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क्या सपा अकेले भाजपा का मुकाबला कर पाएगी?

सुजीत गुप्ता
2 Oct 2021 2:45 PM IST
क्या सपा अकेले भाजपा का मुकाबला कर पाएगी?
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यूपी में अभी तक जो स्थिति है उसमें सपा ही भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी नजर आ रही है। मगर यह भी साफ नजर आ रहा है कि अकेले सपा भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएगी।

शकील अख्तर

उत्तर प्रदेश में भाजपा सबसे मजबूत स्थिति में है। मगर फिर भी वह खुद में सुधार करती दिख रही है। मुख्यमंत्री योगी खुद ही सरकार हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करके संकेत दिए कि और लोग भी जरूरी हैं। लेकिन उनके खिलाफ चुनाव लड़ रही मुख्य विपक्षी पार्टी सपा क्या ऐसा करती दिख रही है?

यूपी में अभी तक जो स्थिति है उसमें सपा ही भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी नजर आ रही है। मगर यह भी साफ नजर आ रहा है कि अकेले सपा भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएगी। कभी जैसा कांग्रेस करती थी कि अपने विरोधी वोटों को कई हिस्सों में बंटवा देती थी वैसा ही आज भाजपा कर रही है। लेकिन कांग्रेस की इस रणनीति को 1967 में लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद के नारे से तोड़ा। इस विषय पर बहुत सारे मत मतातंर हैं कि इससे भाजपा मजबूत हुई।

उसकी व्यापक सामाजिक स्वीकृति का रास्ता खुला। लेकिन वह सब चीजें अब इतिहास बन गई हैं। समाजवादी खुद मिट गए और भाजपा सबसे ताकतवार पार्टी बन गई है। भाजपा के ताकतवर बनने से किसी को एतराज नहीं है। एक दक्षिणपंथी पार्टी के लिए भारत में बहुत जगह थी। 1996 में जब वाजपेयी भाजपा के पहले प्रधानमंत्री बने तो देश में उनको लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं था। देश सकारात्मक दृष्टि से उनकी तरफ देख रहा था। दूसरी बार 1999 में बनने के बाद उन्होंने पूरे पांच साल सरकार चलाई। राजनीतिक रूप से विरोध, समर्थन सब हुआ। मगर देश में कहीं स्थाई रूप से खाई नहीं बनी।

2014 में प्रधानमंत्री मोदी के आने के बाद भी कमोबेश वैसी ही शंकाएं और अपेक्षाएं थीं। लेकिन 2019 में दोबारा सरकार बनाने के बाद स्थितियों ने बहुत तेजी के साथ करवट ली। राजनीति एकदम से भयानक नकारात्मकता की तरफ बढ़ गई। नागरिकता कानून, जम्मू कश्मीर का विभाजन, उसका राज्य का दर्जा छीन कर केन्द्र शासित प्रदेश बनाना, किसान विरोधी बिल, कोरोना के भीषण दौर में पहले मजदूर विरोधी रवैया और फिर दूसरी लहर में गांव गरीब के साथ मध्यम वर्ग को भी इलाज, अस्पताल, आक्सिजन नहीं मिलने के साथ श्मशान में भी जगह नहीं मिलना और फिर इन सबको काउनटंर करने के लिए नफरत और विभाजन को बढ़ाने ने एक बहुत ही खतरनाक स्थिति उत्पन्न कर दी। देश में तो नकारात्मक माहौल बना ही, विदेश में भी भारत की छवि खराब हो गई।

विश्वसनीयता जब गिरती है तो फिर उसकी कोई सीमा नहीं होती। संयुक्त राष्ट्र में पहली बार हुआ कि भारत के प्रधानमंत्री संबोधित कर रहे हैं और सभागार खाली पड़ा है। जो कुछ लोग बैठे हैं, उनमें से भी किसी ने एक बार भी ताली नहीं बजाई। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ट्रंप का प्रचार करने लगे थे वह अमेरिका के साथ दूसरे देश भी भूले नहीं हैं। अमेरिका में मोदी के लगाए नारे " अबकी बार ट्रंप सरकार " का दुनिया भर में बहुत गलत असर पड़ा था। कहां नेहरू बड़े बड़े देशों की राजनीति से उपर उठकर निर्गुट आंदोलन चलाते थे। कहां हमारे प्रधानमंत्री एक देश के चुनाव में गुटबाजी में फंस गए।

भारतवंशी हर देश में हैं। और बहुत अच्छी पोजिशनों में। और यह भी कि वे अभी पांच सात साल में वहां जाकर नहीं बसे और बने हैं, बल्कि नेहरू के समय से उनके बनवाए आईआईटी, आईआईएम, एम्स, जेएनयू और दूसरे उच्च शिक्षा संस्थानों से पढ़कर वहां इज्जत के साथ गए थे और वहां भारत का नाम ऊंचा किया। समाज के हर क्षेत्र में उनका दबदबा है। वहां की राजनीति में भी। लेकिन राजनीति वे उस देश के लोगों के साथ मिलकर करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि भारत के किसी प्रधानमंत्री ने विदेश के चुनाव में एक दल या प्रत्याशी का खुला समर्थन करते हुए कहा हो कि अबकी बार ट्रंप सरकार!

