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- टीके के परीक्षण के...
संजय कुमार सिंह
कोविड के नए टीका का परीक्षण किए जाने के दौरान भोपाल में एक व्यक्ति की मौत का मामला निश्चित रूप से गंभीर है। इससे भी गंभीर है मौत पर चुप्पी। इस संबंध में द टेलीग्राफ में आज एक खबर छपी है। परीक्षण के बारे में कल रात मैंने एक पोस्ट लिखी थी उसे आखिर में फिर से पेस्ट कर दूंगा लेकिन उससे पहले मुद्दा यह है कि इस मामले में नियामक प्राधिकार, सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (सीडीएससीओ) ने सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा है और जानकारों ने इसकी भी आलोचना की है।
भोपाल के इस निवासी की मौत टीका लगने के नौ दिन बाद हो गई थी। संबंधित कंपनी, भारत बायोटेक ने कहा है कि प्राथमिक जांच से संकेत मिला है कि मौत का संबंध ट्रायल से नहीं है। पर यह दावा 19 दिनों बाद किया गया है। एनडीटीवी ने इस बारे में शुक्रवार को खबर दी तब कंपनी ने बयान जारी किया है। नियामक प्राधिकार की चुप्पी का कारण यह बताया जा रहा है कि वह नहीं चाहता कि ऐसा कुछ हो जिससे वैक्सीन जारी करने में देरी हो। इससे पहले टीके की कुशलता से संबंधित आंकड़ों के बिना कोवैक्सीन को मंजूरी दे दी गई है और इसपर सवाल उठ रहे हैं।
दवाइयों के किसी भी परीक्षण के दौरान आधे लोगों को दवा दी जाती है और आधे लोगों को कहा जाता है कि दवा दी गई पर वह दवा नहीं होती – दवा जैसी सामान्य चीज होती है और उन्हें प्लेसबो कहा जाता है। इसकी जानकारी मरीज या कई बार परीक्षण करने वालों को भी नहीं होती है। ऐसे में परीक्षण का कोई मतलब नहीं है अगर जिन्हें दवा या प्लेसबो दी जाए उनपर नजर ही नहीं रखा जाए। प्लेसबो देने का मकसद होता है, मनोवैज्ञानिक प्रभावों की जांच करना। और उसका भी हिसाब रखना। ऐसे में आत्महत्या का भी मतलब है। मौत के कारण पर चर्चा ही नहीं होना चौकाने वाला है। अगर मरीज के मर जाने के बाद कोई जांच ही नहीं हुई तो कैसा परीक्षण चल रहा था आप समझ सकते हैं।
कल की पोस्ट
दवाइयों का ट्रायल बहुत ही विधिवत होता है और निश्चित रूप से यह लंबी चलने वाली महंगी प्रक्रिया है। मैंने कभी किसी ट्रायल में हिस्सा तो नहीं लिया पर ट्रायल में भाग लेने वालों को दी जाने वाली जानकारी और उनसे पूछे जाने वाले सवाल आदि का हिन्दी अनुवाद वर्षों से कर रहा हूं और ऐसे सौ के करीब अनुवाद तो किए ही होंगे।
कभी नही लगा कि यह परीक्षण जल्दबाजी में होता है या हो सकता है। फॉर्म अनुवाद करवाना और उसपर लिखा होना कि मुझे मेरी भाषा में समझा दिया गया है और मैं सब समझकर दस्तखत कर रहा हूं और फलाना मेरा मरीज है मैंने भी जोखिम समझ लिया है जैसी औपचारिकता के बारे में मैं जानता रहा हूं। कहने की जरूरत नहीं है कि वो सब कोरोना जैसी महामारी के टीके के लिए नहीं थे। अब कोरोना जैसी बीमारी का टीका बनाने और उसे बाजार में पेश करने या लगाने में की जा रही जल्दबाजी चौंकाने वाली है।
ऐसे में मोहल्लों में एलान करके, पैसे देकर टीका लगाने और फिर मरीजों की खबर नहीं लिए जाने का मामला मैंने पहली बार सुना है। ताज्जुब की बात है कि यह भाजपा राज में हो रहा है और तब हो रहा है जब माधव राव सिंधिया के सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया जनता की सेवा करने के लिए भाजपा में गए हैं और राज्य सभा सदस्य बनकर संतुष्ट हैं। बदले में वहां की चुनी हुई सरकार चली गई और दल बदल कानून से बचने के लिए उपचुनाव हुए। और मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाला वाले मामाजी की डबली टेस्टेड सरकार के राज में यह सब हुआ और ऐसा आरोप लगा।
दवाइयों के परीक्षण के लिए अमूमन जिन लोगों को दवा दी जाती है उन्हें यह नहीं पता होता है कि उन्हें सही में दवा दी गई है या दवा के नाम पर कुछ और। ऐसे में आज न्यूज लॉन्ड्री के एक वीडियो से पता चला कि ज़ी न्यूज की एक रिपोर्टर ने ट्रायल में शामिल होने को टीका लगवाना कह दिया और अगर रिपोर्टर ट्रायल में शामिल हुई है तो उसे यह भी नहीं पता होगा कि उसे दवा दी गई है या प्लेसबो (यानी दवा के नामपर झांसा यानी वैसा ही कुछ जो कोई असर न करे)।
ऐसे में ज़ी टीवी का यह दावा कि रिपोर्टर ने टीका लगवाया गलत और मूर्खतापूर्ण है। पर देश में आजकल नामुमकिन मुमकिन है। सरकार की लोकप्रियता का आलाम यह है कि राज्यपाल आधी रात में या अलसुबह शपथ दिला देते हैं। ऐसे में जनता तो राम भरोसे ही ही है। जो खुद वर्षों तंबू में रहे हैं। विडंबना यह है कि ऐसी खबरें अखबारों में नहीं छपती हैं या कम छपती हैं या एक बार उतनी ही सूचना छपती है जिसे रोक नहीं सकते। खबर ढूंढ़कर निकाली और बताई नहीं जाती है।
कायदे से खबर तो यह होती कि भोपाल में अस्पताल वाले मोहल्लों में पैसों का लालच देकर दवाइयों के ट्रायल के लिए मनुष्य ढूंढ़ रहे हैं। खासकर इसलिए वहां 1984 में भोपाल गैस कांड हो चुका है और लोगों को इस मामले में ज्यादा सतर्क होना चाहिए।