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चकरघिन्नी: जन का मन, मत, लोकतंत्र सब कुछ दांव पर...! , पुछल्ला: पुराना फार्मूला, नया अंदाज़
आशू खान
जन का मन-वन, लोकतंत्र-वोकतन्त्र, मतदान-वतदान... किसी काम के न काज के... नई चुनाव पध्दति में अब ट्विस्ट आता दिखाई देने लगा है... छोटी, बड़ी, मंझली, नई, पुरानी, नवागत और भ्रूण में पनप रहीं सियासी पार्टियां अपने-अपने प्रत्याशी तैयार करेंगी, बीच मैदान खड़ा करेंगी, खर्च करने की हैसियत रखने वाले आएंगे, बोली लगाएंगे और जिसकी बोली बड़ी, बन्दा उसका, जिसका संख्या बल ज्यादा, सरकार उसकी....! करोड़ी चुनाव से निजात, हज़ारों कर्मचारियों की चुनावी फजीहत से भी आजादी और जन के मन में बेहतर सरकार और सरकार से जुड़ने वाली आस्था-अपेक्षाओ की भी छुट्टी....! प्राइवेट लिमिटेड की तर्ज पर सरकारों का संस्थापन और निजी दुकानों की तरह हर काम का तयशुदा मोल...! कर्नाटक के नाटक से लेकर मप्र की नोटँकी को इस नई परम्परा का अगुआ कहा जा सकता है....!
इन किस्सों के बाद मीडिया को टके दाम पर बिकने वाला, तलुवे चाटने वाला और गिरगिटी नजरों वाला कहने वालों की जुबान खुलने से भी रुकने के आसार बन सकते हैं....! बिकाऊ मंडी में बिन बोली के नीलाम होने की महारत पहले भी राजनीतिक चाटुकारों ने अपने नाम करवा रखी थी, अब इसका पक्का ठप्पा अपने नाम लिखवा लिया है....! टकों पर बिकने वाले नेताओं को किसी करवट सुकून मिलता नजर नहीं आ रहा है...! चुनाव यहां से, उम्मीद वहां से, इधर काम न मिला तो उधर दाम की तलाश में इस डाली से उस डाली कुलांचे मारते नेताओं ने बंदरों की प्रजाति को भी मात दे रखा है....! हालात यही रहने वाले हैं, इससे ज्यादा बुरे होने की कल्पना भी की जा सकती है....! लोकतंत्र की व्यवस्था करने वाले आसमान के किसी कोने बैठकर इस दुर्गति पर आँसू बहा रहे हैं और जिनके लिए यह इंतज़ाम किए गए थे वे मिट्टी के माधव बने हालात विकट होने की राह तक रहे हैं....!
पुछल्ला: पुराना फार्मूला, नया अंदाज़
पद और कद की चाशनी ऐसी जीभ लगी कि पठन पाठन के जिम्मेदार अब साहबगिरी के समंदर से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। उर्दू अकादमी की जुड़वां बहन इक़बाल मरकज़ की सीढ़ी ने पहले भी उन्हें बचा लिया था। इस बार फिर पुराना पैंतरा अपनाने की कोशिश तेज़ हो चुकी हैं। दस साल के साम्राज्य पर किसी और आमद को रोकने अपनाया जाने वाला नुस्खा अफसरों से मिला है या उन नेताओं से, जिनके छाते में साहब ने खुद को सुरक्षित किया है। पता लगाकर ठिकाने लगाने में वह लोग लग गए हैं, जिन्होंने 'पढ़ाने वालों' की 'साहबगिरी' का चस्का मिटाने का बीड़ा उठाया है।