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तो क्या विश्वगुरू का खूंटा गायब है?

तो क्या विश्वगुरू का खूंटा गायब है?
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आदमी को हमेशा अपनी औकात पता होनी चाहिए और अपना खूंटा कभी नहीं छोड़ना चाहिए

हम सबको भरोसा था कि देर सवेर ही सही, महामारी के मामले में विश्वगुरु हम बन के रहेंगे। ये नीति कथा हमारे यहां की ही है कि अंत में कछुआ ही रेस जीतता है, खरगोश नहीं। देश अब भी प्राचीन नीति कथाओं पर चल रहा है, ये सही है। सवाल बस इतना है कि कछुआ दौड़ जीतने के बाद क्या करेगा? सुबह मैंने जब किसी को बधाई देते हुए देखा सबसे ज़्यादा संक्रमण के मामलों की, तो यही सोचते-सोचते बचपन का एक किस्सा याद आ गया। सोचा दर्ज कर दूं, नहीं तो भूल जाऊंगा।

अपने स्कूल में एक धावक हुआ करता था। अपना क्लासमेट था। गुलज़ार। हवा की तरह दौड़ता था और अद्भुत लय में दौड़ता था। जब से नाम लिखवाया था, लगातार वार्षिक स्पोर्ट्स डे पर फर्स्ट आता था। सौ मीटर हो चाहे लंबी दौड़। उसे हराने की तमन्ना कई लड़कों के दिल में थी लेकिन उसकी तकनीक की काट किसी के पास नहीं थी। दरअसल, लंबी दौड़ की शुरुआत में ही वो सौ मीटर वाले मिजाज़ से दौड़ कर बाकी प्रतिस्पर्धियों से सौ दो सौ मीटर की बढ़त ले लेता था। उसके बाद आराम से टहलते हुए दौड़ता था। जितने में पीछे वाले उसे कवर करते, वो सांस भर के दोबारा स्प्रिंट मार देता और जीत जाता। सौ मीटर में हराना तो और मुश्किल था। तीन साल तक चले इस नाटक को मैं समझ गया था। ग्यारहवीं में मैंने तमाम लंबे धावकों को अपने पांच फुटे शरीर से चुनौती देते हुए आखिर ताल ठोंक दी। चूंकि स्कूल का खेल दिवस लहरतारा के रेलवे स्टेडियम में होता था जबकि मैं संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सिटी के मैदान का रोज़ आठ चक्कर लगाता था, इसलिए कॉन्फिडेंस लेवल हाइ था। रेलवे का मैदान संपूर्णानंद से काफी छोटा था।

तकनीक वही परंपरागत। पहले धीरे-धीरे दौड़ो। सांस बनाए रखो। फिर सही मौके पर स्पीड बढ़ा दो। यही नीति वाक्य था दौड़ का, और अपन ठहरे परंपरा वाले आदमी। तो परंपरा से मात देनी थी गुलज़ार की ऊटपटांग तकनीक को। एकदम भारत की तरह, जिसने चार महीने में सबको पदा दिया है कोरोना रेस में। खैर, दौड़ शुरू हुई। अपन दौड़े। आठ सौ मीटर का मामला था। शुरूआती तीन सौ आराम से दौड़े। शायद तीसरे या चौथे नंबर पर रहे होंगे। उसके बाद सोचे कि दो सौ मीटर फर्राटा मार दें तो कम से कम दूसरे स्थान पर आ जाएंगे। फिर दो सौ मीटर सुस्ता के सौ मीटर भाग लेंगे। यही किए। बाकी प्रतिभागी हतप्रभ! वाकई, मैं गुलज़ार के कोई पचास मीटर पीछे पहुंच गया था। अब तीन सौ मीटर और बचा था। उसने मुड़ के पीछे देखा दौड़ते दौड़ते। मेरा दम भर चुका था, मैं सुस्ताने के मूड में था। तब तक पट्ठे ने कहा - आवा गुरु, तोहके दौड़ाई! और अचानक उसने अपने पंख खोल दिए। मैं ट्रैप में फंस गया और उसके पीछे-पीछे बिना सोचे बदहवास भागा। छोटा आदमी, छोटा पैर। कितना भागते। फिर भी गुलज़ार की पीठ सामने थी और लगा कि मंज़िल करीब है। फिर आखिरी के लैप में पता नहीं क्या हुआ! कुछ याद नहीं।

आंख खुली तो मैं आउट ऑफ ट्रैक सपाट पड़ा हुआ था। लोग मुंह पर पानी मार रहे थे। सांस नहीं आ रही थी। माथे पर और पैर में कुछ कटा फटा सा फील हो रहा था। गुलज़ार फिर जीत गया था। मैं फिनिश लाइन से बहुत पीछे ही बाहर फेंका गया था। ये मेरी ज़िन्दगी की पहली और आखिरी दौड़ थी। उसके बाद मैंने किसी दौड़ में हिस्सा नहीं लिया। खेल हो चाहे जीवन। मान लीजिए मैं जीत ही जाता तो? खिलाड़ी थोड़े बन जाता! और जो लगातार जीत रहा था वही कौन सा खिलाड़ी बन गया? कहने का आशय ये है कि कोरोना की दौड़ में भारत फर्स्ट रहे या सेकंड, समझने वाली बात ये है कि ये दौड़ अव्वल तो अपनी थी ही नहीं। बेमतलब दौड़ गए। अब मुंह के बल गिरने की बारी आई है तो राम-राम कर रहे हैं।

कई साल बाद किसी ने एक नया नीति वाक्य एक लतीफे के माध्यम से सुनाया, "यदि आपको उड़ने न आता हो तो हरामीपंती नहीं करनी चाहिए, मने फैलना नहीं चाहिए!" इस बात को हमारे गुरु देसी तरीके से ऐसे कहते हैं- "आदमी को हमेशा अपनी औकात पता होनी चाहिए और अपना खूंटा कभी नहीं छोड़ना चाहिए।"

अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

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