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- भरण-पोषण की राशि महिला...
डा. बुशरा इरम
हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला आया जिसमें एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को आजीवन Maintenance (भरण पोषण) की राशि पति से प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है।
जब कभी इस प्रकार के निर्णय न्यायालय द्वारा दिए जाते हैं तो उनकी बहुत सराहना होती है, इस प्रकार के निर्णयों को महिला अधिकारों की रक्षा के रूप मे संदर्भित किया जाता है। यह सच है किसी समाज की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस समाज की महिलाएं कितनी शक्तिशाली हैं और उन्हें कितने अधिकार प्राप्त हैं। जितने अधिक अधिकार महिला को प्राप्त होंगे समाज उतना ही प्रगतिशील व परिपूर्ण कहलायेगा।
वैवाहिक जीवन जब किसी कारण निर्वाह योग्य नहीं रह जाता और पति पत्नी को एक दूसरे से अलग हो जाना पड़ता है उस समय एक महिला के सामने उसके भविष्य की आर्थिक सुरक्षा का संकट उत्पन्न हो जाता है। ऐसी परिस्थिति मे विधि द्वारा Cr.P.C की धारा 125 के अंतर्गत महिला के लिए पुरुष की आय से राशि निर्धारित कर दी जाती है ताकि वह अपना जीवन यापन अच्छी तरह कर पाए। विवाह विच्छेद की परिस्थिति में बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी विधिक रुप से बाप की होती है।किंतु तलाकशुदा महिला जब तक दूसरा विवाह नहीं करती अपने पूर्व पति से स्वयं के लिए भरण पोषण की रकम प्राप्त करती रहती है।
इस्लाम मे एक महिला को सर्वप्रथम जो अधिकार प्राप्त है वह उसकी इज्जत का है। इज्जत हिफाजत ऐसे शब्द हैं जिनका सीधा संबंध आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा से है।
परंतु इस्लाम के अनुसार एक मुस्लिम महिला तलाक के पश्चात केवल तीन महीने अर्थात इददत की अवधि तक ही अपने पति से भरण पोषण की राशि प्राप्त कर सकती है। इस अवधि के पश्चात प्राप्त की जाने वाली राशि या धन हराम अथवा पाप की श्रेणी में आता है , अर्थात अलग हो चुका पति 3 महीने तक ही महिला की आर्थिक सहायता का कर्तव्य निभा सकता है। खास बात यह है कि 3 महीने भरण पोषण की जो राशि पति पत्नी को देता है उसकी सीमा निर्धारित नहीं की गई है। बल्कि महिला को अधिक से अधिक राशि दी जा सकती है। इस्लाम ने भी तलाक के बाद बच्चों के भरण पोषण के खर्च का दायित्व पिता पर ही डाला है। यहां पर यह जानना भी आवश्यक है कि वह महिला जिस की तलाक हो चुकी है और इद्दत के दौरान यह ज्ञाात होता है कि महिला गर्भवती है तो उसके इददत की अवधि बच्चे के जन्म तक मानी जाती है।
परिवार की आर्थिक आवश्यकताओ की पूर्ति का दायित्व इस्लाम के अनुसार एक पुरुष का है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की आर्थिक व्यवस्था का दायित्व निभाने के लिए एक पुरुष को बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस्लाम के अनुसार महिलाएं भी आर्थिक कार्य कर सकती हैं, परंतु इस कार्य या परिवार के लिए आर्थिक व्यवस्था की जिम्मेदारी का उन पर कोई भार या दायित्व नहीं होता है , यही कारण है कि जब पति पत्नी के बीच तलाक हो जाती है तो पति केवल 3 माह तक ही तलाकशुदा पत्नी को भरण पोषण की राशि देने का दायित्व रखता है। क्योंकि उस के ऊपर परिवार के दूसरे सदस्यों के भी भरण पोषण की जिम्मेदारी होती है।
अब प्रश्न यह आता है कि तलाकशुदा महिला जिसके पास आय का कोई साधन नहीं 3 माह बाद अपने आर्थिक आवश्यकताओ की पूर्ति किस तरह करे। इस्लाम एक दूरदर्शी मजहब है इसलिए सामाजिक स्तर पर ऐसे प्रावधान करने का आदेश देता है जिसके माध्यम से तलाकशुदा महिला अपनी बाकी जिंदगी व्यतीत करने के लिए आर्थिक सहायता प्राप्त कर सकती है। एक मुस्लिम समाज के लिए आर्थिक सहायता का यह प्रावधान अत्यंत आवश्यक कार्य की श्रेणी में आता है , बल्कि फर्ज कार्य की श्रेणी में आता है क्योंकि इस तरह के प्रावधान की गैर मौजूदगी में तलाक के इस्लामी उसूल पर कायम रहना एक औरत के लिए बड़ा ही कठिन हो जाता है।
इस्लाम एक ऐसा धर्म है जिसमें अधिकारों को बहुत महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त है। और बहुत विस्तार से हर रिश्ते के अधिकार का निर्धारि करण किया गया है। अधिकारों के निस्तारिकरण में इस्लाम अतिक्रमण का विरोधी है। इस्लाम के अनुसार निकाह एक संधि है जिसके माध्यम से एक महिला और एक पुरुष साथ जीवन व्यतीत करने के लिए इकट्ठा होते हैं। इसलिए अलग होने पर संधि के पक्षकार के तमाम रिश्ते खत्म हो जाते हैं । यहां पर एक चीज स्पष्ट करना जरूरी है की विवाह की संधि में समय का विवरण नहीं होता , अर्थात शादी कितने समय के लिए है यह निर्धारित नहीं होता है ,और यह संधि आमतौर पर की जाने वाली संधि से भिन्न होती है।
इस्लाम ने पति पत्नी को एक दूसरेे का लिबास अर्थात पर्दा करार दिया है। निकाह के बाद भी एक औरत का उसके परिवार से संबंध समाप्त नहीं होता है।
इस्लाम के कानून के अनुसार तलाकशुदा औरत की आर्थिक सहायता अर्थात भरण पोषण अनिवार्य है , तलाकशुदा महिला का अधिकार है कि उसे जीवन यापन के लिए आवश्यक राशि प्राप्त हो।
लेकिन आर्थिक सहायता या भरण-पोषण की राशि 3 महीने के बाद तलाक दे चुके पति की आय के बजाय तलाकशुदा महिला के परिवार कि आय से या समाज में मौजूद ऐसे संगठनों से जिनका निर्माण ऐसे कार्यों के लिए किया गया हो या सरकार के द्वारा दिए जाने का प्रावधान किए जाने को इस्लाम उचित एवं जायज़ करार देता है।
ताकि दोनों पक्षकार सरलता पूर्वक जीवन में आगे बढ़ पाए , क्योंकि जीवन व्यतीत करने के लिए तलाकशुदा महिला हो या पुरुष दोनों को साथी की आवश्यकता होती है , जिस प्रकार महिला के अधिकार महत्वपूर्ण है उसी प्रकार पुरुष का भी अधिकार है कि अनावश्यक बोझ से उसकी रक्षा की जाए, आने वाले वक्त में यदि वह दूसरा विवाह करता है तो अपनी आय का प्रयोग अपने और अपने परिवार के लिए कर पाए। सारी जिंदगी किसी गैर रिश्ते का खर्च या भार उठाने के कारण समाज के लिए विवाह एवं विवाह विच्छेद प्रश्न चिन्ह का रूप धारण करके ना रह जाए।लोगों का निकाह जैसे पवित्र क्रिया मे विश्वास बना रहे। तथा औरत की मर्द पर निर्भरता को समाप्त किया जा सके।