ट्रंप तो हार गए मगर भारत के माथे पर एक दाग लग गया। उसीका नतीजा था कि अमेरिका में मोदी का इतना ठंडा स्वागत हुआ। राष्ट्रपति जो बाइडेन और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस ने गांधी और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया। अमेरिका में रह रहे भारतियों ने भी खुद को अपमानित महसूस किया। उन्हें याद आया कि इससे पहले मनमोहन सिंह के लिए वहां राष्ट्रपति बराक ओबामा ने क्या कहा था कि जब भारत के प्रधानमंत्री बोलते हैं तो दुनिया उन्हें ध्यनपूर्वक सुनती है।

अमेरिका में यह माहौल बनने में हमारी घरेलू स्थितियां का भी बड़ा हाथ है। लगातार बढ़ रहे साम्प्रदायिक और जातीवादी तनाव ने भारत की छवि को धूमिल किया है। लीचिंग और किसानों के आंदोलन की खबरें वहां के अखबारों में लगातार छप रही हैं। जो भारत कभी शांति का संदेश देने वाला देश माना जाता था वहां की अशांति ने दुनिया भर में चिंता पैदा कर दी। इससे भारत की छवि पर दुनिया में गहरा आघात लगा और देश में भाजपा की नकारात्मक राजनीति गहरी चिंता का विषय बन गई।

जैसा कि उपर शुरू में कहा गया कि पहले 1996 में फिर 1999 में और फिर 2014, 2019 में भाजपा के प्रधानमंत्री बनने को देश ने सामान्य भाव से लिया। मगर 2019 के बाद जो नफरत और विभाजन का राजनीति तेज हुई है उसने समाज के हर वर्ग को चिंता में डाल दिया। पहले हिन्दु मुसलमान की राजनीति और फिर दलित, पिछड़ा, सवर्ण और सवर्णों में भी राजपूत, ब्राह्मण के बीच विभाजन की रोज नई खाई खोदी जाने लगी। नफरत की आग जब एक बार सुलगा दी जाए फिर वह बुझती नहीं। कहां कहां किस किस को चपेट में लेगी किसी को नहीं पता। अभी राजपूत और गुर्जरों के बीच एक नया तनाव शुरू कर दिया गया है। इसकी लपटें यूपी से निकलकर मध्य प्रदेश और राजस्थान तक पहुचं गई हैं।

ऐसा नहीं है कि पहले विवाद नहीं होते थे, मगर उन्हें सरकार और सत्ताधारी पार्टी की तरफ से शुरू नहीं किया जाता था। बल्कि सरकार और शासन कर रही पार्टी अगर कहीं कुछ तनाव होता था तो उसे शांत करने की कोशिश करते थे। मगर आज प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री श्मशान, कब्रिस्तान, अब्बाजान जैसी शब्दावली में बात कर रहे हैं। चुनाव इन्हीं के इर्द गिर्द केन्द्रित करने की कोशिश है। किसान की बात न उठे।

हाथरस और सोनभद्र के दलित, आदिवासी बलात्कार और नरसंहार पर सवाल न हों। यादवों और ब्राह्मणों में खासतौर पर आए सौतेले व्यवहार की भावना दबी रहे। कोरोना में हुई गांव गांव में मौतों का प्रश्न न उठे। सिर्फ और सिर्फ राजनीति हिन्दु मुसलमान मुद्दे पर ही रहे। इसीके लिए ओवेसी को पूरी तरजीह दी जा रही है। उनके हर सवाल का जवाब देकर माहौल को बदलने नहीं दिया जा रहा।

क्या अखिलेश यादव इस राजनीति को नहीं समझ रहे? तो फिर क्या कारण है कि वे आगे आकर विपक्षी एकता की पहल नहीं कर रहे? क्या उनकी समझ में यह बात नहीं आ रही कि अगर विपक्षी वोट बंटा तो हिन्दु मुसलमान की राजनीति कामयाब हो जाएगी? प्रियंका गांधी अपनी तरफ से गठबंधन का प्रस्ताव रख चुकी हैं। रालोद भी तैयार है। अगर ये तीनों मिल गए तो कई छोटे दल भी साथ आ जाएंगे। चुनाव हिन्दु मुसलमान से जनता के वास्तविक सवालों पर आ जाएगा। मायावती शायद अप्रसांगिक ही हो जाएं।

आज की तारीख में ममता बनर्जी, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन, उद्धव ठाकरे, तेजस्वी बहुत उम्मीदों वाले नेताओं के तौर पर उभरे हैं। इन्हें भी आगे आकर यूपी के बारे में अपनी बात कहना चाहिए। शरद पवार, लालू यादव, शरद यादव जैसे अनुभवी नेताओं को भी इन परिस्थितियों में एक लखनऊ सम्मेलन बुलाना चाहिए। इस बार यूपी का चुनाव एक राज्य का नहीं बल्कि 2024 का सेमिफाइनल है। जो जीता वही सिकंदर। जो हारा उसकी राजनीति खतम!

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