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छात्र और 'राजनीति', नए किरदार अब आते जा रहे हैं, मगर नाटक तो वही पुराना चल रहा है!!

News Desk Editor
14 Sep 2018 10:20 AM GMT
छात्र और राजनीति, नए किरदार अब आते जा रहे हैं, मगर नाटक तो वही पुराना चल रहा है!!
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धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है..., न पूरे शहर पर छाए तो कहना...!

नए किरदार अब आते जा रहे हैं..., मगर नाटक तो वही पुराना चल रहा है...!!

जी हां दोस्तों!

आज़ादी के 71 सालों बाद भी भारतीय लोकतंत्र वंशवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धनबल, बाहुबल, योग्य नेतृत्व की जगह मुखौटे का इस्तेमाल कर राज करने जैसे जिन मजबूत आधार स्तंभों पर टिका दीखता है. उसकी एक इकठ्ठी झलक हमें देशभर में होने वाले छात्र संघ चुनावों में देखने को मिल जाती है. होना तो कायदे से यह था कि छात्र संघ चुनाव भारतीय लोकतंत्र की आदर्श व्यवस्था को दर्शाती...उसे मजबूत करने का भरोसा दिलाती. लेकिन छात्र राजनीति भी उसी राह पर चलती दिखाई पड़ती है. जिस पर मुख्यधारा की राजनीति...यह कहना गलत नही होगा कि सारी बुराईयां इसमें समाहित हो चुकी है. दुर्भाग्य तो यह है कि देश के सम्मानित छात्र संघ चुनाव भी इससे आज अछूते नही है. अगर बात दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ. यानि DUSU की करें तो DUSU चुनावों में एक बार फिर ABVP ने जीत का परचम लहराया है. ABVP ने डूसू चुनाव में तीन पदों पर जीत दर्ज की है तो वहीं NSUI को सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल हुई है...इसके अलावा एक गठबंधन में लड़े लेफ्ट और आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई को डूसू चुनाव से खाली हाथ लौटना पड़ा है.DUSU चुनाव औऱ अभी कुछ दिन पहले आए राजस्थान, उत्तराखंड छात्रसंघ चुनाव के नतीजों का कितना असर 2019 के आम चुनाव पर पड़ेगा. क्योंकि राजनीतिक पण्डितों का मानना है कि...दिल्ली विश्वविद्यालय में होने वाले छात्र संघ चुनाव...और चुनाव के बाद आने वाले नतीजों की पुरे देश में चर्चा होती है...यहाँ मिली जीत-हार के मायने निकाले जाते है. राजनीतिक विश्लेषकों का तो यहाँ तक मानना है कि...इस चुनाव में मिली हार या जीत से मुख्यधारा की राजनीति पर भी प्रभाव पड़ता है...वही डूसू चुनावों में अध्यक्ष पद पर ABVP उम्मीदवार अंकिव बसोया ने जीत दर्ज की है...इसके अलावा उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव के पद पर भी ABVP की जीत हुई है...और NSUI के खाते में सिर्फ सचिव पद आया है...डूसू उपाध्यक्ष पद पर ABVP से शक्ति सिंह, सचिव पद पर NSUI से आकाश चौधरी और संयुक्त सचिव पद पर ABVP की ज्योति चौधरी ने जीत दर्ज की है...कल मतगमना के दौरान 'ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी' होने पर मतगणना रुक गई थी और संगठनों ने हंगामा किया था... ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी के बाद... कांग्रेस से जुड़े संगठन एनएसयूआई ने नये सिरे से चुनाव कराने की मांग की जबकि आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी ने मतगणना फिर से शुरू कराने को कहा...बाद में...सभी उम्मीदवारों ने मतगणना फिर से शुरू करने पर सहमति जताई...मतगणना रुकने से पहले...शुरुआती रुझान में कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई अध्यक्ष पद पर बढत बनाए हुए थी...जबकि एबीवीपी का उम्मीदवार उपाध्यक्ष पद पर आगे चल रहा था...वही खबर यह भी आ रहा है कि एक ईवीएम में 10वें नंबर के बटन पर चालीस वोट पड़े हैं... जबकि नोटा को मिलाकर कुल 9 ही उम्मीदवार हैं...यानी 10वें नंबर का बटन काम नहीं करना चाहिए था...इसके बाद भी उसमें वोट पड़े...हालांकि...इस पर अभी किसी तरह का आधिकारिक बयान नहीं आया है... तोड़फोड़ के दौरान ही ABVP के सचिव पद के उम्मीदवार के हाथ में चोट भी लग गई...वहीं NSUI की ओर से कहा गया है कि हम अध्यक्ष और सचिव पद पर जीत रहे थे... लेकिन तभी ईवीएम में गड़बड़ी होनी शुरू हो गई...साफ है कि कुछ गड़बड़ी की गई है...वहीं NSUI के राष्ट्रीय अध्यक्ष फिरोज खान का कहना है कि...हम चारों सीटें जीत रहे थे...इसमें सरकार ने गड़बड़ी की है...!!




