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ताकि सनद रहे, यह लोकतंत्र की जीत है लेकिन सावधान रहिये..!
● डॉ राकेश पाठक
० इस मात से तिलमिलाये सत्ताधारी आगे कुछ भी कर सकते
०अन्नदाता को आतंकवादी,खालिस्तानी कहने वालों को कैसी माफ़ी?
०वैधानिक सवाल- क़ानून वापसी पर पहले कैबिनेट की मुहर लगी या 'सम्राट' ने ख़ुद फ़ैसला ले लिया?
मराठी में एक कहावत चलती है...'अति तिथे माती ' मराठीभाषी इस कहावत का अभिप्राय भली भांति जानते हैं। अभिप्राय ये है कि 'अति होने पर माती याने माटी हो जाना तय है'।
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा की तो यह डर उनका चेहरा गवाही दे रहा था कि अति के कारण माटी होने के आसार उनके संज्ञान में आ चुके हैं।
असल में यह जितनी लोकतंत्र की जीत है उतनी ही 'हार के डर' की जीत भी है। आगामी विधानसभा चुनावों में हार के डर से अहंकार के अगम्य हिमालय पर विराजे 'युगावतार' नरेंद्र मोदी भावभीत लग रहे हैं। वे उत्तर प्रदेश हार कर अपने सिर से मोर मुकुट उतरता नहीं देखना चाहते। इसीलिये जिसे वे 'आन्दोलनजीवी' कह कर अपमानित करते थे उसे किसान के हल-बखर के सामने पर अपना मुकुट रख दिया है।
यह जीत गांधी के रास्ते की जीत भी जिसने बताया था कि अहिंसा सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। सत्ता और उसके वरद हस्त से फलते फूलते जरखऱीद मीडिया और 'नमोरोगी' भक्तों की अक्षोहिणी सेना ने साल भर किसान आंदोलन को बदनाम करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। फिर भी इक्का दुक्का हिंसक घटनाओं का अलावा यह आंदोलन एक नज़ीर बन कर उभरा।(हम गांधी के बन्दे हैं, हर हिंसा के खिलाफ़ हैं।)
लेकिन अभी बहुतेरे सवाल बाक़ी हैं...
एक- जिस अन्नदाता को ख़ुद प्रधानमंत्री ने आन्दोलनजीवी कह कर एक प्रकार से गाली दी, जिन मुख्यमंत्री, मंत्री,सांसद ,विधायकों ने किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी, चीन,पाकिस्तान परस्त कहा उनसे हिसाब कब कैसे होगा?
दो- अपने ही देशवासी धरतीपुत्रों,पुत्रियों को देशद्रोही कहने वालों का गुनाह क्या इसलिये माफ़ कर दिया जाएगा कि अब क़ानून वापस लेने का ऐलान हो गया है?
तीन-आज़ाद भारत के सबसे बड़े आंदोलन में छह सौ से ज्यादा किसान शहीद हो गए। उनकी शहादत को क्या कोई सभ्य समाज और लोकतांत्रिक राष्ट्र राज्य इसलिये भूल जाए कि अब देश के मुखिया ने थूक कर चाटने की घोषणा कर दी है?
चार-लोकतंत्र लोकलाज से चलता है लेकिन सात साल से सामान्य लाज शर्म को बलाये ताक रख कर 'एकतंत्र' की तरह बरतने वाले प्रधान सेवक(?) से कोई यह सवाल भी पूछेगा कि नहीं कि आपके फ़ैसले हमेशा लोक के विरुद्ध ही क्यों होते हैं?
पांच-कोई यह पूछेगा कि नोटबन्दी से लेकर किसानबंदी तक बड़े बड़े फ़ैसलों में आपके अपने मंत्रिमंडल की भागीदारी होती भी है या नहीं?
छह-कोई यह पूछेगा कि कृषि क़ानून वापस लेने की देववाणी करने से पहले इस पर कैबिनेट की मुहर लगी या नहीं?
या देश यह मान ले कि माननीय मोदी जी 11वीं सदी के राजा के दैवी अधिकार के सिद्धांत
(प्रिंसिपल ऑफ दि डिवाइन राइट ऑफ द किंग) से एकछत्र राजा हैं...चक्रवर्ती सम्राट हैं...।
सारे फ़ैसले करने का एकमेव अधिकार उन्हें ही है।
फ़िलहाल कृषि क़ानून वापस लेने के फ़ैसले का स्वागत करते हुए यह नहीं भूलना चाहिये कि वर्तमान सत्ता तानाशाही की राह पर बहुत आगे बढ़ चुकी है। सत्ता और उसके समर्थक करारी मात से भीतर तक तिलमिलाए हुए होंगे। यह 'छप्पन इन्चिया' आत्ममुग्ध महानायक के लिये कम जलालत की बात नहीं है।
यह उनके ज़िद की शिकस्त है, यह उनके अहंकार के मटियामेट होने की निशानी है।
इस खीज को मिटाने के लिये ये किसी भी हद तक जा सकते हैं।
सावधान रहिये..लोकतंत्र और संविधान पर ख़तरा बना हुआ है। जागते रहो।
इति।
गंगा शरण सिंह