोरे ने आ कर इंडिया के टीवी एंकर रवीश कुमार के बारे में बताया। कुछ विज्ञापन आए और फिर आवाज़ आई, “नमस्कार, मैं रवीश कुमार!” ऐसा लगा, कान में अमृत की बूँदें झरीं। गोरों के मुल्क में हिंदी की गूँज।
दिल्ली के ग्रेटर कैलाश स्थित NDTV का ऑफ़िस दिखा। प्रियदर्शन, निधि कुलपति, सुशील मोहापात्रा और सुशील बहुगुणा दिखे। इसके बाद शुरू हो गई फ़िल्म। यह फ़िल्म 2014 से 2019 के बीच के काल की है। देश में एक ऐसा माहौल है, जिसमें न रोज़गार है न लोक कल्याण है न किसी को इस माहौल पर टिप्पणी करने की आज़ादी। अन्य सारे टीवी एंकर सुधीर चौधरी, अरनब गोस्वामी, अमीश देवगन एक ही राग अलापते दिखाई पड़ रहे हैं कि ज़ोर से बोलो, ‘मोदी के राष्ट्रवाद की जय। और इसका विरोध करने वाले लोगों की क्षय’! उनके सुर में सुर सड़क छाप वे लोग भी मिलाते हैं, जिनके पास रोटी तो नहीं है लेकिन बोटी तो है। बोटी मुसलमानों के ख़िलाफ़ आग उगलने की। रोज़गार की बात करने वाले रवीश कुमार को फ़ोन पर धमकाने, माँ-बहन की गाली देने और उन्हें काट डालने जैसी बातें करने की। रवीश धमकियों की परवाह तो नहीं करते हैं न चिंतित हैं, बल्कि उनसे फ़ोन पर वे मज़े लेते हैं। एक देशभक्त को कहते हैं, कि अच्छा मुझे तुम सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा सुनाओ। देशभक्त दूसरी लाइन नहीं बोल पाता लेकिन रवीश को गाली देने में उसकी ज़ुबान नहीं रुकती। अरबन नक्सल के नाम पर उत्पीड़न और उमर ख़ालिद की गिरफ़्तारी पर सुशील बहुगुणा और मोहापात्र कोई इनपुट नहीं दे पाते क्योंकि NDTV को कोई भी स्रोत सूचना नहीं देते लेकिन सुधीर और अरनब दे दना दन इसे राष्ट्रद्रोहियों को उनके किए की सजा बता रहे हैं। पहलू खान और नोएडा की घटना पर सौरभ शुक्ला उन लोगों से बात करते हैं, जिन्होंने गाय का मांस घर पर रखने के जुर्म में नोएडा के इसहाक को मार देते हैं। पुलिस उन्हें बचा लेती है लेकिन सौरभ के कैमरे पर मुजरिम ख़ुद कहते हैं कि हमें अपने किए पर गर्व है। तब मजनूरन पुलिस को उन पर कार्रवाई करनी पड़ती है। एनडीटीवी के निदेशक प्रणब रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय पर छापे और फिर स्टाफ़ में भविष्य के भय का ग़ज़ब का चित्रण है। सुशील मोहापात्रा ऑफ़िस में ही योग करने लगते हैं तो स्वरालिपि छोड़ जाती है पर रवीश के समक्ष बैठ कर वह रोती भी है। सौरभ शुक्ला को आज तक से 40 पर्सेंट हाइक का न्योता आता है। मगर रवीश को वे कहते हैं- “अंत में मैंने सोचा कि पैसे से मूल्यवान है पत्रकारिता!”
पुलवामा हमले पर जब सुधीर, अरनब एवं अमीश इसे पाकिस्तान की करतूत बताते हैं तब रवीश CRPF जवानों के परिवार के साथ संवेदना ज़ाहिर कर रहे होते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक को जब बाक़ी के TV एंकर “मोदी है तो मुमकिन है!” कहते हुए फूहड़ प्रलाप कर रहे होते हैं तब रवीश बताते हैं कि अब पुलवामा से लेकर ऊड़ी तक सब साफ़ है कि हुक्मराँ चाहते क्या हैं। अब हमें तय करना है कि 2019 में हम क्या निर्धारित करेंगे।
विवेक पर गोदी मीडिया द्वारा बनाया गया माहौल भारी पड़ता है। बीजेपी की बंपर जीत। इसके बाद रवीश को रेमन मैगसेसे पुरस्कार और उसमें रवीश का कहना कि पत्रकारिता को एक भीषण अलोकतांत्रिक माहौल में कैसे बचाई जाए। इसके बाद राष्ट्रगान और फ़िल्म समाप्त।
फ़िल्म के निर्देशक विनय शुक्ला ने अपनी इस डाक्यूमेंट्री में बहुत श्रम किया है हर छोटी-छोटी चीज पर बारीक नज़र रखी है। यह कोई बायोपिक नहीं है न किसी कल्पना के सहारे वे चले हैं। धरातल पर खड़े हो कर फ़िल्म बनाना बहुत जोखिम का काम है। इसके लिए उन्हें धन्यवाद। फ़िल्म की समाप्ति पर पाँच मिनट तक लगातार ताली बजीं। मुझे वह दृश्य याद हो आया जब एक पाकिस्तानी गायिका इक़बाल बानो ने फ़ैज़ की हम देखेंगे नज़्म गाई थी तो जैसे ही उन्होंने बोला, “जब ताज़ उछाले जाएँगे, और तख़्त गिराये जाएँगे!” तो दस मिनट तक लोग तालियाँ बजाते रहे।
फ़िल्म की समाप्ति पर मैं फ़िल्म के निर्देशक विनय शुक्ला से मिला तो नाम सुनते ही वे गले मिले और बोले, जी रवीश जी ने आपके बारे में बताया था।
फ़िल्म की टिकट हमारे दोस्त और मशहूर ब्लॉगर श्री समीर लाल (Udan Tashtari) ने पहले से ही मँगा ली थीं। वे अभी दो दिन पहले वे विपश्यना योग करके लौटे थे। और शाम चार बजे घर आ गए। उनके साथ हम घर से 72 किमी दूर scotia बिल्डिंग गए। फ़िल्म देखी और सौ मिनट की फ़िल्म देख कर साढ़े आठ बजे वहाँ से चले तथा 50 मिनट की ड्राइव कर घर वापस आ गए।
निर्देशक विनय शुक्ला के साथ हम दोनों।