आज तमाम राजनीतिक दलों की छात्र इकाइयां हैं...और पूरे देश के विश्वविद्यालयों में इन राजनीतिक पार्टियों से जुड़े छात्र संगठनों के बैनर तले चुनाव लड़ने का एक खतरनाक ट्रेंड अपने उफान पर है...राजनीतिक पार्टियों का समाज में अपना खास जातीय, धार्मिक और वैचारिक वोट बैंक होता है...और इसी आधार पर वे युवा मन को अपनी बनाई हुई बाइनरी में जकड़ने की कोशिश करती हैं...उनका निशाना युवाओं को अपनी विचारधारा में फंसाकर लम्बे समय तक वोट बैंक का निर्माण करना होता है...जबकि छात्रों के विचार और उनके ज्ञान को धार देना तो विश्वविद्यालयों का काम है...लेकिन ये काम अब कैंपस में घुस कर राजनीतिक पार्टियां करने लगी हैं...ऐसी पार्टियों के छात्र संगठनों से जुड़े आम छात्र भी पार्टी लाइन की विचारों की कट्टरता अपनाने का प्रयास करते हैं...जिससे वे कक्षाओं में होने वाले वैचारिक विमर्श के दौरान एक साझा समझ विकसित करने की प्रक्रिया से चूक जाते हैं...चुनाव जीतने की चाह रखने वाले छात्र नेताओं के लिए इन छात्र संगठनों से जुड़ना फायदे का सौदा होता है...वे राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के पोस्टर लगाकर चुनाव जीत जाते हैं...जबकी उनकी खुद की लोकप्रियता चुनाव जीतने के लिहाज से बेहद कम होती है...अब छात्रसंघ के चुनावों में हार-जीत को विचारधारा की हार-जीत के रूप में देखा जाता है...फिर वह उस विचारधारा से जुड़ी पार्टी की हार-जीत के रूप में बदल जाता है...और उसे वोट देने वाले छात्र पढ़ाई के दौरान ही उस विचारधारा से जुड़ जाते हैं...!!




पार्टियों से जुड़े स्थानीय नेता इन चुनावों में प्रचार करने आते हैं...विचारधारा को धार देना तो विश्वविद्यालयों का काम है... लेकिन यह काम अब कैंपस में घुस कर राजनीतिक पार्टियां करने लगी हैं...ऐसी पार्टियों के छात्र संगठनों से जुड़े आम छात्र भी पार्टी लाइन की विचारधारा की कट्टरता को अपनाने का प्रयास करते हैं...जिससे वे कक्षाओं में होने वाले वैचारिक विमर्श के दौरान एक साझा समझ विकसित करने की प्रक्रिया से चूक जाते हैं...जो एक इंसान के तौर पर भविष्य में उन्हें कट्टर समर्थक होने से बचाती है...उदाहरण के तौर पर विश्वविद्यालयों में सीख रहे छात्र शैक्षिक संवाद के दौरान यह समझ पाते हैं कि...बहुसंख्यक आबादी की अनायास की जरुरतों के कारण अल्पसंख्यकों को बलि का बकरा ना बनाया जाए...जबकि राजनीति में बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों दोनों की भावनाओं से खेल कर जीत हासिल करना ही मुख्य उद्देश्य होता है...हमारे विश्विद्यालयों की स्थिति भले ही बहुत बेहतर न हो...लेकिन ज्ञान को आकार और विस्तार देने के मामले में हमारे अध्यापक अभी भी राजनेताओं से बेहतर विकल्प हैं...छात्र राजनीति आवश्यक है...लेकिन इसे विधायक या सांसद का चुनाव बनने से बचाना होगा क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के रहमो-करम से जीतने वाले छात्र नेता विद्यार्थी हितों का कम और पार्टी हितों का ज्यादा ख्याल रखते हैं...आज हम सभी को यह समझना होगा कि विचारधारा बर्फी के टुकड़े की तरह न हो जिसे मौकापरस्त राजनीतिकार तोड़कर चूरे में बिखेर दे...बल्कि उसे चाशनी की तरह सब में समाहित होने वाली होना चाहिए...तो क्या विश्वविद्यालय के चुनावों में राजनीतिक दलों की विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले छात्र संगठनों के बैनर तले चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगना चाहिए...? बहुत से उपलब्ध विकल्पों में से ये भी एक विकल्प है...कम से कम नोटा को मिलने वाले वोटों का बढ़ता प्रतिशत तो इसी ओर इशारा करता है...!!

कुंवर सी.पी. सिंह वरिष्ठ टी.वी. पत्रकार

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